कुतुबमीनार है चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य कालीन खगोलविद वराहमिहिर का विष्णु स्तंभ

-अशोक “प्रवृद्ध”

अयोध्या में श्रीराम लला को न्याय मिलने और मथुरा में श्री कृष्ण को न्याय दिलाने की लड़ाई न्यायालय में विचाराधीन होने के बाद अब सताईस हिन्दू -जैन मंदिरों को तोड़कर बनाई गई, क़ुतुब मीनार में स्थित मस्जिद कुव्वत उल इस्लाम का मामला दिल्ली उच्च न्यायालय में पहुंच कर विचाराधीन है। भगवान विष्णु और प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की ओर से दिल्ली के साकेत कोर्ट में दाखिल इस मुकदमा के अधिवक्ता हरिशंकर जैन ने याचिका में अदालत से उस जगह पर देवी-देवताओं को पुनर्स्थापना करने और हिन्दुओं और जैनियों को पूजा -पाठ करने का अधिकार देने, केंद्र सरकार और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को एक ट्रस्ट बनाने का आदेश देने की मांग की है। इस पर विचार करते हुए अदालत के द्वारा 6 मार्च 2021 शनिवार को इस याचिका पर सुनवाई को 27 अप्रैल तक के लिए टाल दिए जाने के बाद इस सम्बन्ध में वाद- विवाद चरम पर है। गत वर्ष 24 दिसंबर 2020 को भी साकेत कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई करते हुए इसे 6 मार्च तक के लिए स्थगित कर दिया था। ऐसे में यह प्रश्न हवा में तैरने लगी है कि वास्तव में कुतुब मीनार कहीं याचिका में कही गई विष्णु स्तंभ तो नहीं है? याचिकाकर्ता ने इतिहास में दर्ज जानकारियों के आधार पर बताया है कि इतिहास के प्रसिद्ध गणितज्ञ वराहमिहिर ने ग्रहों की गति के अध्ययन के लिए विशाल स्तंभ (स्तम्भ) का निर्माण करवाया और इस स्तम्भ (स्तंभ) को विष्णु स्तंभ नाम प्रदान किया था, जहां वर्तमान में कुतुब मीनार परिसर है। मुस्लिम शासकों के दौर में इसे कुतुब मीनार नाम दे दिया गया। साकेत स्थित सिविल जज नेहा शर्मा की अदालत में दाखिल वाद में मुगल बादशाह कुतुबुद्दीन ऐबक पर सताईस हिन्दू-जैन मंदिरों को तोड़कर वहां मस्जिद बनवा देने का आरोप लगाते हुए यह भी दावा किया गया है कि तोड़े गए मंदिरों के पत्थर एवं निर्मित फूल पत्तियों, हिन्दू धर्म के अनुसार नक्काशी किए गए पत्थर एवं मंदिर के अन्य सामानों से मस्जिद बना दिया गया है। याचिका में कहा गया है कि परिसर में स्थित उस मस्जिद में भगवान विष्णु, गणेश, कमल, स्वास्तिक आदि कई ऐसे चिह्न मौजूद हैं जो यह साबित करता है कि यह स्थान मंदिरों का था और उसी को तोड़कर मस्जिद बनाया गया है। सताईस नक्षत्रों के प्रतीक सताईस मंदिर, जैन तीर्थंकरों, भगवान विष्णु, शिव, गणेश अदि देवी देवताओं के मंदिरों को तोड़कर इस मस्जिद को बनाया गया। भारतीय पुरातत्व सर्वे का बोर्ड भी यही बताता है कि उसे सताईस हिन्दू-जैन मंदिरों को तोड़कर बनाया गया है। अदालत में दाखिल वाद के अनुसार मोहम्मद गौरी के गुलाम कुतुबुद्दीन ने दिल्ली आते ही सबसे पहले ग्रहों की गणना के लिए महरौली में बनाए गए हिन्दुओं के सताईस मंदिरों को तोड़ने का आदेश दिया था। जल्दबाजी में मंदिरों को तोड़कर बची हुई सामग्री से ही कुव्वत उल इस्लाम नाम का मस्जिद सन 1192 में बना दिया गया। कुव्वत उल इस्लाम का मतबल इस्लाम की ताकत। याचिका में कहा गया है कि मस्जिद बनाने का मकसद इबादत से ज्यादा स्थानीय हिन्दू एवं जैन मंदिरों को तोड़ना और उन्हें नीचा दिखलाना था। उस मस्जिद में मुसलमानों ने कभी नमाज नहीं पढ़ी क्योंकि मस्जिद की दीवारों, खंभे, मेहराबों, दीवारों और छत पर जगह-जगह हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियां थी, जिसे आज भी देखा जा सकता है।

इस सम्बन्ध में प्राप्य प्राचीन भारतीय गौरवमयी इतिहास के छुट- पुट पृष्ठों को खंगालने और भारत की राजधानी दिल्ली में अवस्थित कुतुबमीनार के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारत की वास्तुकला, चित्रकला और स्थापत्यकला के साथ ही यहाँ की ज्ञान -विज्ञान व तकनीकी अत्यंत उत्कृष्ट व गौरवमयी थी, लेकिन भारतीय इतिहास का यह एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष है कि इस स्तंभ को क़ुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा बनवाये जाने का कोई प्रमाण नहीं मिलने के बावजूद इस स्तंभ का निर्माता एक मुस्लिम आक्रमणकारी शाहबुद्दीन (शहाबुद्दीन) गोरी के गुलाम रहे कुतुबुद्दीन ऐबक को बताया गया है। बिना किसी प्रमाण के और बगैर परिणाम सोचे लिखे इस इतिहास के अनुसार कुतुबुद्दीन ऐबक ने इस मीनार का निर्माण कार्य का आरम्भ1192 ईस्वी में किया था, लेकिन इतिहास के अध्ययन से यह सत्य प्रमाणित होता है कि 1192 ईस्वी में कुतुबुद्दीन ऐबक शहाबुद्दीन गोरी का मात्र एक गुलाम था और 1206 ईस्वी में शहाबुद्दीन गौरी की मृत्यु हो जाने के उपरान्त ही वह अपने आपको गुलाम से एक सुल्तान की स्थिति में समझ सका था। ऐसे में प्रश्न उत्पन्न होता है कि कोई गुलाम अपने मालिक के रहते हुए किसी मीनार को अपने नाम से निर्माण कैसे आरम्भ कर सकता है? शहाबुद्दीन गोरी जैसे क्रूर और अत्याचारी शासक के रहते हुए यह कदापि संभव नहीं था कि उसका गुलाम हिंदुस्तान में अपने नाम से कोई स्तम्भ निर्माण का कार्य आरम्भ कर सकने का दुस्साहस कर सके। ऐतिहासिक सत्य तो यह है कि 1192 ईस्वी में भारत के सम्राट पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु हो जाने के उपरान्त भी तुर्कों का भारत की राजधानी दिल्ली में कोई वर्चस्व स्थापित नहीं हो पाया था। यहाँ की हिन्दू शक्ति व हिन्दू राजाओं ने तुर्कों के पाँव टिकने नहीं दिए थे।1206 ईस्वी में शहाबुद्दीन गोरी की मृत्यु होने के पश्चात भारत के उसके द्वारा विजित क्षेत्रों का शासक कुतुबुद्दीन ऐबक बना, और पहले उसे अपने विरोधियों को परस्त करने में में ही दो वर्ष लग गये। अपने कुल चार वर्षों के शासन काल में दो वर्ष भी वह दिल्ली में शांतिपूर्वक रहकर अपने विजित क्षेत्रों पर शासन नहीं कर पाया था, और 1210 ईस्वी में उसकी मृत्यु हो गई। उसके शासन के अंतिम दो वर्ष में से उसका अधिकांश समय लाहौर में बीता था और वह वहीं पर पोलो खेलते हुए मृत्यु को प्राप्त हो गया। इस ऐतिहासिक सत्य को नकार कर अथवा उपेक्षा करते हुए भारतीय इतिहास के पृष्ठों में यह दर्ज है कि कुतुबुद्दीन ऐबक के द्वारा क़ुतुब मीनार, कुवैतुल इस्लाम मस्जिद और अजमेर में अढाई दिन का झोपड़ा नामक मस्जिद का निर्माण कराया गया थाI जबकि इतिहास स्पष्ट रूप से यह उजागर करता है कि भारत के महान शासक चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासन काल में निर्मित वराह मिहिर नाम के भारत के महान गणितज्ञ, खगोलविद और नक्षत्रों के विशेष ज्ञाता की इस वेधशाला के पास स्थित सताईस मंदिरों का क़ुतुबुद्दीन ने विध्वंस कराया था। हाँ, यह सत्य है कि अब उसके नाम से दर्ज अर्थात वर्तमान कुतुबमीनार सदृश्य मीनार बनवाने की कोशिश उसने अवश्य की थी, जिसके ध्वंसावशेष आज भी वहाँ पड़े हुए हैं।

पुरातन ग्रन्थों के अध्येताओं और पुरातत्व पर शोद्ध करने वाले भारतीय विद्वानों के अनुसार इस स्तम्भ का निर्माण मेरु पर्वत की आकृति के आधार पर किया गया है। मेरु पर्वत का स्वरूप ऊपर की तरफ पतला होते चले जाने की भांति ही इस स्तंभ का स्वरूप भी ऊपर जाकर पतला होता जाता है। मेरु पर्वत का व्यास 16000 योजन है, इसीलिए इस वेधशाला के निर्माताओं ने इसका व्यास सोलह गज रखा, अर्थात एक हजार योजन बराबर एक गज माना गया। समीप ही जंग न लगने वाले लौह स्तंभ पर ब्राह्मी लिपि में संस्कृत में अंकित है कि विष्णु का यह स्तंभ विष्णुपाद गिरि नामक पहाड़ी पर बना था। इस अंकन से सिद्ध होता है कि मीनार के मध्य स्थित मंदिर में लेटे हुए विष्णु की मूर्ति को मोहम्मद गोरी और उसके गुलाम कुतुबुद्दीन ने नष्ट कर दिया था। स्तंभ अर्थात खंभे को एक भारतीय राजा की पूर्व और पश्चिम में हुई विजय के सम्मानस्वरूप बनाया गया था। स्तंभ में सात तल अर्थात मंजिल थे, जो एक सप्ताह के परिचायक थे, लेकिन अब स्तंभ में केवल पाँच तल हैं। छठवें तल को गिरा दिया गया था और समीप के मैदान पर फिर से खड़ा कर दिया गया था। सातवें तल पर अपने हाथों में वेद को पकडे हुए संसार के सृष्टा चार मुख वाले ब्रह्मा की मूर्ति थी। ब्रह्मा की मूर्ति के ऊपर एक सफेद संगमरमर की छत्र अर्थात छतरी थी जिसमें सोने के घंटे की आकृति चित्रित थी। इस स्तंभ के शीर्ष अर्थात उपरी तीन तलों को ब्रह्मा से घृणा करने वाले मूर्तिभंजक मुस्लिमों ने नष्ट- भ्रष्ट कर दिया। मुस्लिम हमलावरों ने नीचे के तल पर शैय्या पर आराम करते विष्णु की मूर्ति को भी नष्ट कर दिया। लौह स्तंभ को गरुड़ ध्वज या गरुड़ स्तंभ कहा जाता था। यह विष्णु के मंदिर का प्रहरी स्तंभ समझा जाता था। एक दिशा में सताईस नक्षत्रों के मंतदिरों का अंडाकार घिरा हुआ भाग था। कुछ पुरातत्वविदों के अनुसार ध्वस्त स्तम्भ के सबसे ऊपर सातवीं मंजिल पर प्रजापालक विष्णु की प्रतिमा लगाई गई थी। जो इस बात का प्रतीक है कि इस चराचर जगत के संचालक व नियामक शक्ति सबसे ऊपर रहकर भी सबमें व्याप्त है। वही इसका प्राण है और अपनी प्राण शक्ति से इसका संचालन करने में समर्थ है।

ध्यातव्य है कि सबसे ऊपर अर्थात सातवें तल पर ब्रह्मा अथवा विष्णु किसी की भी प्रतिमा विराजित हो, लेकिन यह सर्वविदित तथ्य है कि भारतीय संस्कृति में विशेष महत्व रखने वाले सात भुवनों , सात लोकों, सात द्वीपों, सात पर्वतों, सात ऋषियों, सात नदियों अर्थात सप्तसैंधव, सप्त चिरंजीवियों आदि की परम्परा सिर्फ भारत में ही है, इस परम्परा का अन्य सभ्यताओं में कोई प्राचीन प्रमाण नहीं मिलता। इससे स्पष्ट है कि स्तंभ की सात ताल अर्थात मंजिलों के निर्माण का भी विशेष रहस्य था। विद्वान सातवें आसमान के ऊपर खुदा को बैठाने की इस्लाम की परम्परा इसी भारतीय सप्त परम्परा की नकल मानते है । यह सात मंजिलें हमारे शरीर में स्थित सात चक्रों का भी प्रतीक हैं। ईश्वर एक देशीय नहीं है, वह सर्वनियंता, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी और सर्वाधार है। वह दूर रहकर भी निकट है और इस समस्त चराचर जगत की प्राण शक्ति के रूप में कार्य कर रहा है। ऊपर से देखने पर यह स्तंभ चौबीस पंखुड़ियों वाले कमल के फूल की भांति दिखाई देता है। जिसकी एक-एक पंखुड़ी एक होरा अर्थात चौबीस घंटों वाले घड़ी के डायल के समान दिखती है। चौबीस पंखुड़ियों वाले कमल के फूल का भवन पूर्णतः भारतीय परम्परा, हिन्दू विचार है। इसे पश्चिम एशिया के किसी भी सूखे हिस्से से नहीं जोड़ा जा सकता है, क्योंकि वह वहां पैदा ही नहीं होता है। स्तंभ के चारों ओर भारतीय परम्परा की राशि चक्र को समर्पित सताईस नक्षत्रों अथवा तारामंडलों के लिए मंडप या गुंबजदार भवनें थीं। कुतुबुद्दीरन के द्वारा स्वयं लिखित एक विवरण के अनुसार उसने इन सभी मंडपों या गुंबजदार इमारतों को नष्ट कर दिया था, लेकिन उसने यह कहीं नहीं लिखा कि उसने कोई मीनार बनवाई। दूसरी ओर स्तंभ से अवशेष में परिवर्तित खंडहर चीख- चीखकर पुकारते हैं कि चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल में उनके नौ रत्नों में से एक महान खगोलविद व गणितज्ञ वराह मिहिर के द्वारा इस विष्णु स्तंभ का निर्माण ज्योतिष के आधार पर सताईस नक्षत्रों की उपयोगिता, ज्ञान विज्ञान के आधार पर कृषि के लिए मानसून की गति, किसानों को समय पर मानसून की सही सूचना देने के लिए कराया गया था। सताईस नक्षत्रों के आधार पर निर्मित होने के कारण विशेष महत्व रखने वाले इस वेधशाला को कालान्तर में गरुड़ स्तंभ, ध्रुव स्तंभ अथवा मेरु स्तंभ आदि नामों से भी जाना जाता रहा है। भारतीय मौसम व फसलों के पूर्वानुमान आदि महत्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी गणितज्ञ और खगोलविदों के द्वारा इस वेधशाला में बैठकर अपने प्रयोगों व परीक्षणों के माध्यम से किये जाने की व्यवस्था थी। इस स्तंभ के समीप अलग -अलग नक्षत्रों से सम्बन्धित सताईस मंदिर में बैठकर वराह मिहिर अपने शोध कार्य को पूर्ण करते थे। जिस दिन जिस नक्षत्र की स्थिति होती थी उस दिन उसी नक्षत्र के नाम से निर्मित मंदिर में बैठकर वराह मिहिर अपने वैज्ञानिक निष्कर्ष निकाला करते थे। उनके निष्कर्षों से सम्राट को अवगत कराकर जनहित में उनकी सूचना लोगों तक पहुंचाई जाती थी। समीप ही वराह मिहिर के द्वारा बसाया गया मिहिरावली नाम का शहर अवस्थित है, जो वर्तमान में मेहरौली के नाम से प्रसिद्ध है । यह एक संस्कृ‍त शब्द है, जिसे मिहिर-अवेली कहा जाता है। मिहरावली की स्थापना चौथी शताब्दी के भारतीय महाराज चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक वराहमिहिर ने किया था। वराहमिहिर ने ही ग्रहों की चाल की गणना के लिए सताईस नक्षत्रों के प्रतीक सताईस मंदिरों का निर्माण कर उन्हें ध्रुव स्तंभ या मेरु स्तंभ का नामकरण किया। वराह मिहिर कश्मीर के वराह मूल आज के बारामूला के रहने वाले थे । बारामूला अर्थात वराह मूल उन्हीं के नाम से विख्यात है । सताईस नक्षत्रों का ज्ञान संसार को भारत ने ही दिया है। इसके उपरांत भी इतिहास में इस वेधशाला के निर्माण का श्रेय कुतुबुद्दीन ऐबक को दे दिया गया है। जिसने इस मीनार का सिर्फ और सिर्फ नामकरण अपने नाम से करा लिया था। कुतुबुद्दीन की भाषा में वेधशाला को ही क़ुतुब कहते हैं और मीनार स्तम्भ का पर्यायवाची है । इसलिए उसने भारत के इस वेधशाला सम्बन्धी स्तम्भ को कुतुबमीनार के नाम से सिर्फ अपने नाम करके ही अपनी पीठ स्वयं थपथपा ली थी। उसने यह भी नहीं सोचा कि किसी भी मंदिर या भवन के मलबे से भराव तो हो सकता है लेकिन उससे कोई नई भवन अथवा इमारत तैयार करना अर्थात खड़ी करना संभव नहीं है।

वर्तमान में कुतुबमीनार परिसर में जीर्ण -शीर्ण अवस्था में पड़े विज्ञान के शोध करने के लिए निर्मित सभी सताईस मंदिरों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिससे इस वेधशाला का उपयोग वर्तमान समय में वैज्ञानिक खोजों के लिए किया जा सके।
वर्तमान में भी सरकार के द्वारा वेधशाला की उपयोगिता को सिद्ध करने, वहां पर कृषि सम्बन्धी शोधों, खोजों को प्रेरित करने के लिए सारी सुविधाएं उपलब्ध कराए जाने से कृषि क्षेत्र में महती लाभ होने के साथ ही भारत के गौरवमयी इतिहास को भावी पीढ़ी को समझने में आसानी होगी, लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि विज्ञान और वैज्ञानिक खोजों पर भी इतिहास और छद्म धर्म निरपेक्षता हावी है। स्तंभ की दीवारों पर स्थापित देवी- देवताओं की मूर्तियां और चित्रकारी के माध्यम से उत्कीर्णित वेदों की ऋचाओं पर भी विशेष अनुसंधान व शोध करने, वराह मिहिर के द्वारा स्थापित व विष्णु ध्वज अथवा स्तंभ नाम प्रदत्त इस स्तंभ को उनका सम्मान करते हुए कुतुब मीनार के स्थान पर अब फिर इसका नाम विष्णु ध्वज के नाम से रखे जाने से इसकी सार्थकता सिद्ध होगी । इसी स्तम्भ के परिसर में स्थित ब्राह्मी भाषा में लिखित एक लौह स्तम्भ में इस स्तम्भ को गरुड़ध्वज कहा गया है। यह लौह स्तम्भ अब से लगभग सत्रह सौ वर्ष पूर्व बने होने के बाद भी इस पर आज तक जंग नहीं लगी है, जिससे प्राचीन भारत के उत्कृष्ट वैज्ञानिक सोच का पता चलता है। यहाँ एक थमले पर संजीवनी बूटी लेकर आकाश में उड़ रहे हनुमान का चित्र लगा होने से भी स्पष्ट होता है कि कुतुबुद्दीन के द्वारा इस स्तंभ का निर्माण कराये जाने की स्थिति में वहां हिन्दू महापुरुषों के इस प्रकार के चित्रों की चित्रकारी नहीं कराई जाती। इसी प्रकार के कई अन्य चित्र भी वहां हिन्दू देवी- देवताओं अथवा महापुरुषों के हैं। ऐसी स्थिति में भारत सरकार से यहाँ की बहुसंख्यक जनता यह अपेक्षा करने लगी है कि इस ऐतिहासिक स्थल का नामकरण विष्णु ध्वज करते हुए वहां पर विष्णु ध्वज की स्थापना का काल, उद्देश्य और महत्व का लेखन, वराह मिहिर की आदमकद प्रतिमा का स्थापन, उनके द्वारा स्थापित सताईस नक्षत्रों को दिखाने वाले मंदिरों का उद्धार, सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के द्वारा स्थापित विशाल साम्राज्य का मानचित्र निर्माण कराकर इसके प्राचीन वैभव को लौटाने की दिशा में भी सकारात्मक कदम उठाया जाय ताकि भावी पीढ़ी को अपने गौरवमयी भारतवर्ष के सत्य इतिहास को समझ सकने में मदद मिल सके।

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