सन 1961 ई में मैंने आसाम के सिलचर में गुरुचरण कॉलेज में व्याख्याता के रुप में कुल बीस महीने ही रहा था। हमारी जीवन-यात्रा का वह संवेदनशील कालखंड था। तीन मास के शिशु पुत्र को लेकर हम सम्पूर्ण अपरिचित परिवेश और लोगों के बीच रह रहे थे। हमें जोड़नेवाली एकमात्र बात थी कि वे सब बांग्लाभाषी थे और हम बांग्ला बोलना पढ़ना जानते थे, हालाँकि उनकी बोली सिलहटी थी जो हमारे लिए अपरिचित थी। सम्पूर्ण नए लोगों और परिवेश के बीच वह छोटी अवधि आनन्द और भरोसे के अनुभवों और अपनेपन की छूवन से भरी रही। कॉलेज के मित्रों के अलावे शहर में कई एक लोगों का अकुण्ठ स्नेह मिला । वे सारे लोग पाकिस्तान के सिलहट जिला से विस्थापित थे। उस पार की कहानियाँ रोज शाम के अड्डे पर उनसे सुनने को मिलती थीं। इस मित्रों में दो व्यक्ति अनन्य थे। श्री अनन्त देव,चाय का व्यापार करते थे। डॉ कल्याणी दास चिकित्सक थीं।
श्री अनन्त देव ने पत्राचार के माध्यम से सरोकार को अगले तीस सालों तक जीवित रखा। यह मालूम होता रहा कि उन्होंने वहाँ के सांस्कृतिक जीवन में अपनी दिशारी नामक संस्था के माध्यम से सक्रियता जारी रखी है। फिर भी हमारा मिलना नहीं हो पाया। मेरी प्राथमिकताओं की सूची में सिलचर का नाम नहीं रह गया था।
सपनों में मैं अक्सर देखा करता कि मैं सिलचर आया हूँ. पर इसके पहले कि परिचित लोगों से मुलाकात हो, मेरी नींद टूट जाती। अपराध बोध सा हुआ करता। मैं परेशान हुआ करता।
इसी तरह पचास साल बीत गए। सपनो का आना बन्द नहीं हुआ। फिर एक दिन मेरे छोटे बेटे ने (वह दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर है।) बताया कि उसे सिलचर स्थित असम विश्वविद्यालय से एक सेमिनार में भाग लेने का निमंत्रण मिला है। मैंने उससे कहा, कि काफी लम्बा अरसा हो गया। हो सकता है अब कोई रह नहीं गया हो, पर फिर भी पता करना अनन्त देव और डॉ कल्याणी दास में से कोई हों तो उनसे मिलने की कोशिश करना। जीसी कॉलेज की प्रोफेसर डॉ अपराजिता का भी पता करना। उसने वहाँ से फोन पर सूचित किया कि डॉ कल्याणी दास का देहान्त काफी पहले हो गया है पर उनके द्वारा स्थापित सुन्दरीमोहन सेवा भवन है। श्री अनन्त देव है , वे संस्कृति कर्मी के रुप में प्रतिष्ठित हैं और विश्वविद्यालय के लोग उन्हें जानते हैं। उसने कहा कि हमलोग अनन्त बाबू और प्रोफेसर अपराजिता से मिलने जा रहे हैं।
थोड़ी ही देर के बाद फिर फोन आया। मेरे लिए एक अवर्णनीय क्षण उपस्थित हुआ था। श्री अनन्त देव से पचास साल बाद बात हो रही थी। क्या बात हुई, यह तो याद नहीं रहा, पर बात हुई थी. और अच्छी बात हुई थी।। बहू ने बताया कि अनन्त बाबू उन लोगों से मिलकर भावुक हो उठे थे। अपु को पकड़कर बोल उठे थे, “गंगानन्देर छेले !” उन दोनो को दूसरे दिन डिनर पर बुलाया, संस्मरण सुनाते रहे और मेरे लिए कुछ किताबें दी।
इसके बाद वे दोनो प्रोफेसर अपराजिता से भी मिले, उनको मेरी याद थी। उन्होंने कॉलेज के एक वर्तमान प्राध्यापक को अपने घर पर बुलवा लिया था। वे लोग आत्मीयता से मिले और गुरुचरण कॉलेज की कई एक स्मारिकाएँ उन्हें भेंट की। कॉलेज के पूर्व शिक्षकों की सूची में मेरा नाम भी था।
अन्त में वे डॉ कल्याणी दास मिश्र के द्वारा स्थापित सुन्दरीमोहन सेवाभवन गए। संस्थान के निर्देशक डॉ कुमार दास बहुत ही आत्मीयता से मिले। साथ में ले जाकर सेवा भवन के विभिन्न भागों को दिखाया और उसकी कार्यप्रणाली की व्याख्या की। डॉ कुमार दास ने सुन्दरीमोहन सेवाभवन की स्मारिकाएँ मेरे लिए उन्हें दी।
अपूर्वानन्द -पूर्वा लौटे तो मुझे वे सारे उपहार मिले। अनन्त बाबू ने अपनी तस्वीरें भी दी थीं।
मैंने सिलचर का संस्मरण लिखा हुआ था । पर वह हिन्दी में था। अनन्त बाबू को हिन्दी नहीं आती थी और मुझे बांग्ला लिखने का अनुभव नहीं था। फिर भी मैंने उस संस्मरण का बांग्ला अनुवाद किया। व्याकरण और रचना की परवाह छोड़ दिया। और अपनी एक तस्वीर के साथ डाक द्वारा अनन्त बाबू के पास भेज दिया। दो सप्ताह बाद मुझे भी डाक से एक पैकेट मिला। पैकेट खोला तो आश्चर्य से भर उठा। सिलचर से प्रकाशित दैनिक अखबार सामयिक प्रसंग की एक प्रति के साथ अनन्त बाबू का पत्र और उनकी एक किताब थी। अखबार के रविवासरीय अंक में एक पूरे पन्ने पर मेरी तस्वीर और परिचय के साथ मेरा संस्मरण छपा हुआ था।
मेरे लिए चरम आनन्द की अनुभूति थी यह। अचरज भी हो रहा था कि यह क्या हुआ जिसकी कल्पना भी मैंने नहीं की थी। इस अखबार के जरिए अब मुझे एक लिंक मिल गया था जो सिलचर से मुझे जोड़ता था। मैंने फ्लिपकार्ट के जरिए अनन्त बाबू के नाम तीन पुस्तकें उपहार के तौर पर भेजीं। अब मैं अनन्त बाबू के फोन या पत्र का इन्तजार कर रहा था जिससे मेरा उपहार मिलने की सूचना मुझे वे देते। तभी सामयिक प्रसंग के इ-संस्करण पर उनके आकस्मिक निधन का समाचार देखा। मैं अवाक हो गया। सब कुछ कहानी की तरह लग रहा था। फोन लगाया, घंटी बजी , उनके नाती शुभ्र ने समाचार की पुष्टि की। मालूम हुआ कि मेरा उपहार उनके रहते ही पहुँच तो गया था, पर वे उसे देख पाए कि नहीं , यह अजाना रह गया।
एक और लिंक मिला श्री अमिताभ देव चौधुरी के व्यक्तित्व में । वे अनन्त बाबू के भतीजे और उत्तरपूर्व के बांग्ला साहित्य के प्रतिष्ठित कवि सह चिन्तक.। अमिताभ ने भी अपनी पुस्तकें डाक से भेजी और उनके साथ सम्पर्क बना। अमिताभ ने मेल के जरिए अपनी रचनाएँ सम समय पर भेजी । मैंने उनकी कई एक रचनाएँ अनुवाद की और वे हिन्दी की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं।
एक बात हुई। पचास सालों से सपनों में सिलचर जाने का सिलसिला आप से आप थम गया। अब मुझे वे सपने नहीं आते।
धन्यवाद, डा मधुसूदन,
सही कहा आपने। कुछलोगों में अपनापा और प्यार करने की अनोखी क्षमता होती है। सपने क्यों आते रहे और कैसे उनका आना रुक गया- पहेली रह ही गई।
ऐसे अनुभव जीवन के प्रति आस्था उत्पन्न करते हैं।
हृदय स्पर्शी-सत्य कथा. धन्यवाद गंगानन्द झा जी.