बसपा सुप्रीमो मायावती का राज्यसभा की अपनी सदस्यता से त्यागपत्र के मायने


बसपा सुप्रीमो मायावती ने राज्यसभा की अपनी सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया है। ऐसा उन्होंने अपने खिसकते जनाधार को किसी न किसी प्रकार अपने साथ पुन: लाने के लिए किया है। जिससे कि उन्हें दलितों की सहानुभूति मिल सके। उनके इस राजनीतिक दांव के भविष्य में परिणाम क्या होंगे ये तो समय ही बताएगा, परंतु फिलहाल तो उन्होंने अपने निर्णय से सबको चौंका दिया है।
मायावती की कार्यशैली ही ऐसी रही है कि वे अपने समर्थकों को अपने साथ बांधे रखने केे लिए किसी भी सीमा तक जा सकती हैं। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन का आरंभ महात्मा गांधी को गाली देकर किया था। वहां से वह चर्चा में आयीं और उन्होंने चर्चा को अपनी लोकप्रियता में परिवर्तित करने का अच्छा अवसर समझकर उसे भुनाना आरंभ कर दिया। जब वह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री पहली बार बनीं तो उन्होंने प्रदेश की करोड़ों अरबों की सरकारी जमीन के पट्टे अपने समर्थकों को देकर अपना ‘वोट बैंक’ मजबूत किया। इससे उनके राजनीतिक कैरियर को ऊर्जा मिली और वह उत्तर प्रदेश में दलितों की सर्वमान्य नेता हो गयीं और वह इतनी व्यस्त गयीं कि उन्होंने अपने आका काशीराम को भी समय देना बंद कर दिया। जिससे वह परेशान रहने लगे, परंतु मायावती पर इससे कोई प्रभाव नहीं पड़ा। काशीराम दु:खी रहते हुए संसार से चले गये। ऐसा नहीं है कि मायावती ने ऐसा कांशीराम के साथ ही किया हो, उन्होंने अपने को सत्ताशीर्ष तक पहुंचाने में सहायक रही भाजपा के साथ भी छल किया और छलपूर्ण प्रपंचों के बीच वह भाजपा को धोखा देकर दूर हो गयीं। जब वह सपा के निकट पहुंची तो एक दिन उससे भी ‘तलाक’ की तैयारी करने लगीं। जब सपा के ‘गुण्डों’ ने देखा कि मायावती अब तलाक लेकर भागने ही वाली हैं तो उन्होंने मायावती का ‘काम तमाम’ करने की सारी तैयारी कर ली। फलस्वरूप ‘सर्किट हाउस’ काण्ड हो गया। उस काण्ड से मायावती को बचाने वाली भी भाजपा ही थी, पर मायावती ने फिर भाजपा का अहसान नहीं माना। हां, वे सपा से इतनी भयभीत अवश्य रहीं कि उस घटना के पश्चात कभी वे सत्ता से बाहर रहकर विधानसभा उत्तर प्रदेश की सदस्य नहीं रहीं उन्होंने अपने आपको सपा से बचाने के लिए नई दिल्ली में संसद को ही अधिकसुरक्षित समझा।

इस काल में मायावती ‘दलित की बेटी’ से ऊपर उठीं और असीम ‘दौलत की बेटी’ बन गयीं। यदि किसी ने उनसे यह पूछने का साहस किया कि ये असीम दौलत कहां से आयी?-तो उन्होंने उसे दलितों पर अत्याचार करने की सड़ी मानसिकता वाला कहकर भावनात्मक रूप से प्रताडि़त करते हुए मुंह बंद करने के लिए बाध्य किया। फलस्वरूप मायावती ‘मायावी संसार’ में सांसारिक ऐश्वर्यों का आनंद लेती रहीं। उनके भाई आनंद ने उनकी सत्ता का जीभर कर दुरूपयोग किया। उनमें वे सारे अवगुण रहे जो राजनीतिज्ञों से भारत में अपेक्षित हैं। पर किसी अधिकारी या पत्रकार या जांच एजेंसी का यह साहस नहीं हुआ कि वे आनंद के ‘आनंद’ में विघ्न डाल सकें। ‘वोट बैंक’ जब मजबूत हो तो लोकतंत्र राजतंत्र की दुर्गन्धित मानसिकता वाले राजनीतिज्ञों को उत्पन्न करने लगता है और यही हुआ कि लोकतंत्र ‘आनंद के आंनद’ को मूकदर्शक बनकर देखता रहा।
लोकतंत्र के मौन के इस काल में मायावती ने अपने ही पैत्रक गांव बादलपुर और उसके पड़ोसी गांव सादोपुर, अच्छेजा, बिशनूली की जमीन का अधिग्रहण किया। इन गांवों के लोग ‘दलित की बेटी’ के अत्याचारों को याद करके आज तक रोते हैं। उनकी उस समय की 50 लाख रूपया प्रति बीघा की जमीन को मायावती ने कौडिय़ों के भाव अधिग्रहीत करा लिया। गांव बादलपुर और सादोपुर के लोगों ने इस बार के विधानसभा चुनावों में बसपा का लगभग एकमत होकर बहिष्कार किया और उसे अपना मत नहीं दिया। अपने गांव में मायावती ने भूमि घोटला किया और अघोषित रूप से अपना ‘स्मृति भवन’ वहां निर्मित कराया। जिसमें ग्राम समाज की भूमि को भी कब्जा लिया गया। जिस समय मायावती का ‘हाथी’ उनके गांव के लोगों पर अत्याचार कर रहा था, तब उनके गांव के लोगों का एक प्रतिनिधिमंडल लेखक से मिला था। तब मैंने उन्हें यह परामर्श दिया था कि आप लोग अपने जिलाधिकारी और परगनाधिकारी से लिखित में यह पूछें कि क्या वह ‘मायामहल’ के लिए अधिग्रहीत की गयी जमीन के भीतर आ गयी, चकरोड़, नाली, सैक्टर मार्ग की भूमि पर मायावती का अवैध कब्जा होने दे रहे हैं? यदि नहीं तो क्या उन्होंने ऐसे अवैध कार्य के विरूद्घ मायावती या उनके लोगों के विरूद्घ बेदखली और जुर्माने की कार्यवाही की है? लोगों ने इस पर कार्यवाही की, उन्हें कुछ हल्की सी राहत मिली, पर स्थायी समाधान नहीं मिला। प्रशासन ने उन्हें दल कर रख दिया।
आज उस भूमि घोटाले की जांच यूपी की योगी सरकार कराने जा रही है। उधर सारा दलित समाज सरकारी पट्टों से मिली सरकारी जमीन को बेचकर पुन: भूमिहीन हो चुका है, उसकी भूमि को सपा के लोगों ने खरीद लिया है। इस प्रकार सरकारी भूमि पट्टों के माध्यम से मायावती के हाथों से दलितों तक पहुंची तो दलितों ने उसे मुफ्त का माल समझकर कौडिय़ों के भाव सपा के लोगों को या अन्य भूमाफिया किस्म के या प्रभावी लोगों को विक्रय कर दिया। जिस पर सपा इसलिए चुप है कि देश के इस सबसे बड़े भूमि घोटाले का सबसे अधिक लाभ उसे ही मिला है। देश के इस भूमि घोटाले की जांच किया जाना भी आवश्यक है, जिसमें ‘वोट बैंक’ बनाने के लिए प्रदेश की सारी सरकारी जमीन ही लोगों को रिश्वत में बांट दी गयी और वह भी आज उनके पास है नहीं। दलित तो फिर दलित रह गया है। उसकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं आया है। फलस्वरूप पढ़े लिखे दलित भाइयों ने समझदारी का परिचय देते हुए पिछले चुनावों में मोदी के ‘सबका साथ सबका विकास’ नारे में आस्था व्यक्त की और बसपा का साथ छोडक़र वे जाति बिरादरी की भावना से ऊपर उठकर भाजपा के साथ चले गये। अब मायावती को खिसकती जमीन और खिसकते जनाधार को लेकर भारी चिंता है, साथ ही अब उन्हें यह भी लगने लगा है कि लालू के पश्चात उनकी बारी भी आ सकती है और जब उनकी ‘असीम दौलत’ की जानकारी दलित भाइयों को होगी तो वह मुंह भी दिखाने लायक नहीं रहेंगी। अत: ऐसे में भावनात्मक बातें करके इस्तीफा देने का नाटक करते हुए मायावती छंटपटा रही हैं, पर उन्हें यह पता होना चाहिए कि अब लोगों का मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। हमारे दलित भाई भी जाग चुके हैं और समाज का पढ़ा लिखा वर्ग नई बयार के साथ बहने को तैयार है। मायावती के लिए यह त्यागपत्र महंगा पड़ सकता है, कहीं ऐसा न हो कि वे राजनीति की भूल-भुलैया की अंधेरी गलियों में ही अब खोने जा रही हों?

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