अश्वनी कुमार
आज शिक्षा के अधिकार को अस्तित्व में आये लगभग साढ़े तीन साल हो चुके हैं। प्रधानमंत्री ने 1 अप्रैल 2011 को शिक्षा के अधिकार को लागू करने कि घोषणा की थी। घोषणा के साथ ही लगा कि ये एक नई शुरुआत होगी। स्वतन्त्रता प्राप्ति के 64 साल बाद बच्चो को शिक्षा का अधिकार मिला, जबकि श्रीलंका और बांग्लादेश में बच्चों को ये अधिकार बहुत पहले ही दिया जा चुका है। प्रारंभिक उत्साह के बाद जहाँ मंत्रालयों ने संसाधनों की कमी की दुहाई देने शरू की, वहीँ राज्य सरकारें भी अपनी असमर्थता सिद्ध करने जुट गई।
अगर शिक्षा के अधिकार के शुरुआती एक साल पर नज़र डालें तो हम देखतें हैं कि, शिक्षा के अधिकार के क्रियान्वयन की रिपोर्ट गैर सरकारी संगठनों ने संयुक्त रूप से जारी की थी जिसमें राज्य सरकारों, सरकारी विभागों और मंत्रालयों द्वारा उठाये गए कदमों का विश्लेषण दिया गया था। रिपोर्ट साफ़ तौर पर सभी के लिए अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा के सम्बन्ध में राजनैतिक प्राथमिकता की कमी की ओर इशारा करती है। 1911 में पहली बार अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा का प्रस्ताव भारत की इम्पीरियल लेजिस्लेटिव असेंबली में रखा गया था, जहां महाराज दरभंगा ने इसका विरोध किया था, कानून बन चुका है पर झिझक अभी भी पहले जैसी है।
कानून बनाने के 6 महीने अंदर ही प्रत्येक राज्य को नियम बनाकर अधिसूचना जारी करनी थी, साथ ही विद्यालयों में स्कूल प्रबंधन समिति का निर्माण किया जाना था, पर अगर रिपोर्ट पर नज़र डालें तो किसी भी राज्य ने स्कूल प्रबंधन समिति बनाने की अधिसूचना भी जारी नहीं की है जबकि स्कूल जाने योग्य बच्चो कि पहचान, नामांकन और इनका स्कूल में बने रहना, इसी स्कूल प्रबंधन समिति का कार्य था। पर स्कूल विकास योजना बनाने कि तो अभी शरुआत भी नहीं हुई थी। जिन 19 राज्यों ने ये नियम बनाये भी हैं, इनमे से सिर्फ ओड़िशा, सिक्किम, मणिपुर औ अरुणाचल प्रदेश में ही इसे लागू करने कि अधिसूचना जारी हुई थी, इससे तात्पर्य है कि, अभी तक के 15 फीसदी राज्यों ने इसके कार्यान्वयन कि पहली सीढ़ी भी नहीं चढ़ी थी।
केवल राजस्थान ही एक ऐसा राज्य है जहां स्कूल मैनेजमेंट कमेटियों के गठन का कार्य शुरू किया गया था, साथ ही स्कूल के बाहर मौजूद बच्चों की संख्या जानने के लिए कारगर सर्वेक्षण भी पूरा कर लिया था। सर्वेक्षण में 12 लाख बच्चे स्कूल से बाहर पाए गए जिनमें लगभग 7 लाख 11 हजार लड़कियां और 4 लाख 77 हजार लड़के हैं। शिक्षा अधिकार कानून के तहत स्कूल प्रबंधन समिति और स्थानीय निकायों को हर राज्य में इस तरह का सर्वेक्षण करवाना आवश्यक है। 2001 की जनगणना के मुताबिक भारत मे 5 से 14 साल की आयु के बच्चों की संख्या लगभग 25 करोड़ थी जिनमें से 18 करोड़ बच्चे स्कुलों में थे, ये बच्चे 8 लाख 80 हजार स्कूलों में 5 लाख 70 हजार शिक्षको से पढ़ रहे थे। स्कूल जाने वाले बच्चों में से 46 प्रतिशत अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं। अगर इन बच्चों को अलग कर दिया जाए तो भी सरकार को ये जिम्मेदारी तो अपने कंधों पर लेनी ही पड़ेगी कि स्कूल के बाहर ये 7 करोड़ बच्चे कहां और क्या कर रहें हैं?
यहाँ यह भी जरुरी हो जाता है कि हम शिक्षा के अधिकार को कैसे सभी के लिए बराबर बनाये होगा कैसे शायद सरकार ही नहीं चाहती। क्योंकि अगर चाहती तो ये भेद भाव न आता जो आज चलन बन गया है। हम बात कर रहे हैं निजी और सरकारी स्कूल के भेद की, आज अगर सरकार वास्तव में चाहती है कि हमारे देश का हरेक बच्चा बेहतर शिक्षा ग्रहण करे तो उसके लिए उन्हें धनी परिवारों के बच्चों के साथ पढ़ाया जाए यानि निजी स्कूलों में पढ़ाया जाए, ईडब्लूएस कोटे से कुछ होने वाला नही है। निजी स्कूलों में बच्चो को बचपन से ही वो शिक्षा और संगति दी जाती है जिससे बच्चा सुधरता है और बड़ा आदमी बनता है। लेकिन यहां गरीबों को गरीबों के स्कूल में डालकर अपनी गुफलिसी की तांग सोच में कैद करके मारने का प्रबंध किया गया है। यानि निजी स्कूलों में ईडब्लूएस का प्रावधान तो कर दिया गया है, पर कितने स्कूल इस पर अमल कर रहे और कर भी रहे हैं या नहीं? ये एक बड़ा सवाल है। कहीं ईडब्लूएस कोटा दिखाकर सरकार निजी स्कूलों के साथ मिलकर खेल तो नहीं खेल रही है।
क्या कारण है कि बच्चे शिक्षा का अधिकार होने के बाद भी सड़कों पर भीख मांग रहे है, मज़दूरी कर रहे जबकि शिक्षा के अधिकार में यह भी प्रावधान है कि बच्चों से मजदूरी करवाना अपराध है। पर ज़मीनी हक़ीक़त हम सब जानते हैं।
अगर राजधानी दिल्ली की बात करें तो 5 से 14 साल की उम्र के हजारों बच्चे ऐसे होंगे जो कि, सड़कों पर भीख मांगना, ढ़ाबों पर बर्तन साफ करना, जूते पालिस करना, कुली का काम करना, साइकिल और मोटर साइकिल की दुकानों पर काम करना, घरों में साफ सफार्इ करना और कुछ तो जेब काटने, चोरी करने का काम भी करते हैं। क्या सरकार को ये सब दिखार्इ नहीं देता और अगर देता है तो सरकार इसके लिए क्या कर रही है? जब सिर्फ दिल्ली में हजारों बच्चे शिक्षा को छोड़कर इस तरह का काम कर रहे हैं तो भारत के बाकी राज्यों में कितने बच्चे होंगे? इसका अंदाज़ा आप खुद ही लगा सकते हैं।
शिक्षा के अधिकार कानून पर आने वाले समय में अमल सुनिश्चित करने के लिए जनजागरूकता की आवश्यकता है। गैर सरकारी संगठनों की विश्लेषण रिपोर्ट के अनुसार, आम जनता के अलावा सरकारी अफसरों के भी अभी तक इस कानून की पूरी जानकारी नही है।
इसे पूर्ण रूप से अमल में लाने के लिए आवश्यक है कि इस कानून की जानकारी समाज के हर तबके को मिले ताकि इसका उपयोग सही ढ़ंग से किया जा सके ऐसा तभी संभव हो पाएगा, जब सभी राज्य इसके लिए नियम बनाकर इन नियमों को लागू करे। स्थानीय निकायों, पंचायतों, अध्यापकों तथा स्वयंसेवी संगठनों की सक्रिय भागीदारी भी इस कानून के प्रति लोगों में जागरूकता लाने वाली होनी चाहिए। तभी शिक्षा घर-घर तक पहुंच पाएगी इस लड़ार्इ में सभी को उतरना होगा ताकि शिक्षा सबके लिए महज़ सपना बनकर न रह जाए।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी प्रकारिता करने के बाद आज एक निजी कम्पनी के साथ कॉन्टेंट राइटर के रूप में कार्य कर रहे हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में सक्रिय रूप से लेखन भी कर रहे हैं। ग़ज़ल और कविताओं में रूचि रखते हैं और लिखते भी हैं। )