रिश्तों की बाती

 अब बेटे की नहीं शहर से,
 चिट्ठी आती।
 अम्मा बैठी दरवाजे पर,
 आँख गड़ाती।

  जब से गया शहर
  अब तक न
  वापस आया।
  खत भेजा ना
  शहर पहुँचकर,
  फोन लगाया।
  अम्मा को तो
  पल -पल उसकी
  याद सताती।

   पता नहीं कैसा होगा वह
   कहाँ मिला घर।
   क्या खाता होगा वह
   होगा किस पर निर्भर।
   सोच- सोच कर उसे
   रात भर नींद न आती।

   बेटों का अब
   हाल यही है होता जाता।
   चल देते हैं शहर 
   गाँव अब छूटा जाता।
   माँ बापू की ,घर की याद
   बिसरती जाती।

   इसीलिए क्या बेटों को
   पाला पोसा है।
   बिगड़ा वक्त आज देखो
   कैसा -कैसा है।
   रिश्तों की बाती अब
   बुझकर धुँआँ उड़ाती।

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प्रभुदयाल श्रीवास्तव
लेखन विगत दो दशकों से अधिक समय से कहानी,कवितायें व्यंग्य ,लघु कथाएं लेख, बुंदेली लोकगीत,बुंदेली लघु कथाए,बुंदेली गज़लों का लेखन प्रकाशन लोकमत समाचार नागपुर में तीन वर्षों तक व्यंग्य स्तंभ तीर तुक्का, रंग बेरंग में प्रकाशन,दैनिक भास्कर ,नवभारत,अमृत संदेश, जबलपुर एक्सप्रेस,पंजाब केसरी,एवं देश के लगभग सभी हिंदी समाचार पत्रों में व्यंग्योँ का प्रकाशन, कविताएं बालगीतों क्षणिकांओं का भी प्रकाशन हुआ|पत्रिकाओं हम सब साथ साथ दिल्ली,शुभ तारिका अंबाला,न्यामती फरीदाबाद ,कादंबिनी दिल्ली बाईसा उज्जैन मसी कागद इत्यादि में कई रचनाएं प्रकाशित|

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