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देवनगरी में रोमन कंकड

डॉ. मधुसूदन
एक कल-कल छल-छल बहती हिन्दी की नाद मधुर लहर के बीच, कोई मूरख बेढंगे रोमन लोटे में ऊबड खाबड कंकडों को डालकर हिला हिला कर, बजा रहा हो; बस ऐसा ही अनुभव होता है; जब कोई हीन-ग्रन्थि गुलाम बडे नाटकीय पर गौरवान्वित ढंग से बीच बीच में अंग्रेज़ी कंकडों को हिन्दी की मणीमाला में पिरोता जाता है।
और सोचता है, कि,बडा पुरूषार्थ या पराक्रम कर दिया।
साक्षात निर्लज्जता को बार बार सुनता रहता हूँ,अब तो कान पक गए हैं; बार बार सुनकर कि,”अब हम हिन्दी भूल गए हैं।” इससे भी इतनी ग्लानि नहीं होती, जितनी तब होती है, जब इस हीन ग्रन्थि को ही गुरूता मान कर मूरख गौरवान्वित होते देखता हूँ।
रोमन में जब संस्कृत या हिन्दी लिखी जाती है, तो ऐसे अनुभव होते है, जिनकी कल्पना शायद स्वप्न में भी नहीं की जा सकती।
1Hindi-EnglishIngPeacePoemएक ऐसी ही घटना घटी जिसने मुझे जैसे हिमालय पर ले जाकर, नीचे फेंक दिया हो, ऐसा अनुभव हुआ।
चलिए, उत्सुकता और बढाने से पूर्व, आपको घटना-प्रसंग ही, सुनाता हूँ।

सुरीनाम के प्रवास में,वहाँ के प्रमुख पाण्डेजी ने सुनाया कि,एक पुरोहितनें, स्वयं अस्वस्थ
होने के कारण,अपने पुत्र को,किसी के अंतिम संस्कार के लिए, भेजा। पुत्र ने वहाँ अंत्येष्टि मंत्रों के बदले, अलग (शायद विवाह)के मंत्र पढ डाले। उस को बार बार विवाह संस्कार में ही जाने का  अनुभव था; और, उसकी सुविधा के लिए, मंत्र भी चेतन भगत की, रोमन नागरी में लिखे गए थे। सज्जन भी सफाई देते हुए बोले,कि पन्ने भी उलट पुलट हो गए थे; हवा भी चल रही थी; वर्षा भी थी।
संस्कृत का अष्टम पष्टम किसी के समझ में आया तो उसने बालक को, टोका, तब बालक संभला,”सॉरी” बोला, फिर सही पन्ने ढूंढे और पढे।
ये “सॉरी” बडे काम की चीज है। बडी बडी गलतियाँ करो, और सॉरी बोलो। समस्या समाप्त।
कुछ लोग इतने आगे बढे हुए हैं, कि, उनको इस पर भी दुःख नहीं होता,वे बिना तर्क, हमें ही पागल समझते हैं। वे पहले ही मर चुके हैं। उनकी अंत्येष्टि के समय उसी बालक को सुरीनाम से, बुलाया जाए।
ऐसे लोगों पर, करुणा, दया,घृणा ऐसे सारे भाव एक साथ उमड पडते हैं।
पर,करुणा कर ही छोड देते हैं; अपने ही बंधु हैं। इन्हीं लोगों का साथ भी तो लेना है।

रोमन हिन्दी उच्चारण उस दिन, विश्वविद्यालय के हिन्दी वर्ग के निकट से, जब निकला, तो अचानक सुनाई दिया, कोई छात्र चिल्ला रहा था: मैं बटाटा हूँ। मैं बटाटा हूँ।
मैं बटाटा हूँ? आलू को बटाटा भी कहा जाता है।
पर एक गोरा छात्र हाथ ऊपर उठा उठाकर उत्तर देना चाहता था। कहना चाहता था, मैं बताता हूँ, मैं बताता हूँ। किन्तु मुँह से निकल रहा था, “मैं बटाटा हूँ, मैं बटाटा हूँ।” ये चेतन भगत के रोमन राक्षस का प्रताप था। रोमन में लिखी हिन्दी भी देवनागरी सीखा हुआ, हिन्दी का जानकार ही सही उच्चारित कर सकता है। अन्य नहीं। चेतन भगत इस तथ्य को कैसे भूल रहे हैं?

वैसे, अमरिका में हर कोई अपने संक्षिप्त पहले नाम से जाना जाता है।
तो हमारे मुँछोवाले, गेंदालालजी ने भी अपनी पहचान गेंदा नाम से कराई थी, जो रोमन में, Genda लिखा जाता था; पर बुलानेवाले उन्हें गेण्डा गेण्डा ही बुलाते थे।
कभी आपको भी ऐसा अनुभव हुआ होगा। जब मैं एक मित्र को मिलने गया। मुझे देखते ही, अंदर पुकारा गया, “पैरेलल युअर फ़्रेन्ड हॅज़ कम।” बिचारा पैरलल बहार आया। प्यारेलाल  का पैरलल बन गया था।ये रोमन नागरी का ही प्रताप था।
एक दिन, पढा कर,कार्यालय लौटा, तो एक संदेश था। पूछा किसका? तो सहायिका बोली,सुनाती हूँ “बट डोन्ट लाफ़”। बोली, तीन बार नाम पूछा, पर मुझे, हर बार “पोर्ट ऑथोरिटी”  ही सुनाई दिया।
सोच में पड गया, कौन होगा?
ऐसे कूट नामों को, अनुमान से, सुलझाने का अभ्यास आप को होगा, मुझे भी था। पर ये नाम, पहली बार सुन रहा था; पहले सुना होता, तो अनुमान हो जाता।
बुद्धि भिडाता रहा, प्रयास करता रहा; पर, कुछ सूझा ही नहीं।
आप बताइए क्या नाम होगा? मुझे तो सूझ ही नहीं रहा था। ऐसा अमरिकन नाम भी तो होता नहीं।
फिर सहायिका कह रही थीं, कि, बलाघात(ऍक्सेण्ट)शैली भारतीय थी। बहुत सोचा,सर खुजलाया। घटना वैसे ८४-८६ की होगी। अंत में, मैं ने सोचा,पोर्ट-ऑथोरिटी से ही संदेश होगा।मैं ने पोर्ट-ऑथोरिटी में काम जो किया था, सोचा वहीं से दूरभाष आया होगा। शैली पहचानने में सहायिका गलती कर गई होगी।
दूरभाष जोडा और नाम सुना, “डोन्ट लाफ प्रॉमिस “भी काम न आया। दोनों हाथों से चेहरा ढक कर हँसा। हँसी रोकने का, प्रयास बहुत किया, पर विफल रहा। रोक ही  नहीं पाया। संदेश था, एक पुराने मित्र “पार्थसारथी” का।
कहाँ पार्थसारथी? और कहाँ पोर्टऑथोरिटी?
ये रोमन अंग्रेज़ी ही गलती का कारण थी।
जिन्हें देवनगर की भाषा ही नहीं आती, उनकी बात समझ में आती है।
पर हमारे रविंद्र के रॉबिन क्यों हो जाते हैं? हरी के हॅरी क्यों होते हैं? अशोक अपने आपको मरने से पहले ही राख (ऍश) क्यों कहलाता है?
मेरे मधु जैसे मधुर नाम  Madhu का  विवाह विच्छेद कर,  Mad और Hu (मॅड-हु )कर देते हैं। और हमारे चेतन भगत जी, श्वेच्छासे “चेटन बॅहगॅट” बन कर बह गए हैं।

जब अंग्रेज़ भारत में आए तो पहले बंगाल में आए। तब उन्हें वहाँ, बंगला नहीं पर, हिन्दी ही बोलनी पडती थी। उन्हें साँझ-सबेरे   दरवाजा बंद करो, और दरवाजा खोल दो। ऐसा आदेश देना पडता था।
जब दरवाजा बंद करो, कहना चाहते, तो बोलते थे (“There was a brown crow”)देअर वॉज ए ब्राउन क्रो।जब दरवाजा खुलवाना होता था, तो बोलते थे, (There was a cold Day) देअर वाज़ ए कोल्ड डे। हमारे एक बंगला मित्र ने ही बताया।

सारे रोमन वाले इतने बहरे हैं,कि देवनागरी ठीक सुन भी नहीं सकते; उच्चारण क्या करेंगे?
एक बार संदेश था, कि, किसी डिशवाशर का दूरभाष था। सचमुच वह संदेश था ईश्वर शाह का। अब ईश्वर शाह को बना दिया डिशवाशर। ईश्वर शाह सुन लेता,तो, अपमान समझता।
पर,ये रोमन लिपि का हमारी देवनागरी पर आक्रमण है।

एक बार, ऐसी कठिनाई हुयी जब एक दीपावली पर विश्वविद्यालय में भोज आयोजित किया था। खीर-पुरी के भोज में, पुरी बेचारी समस्याग्रस्त हो गयी ।
ये प्राध्यापक लोग बडे जिज्ञासु होते हैं। फिर एक श्वेत अतिथि प्राध्यापक ने पुरी का ही (स्पेलिंग) वर्तनी ही पूछी।
अब आप जानते हैं, कि, पुरी तो खाने की चीज है, स्पेलिंग की नहीं। पर इस अतिथि और फिर प्राध्यापक को कौन समझाए? और पुरी का स्पेलिंग क्या बताएं?
तब, इस गौरांग प्रभु की सेवा में तत्परता से चार यादव-कृष्ण दौड पडे।
सभी यादवों को हाथ से दूर हटा कर एक स्वप्रमाणित वरिष्ठ विद्वान बोले, यह कठिन काम आप मुझ पर छोडिए। और पुरी का स्पेलिंग एक एक अक्षर का उच्चारण कर, जैसे किसी प्राथमिक कक्षा में पढाते हैं, उसी ढंग में बोले; P-O-O-R-I.
“अच्छा तो इसको पुअरी कहते है?” POOR पर I जो लगा तो साहजिक ही उन्हों ने उसे “पुअरी” बना दिया।और पूछने भी लगे, कि “क्या इंडिया के पुअर पिपल” इसको खाते हैं?
मैं मन ही मन सोच रहा, “मर गए”।
भारत का गौरव बढाने, दीपावली का आयोजन करनेवाले, हम, इस “पुअर पिपल इमेज” से बहुत लज्जित रहते हैं। इस लघुता ग्रंथि को भी ६८ वर्ष हो गए,हमें अभी भी सताती रहती हैं।
इस स्पेलिंग का उपाय भी निकट विराजमान स्वयं को बुद्धिमान समझने वाले, सहस्रबुद्धे ने सोचा कि स्पेलिंग बदल देने से समस्या हल हो जाएगी।
हमारी लघुता ग्रंथि गोरे अतिथियों की समस्या हल करने में सदैव तत्पर रहती हैं। वे, मर्त्य सेन की शैली में, आगे बढें,जिनकी नोबेल प्राइस जीतकर हीन ग्रंथि और ही दृढ हो गयी है, बोले, आप लोग हट जाइए, मैं ने इसका हल ढूंढ निकाला है। और, उन्हों ने पुरी का स्पेलिंग बदल कर p-u-r-i बताया। और विजेता की दृष्टि से सर उठाकर चारों ओर देखने लगे।

उधर अमरिकन सज्जन ऐसे हर्षित हुए और न्यूटन की युरेका शैली में, खुशी से प्यूअरी!प्यूअरी!! चिल्लाए। सारी भीड चौंक कर, उनकी ओर देखने लगी कि कौनसी सुन्दरी को ये सज्जन बुला रहे हैं।
चेतन जी, आप बताइए।
यह पुअरी और प्यूरी की समस्या क्या देवनागरी की है? या रोमन की है?
लघुता ग्रंथि की मानसिकता से जकडे हुए लोग इसे देवनागरी की समस्या मानते हैं। ये देवनागरी की नहीं रोमन की समस्या है।

हमारे एक मित्र हैं शिलेन्द्र। हरयाणा से आते हैं। तो बोलने में नाम सिलेन्द्र या सिलेंदर, और रोमन में (स्पेलिंग)वर्तनी silendar बनती है। — अब भाई लोग उन्हें सिलेन्डर सिलेन्डर बुलाते हैं, कुछ लोग बहरे भी हैं, वें रोमन में ही सुनते हैं, देवनगर से उनका परिचय ही नहीं है। वें उन्हें  सिलिन्डर सिलिन्डर ही बुलाते हैं।
सज्जन भी मक्के की रोटी और सरसों का साग खा खाकर, उप्पर से मक्खन वाली लस्सी चढा कर सिलीन्डर जैसे ही बन चुके हैं।
एक कार्यालय में जाना हुआ। वहाँ मुझे देख कर ही भाई लोग एक भारतीय को कॅलेन्डर, कॅलेन्डर पुकार कर मेरे सामने ले आए। सोचकर, एक इंडियन कॅलेन्डर, दूसरे कॅलेन्डर से मिलने आया होगा।
पूछा, तो जाना कि उनका नाम कलिन्द्र था। उसका कलिन्दर उच्चार किया करते थे, कलिन्दर कलिन्दर करते करते उसका कॅलेण्डर कॅलेण्डर हो गया।

उसी प्रकार हमारे दूसरे मित्र सुरेन्द्र पंजाब से हैं। वहा सुरेन्दर उच्चारण होता है। रोमन स्पेलिंग करते हैं Surrender. पर अमरिका में इस पंजाब केसरी को सभी लोग सरेन्डर सरेन्डर बुलाते हैं।
अब सोचिए हमारे हिन्दी के परम हितैषी, समिति के  पूर्वाध्यक्ष “सुरेन्द्र नाथ” का क्या होगा। “सरेन्डर नॉट”। वैसे सुरेन्द्र नाथ सरेन्डर होने वालोंमें से नहीं है।
वे तिवारी भी हैं, तीन बारी भी सरेन्डर नहीं होंगे, नहीं होंगे, नहीं होंगे।

मेरे मधुसूदन का बना दिया है ==(Mad-Hu-Sudan) मॅड हु सुडान। मेरे जैसे गौरवान्वित भारतीय को, लोग पूछते हैं, कि तुम क्या सुडान से आए हो?
किसी ने जलदी जलदी में मुझे Md Hussain लिख कर महम्मद हुसैन बना दिया।
परिणाम ऐसा हुआ, कि, मुझे दूर दूर से दूरभाष आने लगे।
ऐसे ही नरेन्डर, बिरिन्डर, बिल्वेन्डर  का गिलिन्डर, कॅलेन्डर बना दिये है।
पर, इस रोमन पुराण को अब समाप्त करते हैं।

एक हमारे मित्र हैं, जिनका नाम है बाल। उन्हें किसी ने पूछा, कि. क्या मैं आपको बाल के बदले बिल बुला सकता हूँ? वैसे उनका नाम बलराम है। बुलाने में बल या बाल का उपयोग सहज है।
पूछनेवाले का नाम था ज्यॉर्ज । तो हमारे स्वाभिमानी बलरामजी ने उस ज्यॉर्ज को पूछा कि क्या मैं तुम्हें ज्यॉर्ज के बदले घसिटाराम बुला सकता हूँ? बलराम जी वैसे भारतीय संस्कृति के और हिन्दी के भी प्रखर प्रेमी ही नहीं, पुरस्कर्ता भी है।
अब हम रोमन के पीछे जाएंगे, हिन्दी को रोमन लिपि में लिखना और पढना चालु करेंगे, तो, क्या होगा जानते हो? संस्कृत की भी जो स्थिति होगी, उसपर सोचकर पाणिनि भी पश्चात्ताप करेंगे। सोचेंगे कि, क्यों मैं ने इस अपात्र प्रजा को,पूर्णातिपूर्ण व्याकरण की धरोहर छोडी?
एक मन्दिर में गया तो वहाँ एक “गौरांग प्रभु” गीता का श्लोक पढ रहे थे।
बिना हिचक,बडे भक्तिभाव से सुना रहे थे; उनके भक्तिभाव का अनादर मैं नहीं करता। वे तो विवश थे। पर, उच्चारण कुछ निम्न प्रकार के थे।
ढर्म क्सेट्रे कुरुक्सेट्रे समवेटा युयुट्सवाहा।
मामकाहा पाण्डवाश्चैव किम कुर्वट संजय।
आगे और…..
यडा यडा हि ढर्मस्य ग्लानिर्बहवटी बहारट।
अबह्युस्ठानमढर्मस्य टडाट्मानं स्रिजाम्यहम्‌
फिर अंत हुआ….
करारविण्डेण पडारविण्डं।
मुकारविण्डे विनिवेशयण्टं॥
वटश्य पट्रश्य पुटे शयाणं।
बालं मुकुण्डं मनसा स्मरामि॥

बच्चों को रोमन से हिन्दी-संस्कृत पढाई जाएगी,तो जो सांस्कृतिक हानि होगी, उसका अनुमान भी किया नहीं जा सकता। मानस विज्ञान कहता है; जो, चीज आप के पास होती है; उसका मूल्य सदैव उपेक्षित होता रहता है।
और,प्रमाण पत्रों से बुद्धि नहीं आती। उपाधियों(डिग्रियों)से भी नहीं आती।
स्वतंत्र विचार के लिए आप सभी को आवाहन है।

सोचिए, कुछ भी कहिए आप, किंतु एक बात माननी पडेगी।
आपको यदि हास्य-व्यंग्य के लेखक या कवि होना है, तो सरल उपाय, बता सकता हूँ। हिन्दी को रोमन लिपि में लिखकर अंग्रेज़ों की भाँति पढिए, आप अवश्य सफल व्यंग्यकार हो जाएंगे।