भोपाल में आरटीआई कार्यकर्ता शेहला मसूद की हत्या

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प्रमोद भार्गव

जान जोखिम में डालती जानकारी

भ्रष्टाचार की भंडाफोड़ कोशिशें जानलेवा साबित हो रही हैं। भोपाल की आरटीआई कार्यकर्ता शेहला मसूद की हत्या से पूरे देश में सूचना के अधिकार के तहत जानकारियां लेने की जोखिम उठा रहे कार्यकर्ता हैरान हैं। इस कानून के लागू होने से लेकर अब तक 17 आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या की जा चुकी है। बीते छह माह में ही छह कार्यकर्ताओं को मौत की नींद सुला दिया गया। मसलन प्रत्येक माह एक कार्यकर्ता को मौत के घाट उतारा गया। शेहला की हत्या के बाद सामने आईं जानकारियों से पता चला है कि उन्होंने करीब एक हजार आवेदन गड़बड़ियों से जुड़ी जानकारियां जुटाने में लगा रखे थे। इनमें बाघों के शिकार, वनों की अवैद्य कटाई और पुलिस की करतूतों से जुड़ी जानकारियों की मांगें महत्वपूर्ण थीं। लिहाजा आशंका जताई जा रही है कि इसी तारतम्य में उनकी हत्या कराई गई। हालांकि शुरुआत में इस हत्या को आत्महत्या में बदलने की कोशिश भी की गई। लेकिन शेहला के परिजनों तथा नेता प्रतिपक्ष अजयसिंह द्वारा सीबीआई जांच की मांग सामने आते ही मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस मामले की गंभीरता को समझते हुए इसे तत्काल सीबीआई को सौंप दिया।

सूचना का अधिकार कानून आजादी के बाद एक ऐसा क्रांतिकारी कानून बनकर उभरा है, जिसे आम नागरिक एक कारगर हथियार के रुप में लगातार इस्तेमाल कर भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ने में आगे आ रहे हैं। यह कानून लोक सेवकों और नौकरशाहों की जवाबदेही तय करता है। इसीलिए अब कार्यपालिका को भ्रष्टाचार, गड़बड़ियां, और बरती जा रही अनियमितताओं को गोपनीय बनाए रखना मुश्किल हो रहा है। सबसे ज्यादा गड़बड़ियां विकास कार्यों, लोक कल्याणकारी योजनाओं और जागरुकता अभियान से जुड़े कार्यों में आ रही हैं। इस कानून को वजूद में भी इसी मकसद से लाया गया था कि सरकारी कार्यों में प्रशासन एवं नागरिकों के बीच पारदर्शिता सामने आए और बरते जाने वाले भ्रष्टाचार पर अंकुश लगे। इन्हीं वजहों से नागरिक समाज में जागरुकता बढ़ी और लोक कल्याण के महत्व से जुड़ी जानकारियां एकत्रित करने का सिलसिला तेज हो गया।

चूंकि ये जानकारियां भरोसे के सूत्रों से मिली जानकारियों की बजाय संबंधित दफतर से ही प्रामाणिक व हस्ताक्षरित दस्तावेजों के रुप में सामने आती हैं, इसलिए इनकी सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। आरटीआई कार्यकर्ता इन दस्तावेजी साक्ष्यों को अखबारनवीसों को उपलब्ध कराकर खबरों का हिस्सा भी बना देते हैं। भ्रष्ट कारनामे सामने आने से संबंधित अधिकारी-कर्मचारी खुद को अपमानित महसूस करते हैं। इस कदाचरण पर जांच भी शुरु हो जाती है। जो उनके लिए कई परेशानियों का सबब बनने के साथ, भ्रष्ट आचरण से प्राप्त धन का बंटवारा करने का कारण भी बनती है। विधानसभा में मामला गूंज जाए तो कई सवालों के आधिकारिक जवाब भी देने होते हैं। लज्जा और जिल्लत के इन दौरों से न गुजरना पड़े इस नजरिये से ये लोग भी प्रतिकार का आक्रामक रुख अपना लेते हैं। यह मानसिकता जानकारी मांगने वालों के लिए कभी-कभी जानलेवा संकट भी साबित हो जाती है। शेहला मसूद की हत्या इसी मानसिकता का पर्याय बनती दिखाई दे रही है।

सूचना का अधिकार कानून लागू हुआ था तो यह उम्मीद जगी थी कि भ्रष्टाचार पर किसी हद तक लगाम लगेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। भ्रष्टाचार तो सुरसामुख की तरह बढ़ता ही रहा, आरटीआई कार्यकर्ताओं की जान पर और बन आई। नतीजतन देखते-देखते 17 कार्यकर्ताओं के भ्रष्टाचारियों ने प्राण हर लिए। चूंकि भ्रष्टाचार से जुड़ा मामला जितना संगीन होता है, उससे जुड़े नौकरशाह और ठेकेदारों का गठजोड़ भी उससे कहीं ज्यादा पहुंच वाला होता है। इसलिए अब्बल तो पारदर्शिता से जुड़ी जानकारियां देने में आनाकानी की जाती है और यदि जानकारी किसी बड़े घोटाले से जुड़ी है तो कार्यकर्ता की जान भी जोखिम में डाल दी जाती है। इसीलिए अब इन आरटीआई कार्यकर्ताओं की सुरक्षा की मांग भी बढ़ती जा रही है।

 

इस कानून की जरुरत राष्टीय राजमार्ग प्राधिकरण में इंजीनियर रहे सत्येंद्र दुबे की हत्या के बाद पुरजोरी से उठाई जा रही है। दुबे ने स्वार्णिम चतुुर्भज योजना में बरते गए भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ दस्तावेजी साक्ष्यों के साथ किया था। जिसका परिणाम उन्हें प्राण गंवाकर भोेगना पड़ा। इस घ्ज्ञटना के बाद से ही जानकारी देने वाले अधिकारी, कर्मचारी व आरटीआई कार्यकर्ताओं की सुरक्षा मुहैया कराने की मांग ने जोर पकड़ा हुआ है। इनकी पहचान भी गोपनीय रखने की ठोस मांग की जा रही है। विधि आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने भी केंद्र सरकार से इस दृष्टि से कानून बनाए जाने की पैरवी की है। इस मांग की पूर्ति के लिए ही व्हिसलब्लोअर कानून के प्रारुप को संसद में पेश किया जाना है। लेकिन कानून के जानकारों का मानना है कि इस कानून में कई विसंगतियां हैं। इसलिए इन्हें संशेधित किए बिना मौजूदा मसौसे को विधेयक का रुप देना गलत है। फिलहाल यह मसौसा संसद की स्थायी समिति के पास है। वह इसे परखने व जरुरी हुआ तो कुछ बदलावों के बाद संसद में चर्चा के लिए प्रस्तुत करेगी। दरअसल इस प्रस्तावित विधेयक और शासकीय गोपनीयता कानून के बीच ऐसा तालमेल होना जरुरी है, जिससे यह कानूनी रुप लेले तो इसके अमल की भी कारगर व्यवस्था सामने आए। टालने की स्थिति का सामना जानकारी मांगने वालों का न करना पड़े। गोपनीयता की ढाल में नाजायाज कारोबारों को अंजाम देने वाले भ्रष्टाचारी कार्यकर्ताओं को धमकाने तथा उनकी जान से खिलवाड़ करने से बाज आएं।

व्हिसलब्लोअर एवं सूचना के अधिकार के विरोध में खड़ी कार्यपालिका दावा करती है कि आरटीआई का दुरुपयोग हो रहा है। अधिकारियों को नाहक परेशान करने के लिए इसे एक हथियार के रुप में इस्तेमाल किया जा रहा है। ऐसे में यदि आरटीआई की छत्रछाया से वजूद में आए पूर्णकालिक इन कार्यकर्ताओं को व्हिसलब्लोअर कानून लाकर सुरक्षा मुहैया कराई जाती है तो सरकारी तंत्र को काम करने में और मुश्किलें बढ़ जाएंगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि कुछ लोगों ने आरटीआई को प्रतिष्ठा व आजीविका हासिल करने का स्थायी धंधा बना लिया है। लेकिन भ्रष्ट तंत्र का यह एक बहाना भर है। आरटीआई कानून का दुरुपयोग करने वालों के विरुद्ध भी दण्डात्मक कार्रवाई करने के पुख्ता इंतजाम हैं। किंतु भ्रष्टाचारियों में कानूनी तरीके से कार्यकर्ताओं से लड़ने का माद्दा व इच्छाशक्ति नहीं होती। इसलिए वे हथकण्डों का सहारा तो लेते हैं पारदर्शिता में और तरलता दिखाई दे ऐसे कानून के विरोध में खड़े दिखाई देते हैं। इस नजरिये से आरटीआई की मजबूती बनाए रखना तो जरुरी है ही, कार्यकर्ताओं की सुरक्षा के लिए ठोस कानून वजूद में आए यह भी जरुरी है।

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