सांझ सकारे सूर्योदय

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बच्चों और बुजुर्गों  के साझे और संवाद को प्रेरित करता एक प्रसंग
अरुण तिवारी

राजनाथ शर्मा, वैसे तो काफी गंभीर आदमी थे। लेकिन जब से पचपन के हुए, उन पर अचानक जैसे बचपन का भूत सवार हो गया। जब देखो, तब बचपन की बातें और यादें। रास्ते चलते बच्चों को अक्सर छेड़ देते। रोता हो, तो हंसा देते। हंसता हो, तो चिढ़ा देते। ‘हैलो दोस्त’ कहकर किसी भी बच्चे के आगे अपना हाथ बढ़ा देते। उनकी जेबें टाॅफी, लाॅलीपाॅप, खट्टी-मिट्ठी गोलियों जैसी बच्चों को प्रिय चीजों से भरी रहतीं। कभी पतंग, तो कभी गुब्बारे खरीद लेते और बच्चों में बांट देते। तुतलाकर बोलते। कभी किसी के कान में अचानक से ‘हू’ से कर देते। बच्चों जैसी हरकते करने में उन्हे मज़ा आने लगा। अब वह जेब में एक सीटी भी रखने लगे थे। उसे बजाकर बच्चों को अपनी ओर आकर्षित करते। यहां तक कि उनके कदम पार्क में भी जाकर बच्चों के बीच ही टिकते। बच्चों के साथ उनकी तरह उछलना-कूदना, दौड़ लगाना आदि उन्हे कुछ अटपटा न लगता। बचपन के प्रति उनकी यह दीवानगी यहां तक बढ़ी राजनाथ के कपड़ों का अंदाज भी बदल गया है। कल तक उन्हे कुरता-पायजामा प्रिय था; अब वह चटख रंग के ट्रैक सूट में निकलते। जींस, बरमुडा और टी शर्ट उन्हे खास प्रिय हो गये। बच्चों से कहते – ”बचपन में मुझे सब राजू कहकर बुलाते थे। तुम भी राजू कहकर ही बुलाया करो।”

उनकी उम्र के लोग उनमें आये इस बदलाव पर उन्हे अक्सर टोकते – ”क्या राजनाथ, इस उम्र में तुम ऐसी बचकाना हरकतें करते अच्छे लगते हो ?”

कोई कहता –  ”शर्मा जी, अपना इलाज कराओ।”

राजनाथ की श्रीमती जी को भी चिंता होने लगी – ”कहीं यह सचमुच पागलपन के लक्षण तो नहीं।” लेकिन जब कोई बच्चा राजनाथ को प्यार से ”राजू, आई लव यू” बोलता, तो राजनाथ सब कुछ भूल जाते। कहते कि बच्चों के बीच जाकर उनमें एक तोले खून बढ़ जाता है।

राजनाथ को एक दिन जाने क्या सूझी; सुबह उठकर अपने सारे नन्हे दोस्तों को न्योत आये – ”शाम को घर आना। सेलिब्रेट करेंगे।” बाज़ार जाकर बाल कहानियों  की कई किताबें खरीद लाये। उन्हे पैक कर दिया। बच्चों की मनपसंद खाने की चीजों की सूची बनाई। दो-चार बच्चों को बुलाकर पूछा भी कि उन्हे क्या पसंद है। लौटकर खुद ही ड्रांइग रूम से सामान की भीड.-भाड़ कम करने में जुट गये। श्रीमती जी ने देखा, तो सवाल दाग दिया – ”शर्मा जी, बाहर क्या कम हरकतें किया करते हो, जो अब घर का नक्शा बिगाड़ने में लग गये।”

राजनाथ ने कहा – ”अरी भागवान। तुम्हे तो कुछ याद ही नहीं रहता। आज हमारे भाग्य जागने वाले हैं। सूने घर में उमंग आने वाली है। कई मेहमान एक साथ आने वाले हैं। बहुत सारी तैयारियां कर आया हूं। तुम तो बस, देखती जाओ; क्या मज़ा आता है।”

शाम हुई। बच्चे आये। खूब रौनक लगी। राजनाथ ने हर बच्चे को अपने हाथ से रसमलाई खिलाई। कहानी की एक-एक किताब सभी बच्चों को उपहार में दी। बच्चों ने भी जाने कैसे पता लगा लिया कि आज उनके प्यारे राजू का 56वां जन्म दिन है। राजनाथ के ड्रांइगरूम में ”हैप्पी बर्थ डे टू यू राजू” और ”जिओ हज़ारों साल, साल के दिन हो एक हज़ार” जैसे आशीर्वचन गूंज उठे। बच्चे, राजनाथ से ऐसे लिपट गये, मानो उनके सगे हों।

सचमुच वह पल ऐसा ही था। राजनाथ की श्रीमती उर्मिल आनंद मिश्रित आश्चर्य से भर उठी। राजनाथ के साथ-साथ उर्मिल का मन भी बाग-बाग हो गया। उर्मिल को पहली बार लगा कि उनके पतिदेव का बचपना यदि किसी पागलपन के लक्षण हैं भी, तो काश! ये लक्षण उनकी उम्र के हर इंसान में पैदा हो जायें। बिस्तर पर पहुंचे तो राजनाथ कीं आखें खुशी के आंसुओं से भरी थी। उर्मिल के कंधे पर अपना सिर रख कह उठे – ”पगली, इस दुनिया में एक ये बच्चे ही तो हैं, जिनसे निस्वार्थ रिश्ते की उम्मीद की जा सकती है। वरना् तो तुम देख ही रही हो; अपने भी पराये होते देर नहीं लगती। मैं इन्हे देता ही क्या हूं ? बदले में ये मुझे जो देते हैं, इसका एहसास वे ही कर सकते हैं, जिन्हे बच्चों का प्यार मिला हो।”

काफी अरसे बाद उस रात उर्मिल और राजनाथ ने निश्चिंत मन से नींद ली। अगली सुबह का सूरज राजनाथ के घर जरा और उजाला लेकर आया। उर्मिल ने खुद आगे बढ़कर अखबार वाले को कह दिया – ”बच्चों की जितनी मैगज़ीन आती हैं, सब दे दिया करो।” एक अलमारी वाले को भी आॅर्डर दे दिया। चार्ट और पेटिंग का ढेर सारा सामान उठा लाई। चित्रकारी के साथ-साथ क्रोसिये से कड़ाई कर डिजायन उकेरने में उर्मिल को महारत हासिल थी। उर्मिल ने अपना हुनर बच्चों को देने की तैयारी कर ली। बस् फिर क्या था। मिस्टर और मिसेज राजनाथ के ड्राइंगरूम में एक लाइब्रेरी सज गई। हर शाम उर्मिल की क्रिएटिव क्लास लगने लगी।

राजनाथ से राजू बनने के इस सफर का अंत यह रहा कि राजनाथ जब तक जिये, खुश जिये; मरे तो उनकी अर्थी के पीछे रिश्तेदार और परिवार वालों ज्यादा, मोहल्ले के बच्चे थे। उर्मिल को भी आगे जीने की उम्मीद मोहल्ले के इन बच्चों से ही मिली।

इस प्रसंग को सामने रखकर मैं अक्सर सोचता हूं कि एक ओर ऐसी उम्र है, जिसके पास दुःख-सुख साझा करने को कोई अपना सा लगने वाला कंधा नहीं है; दूसरी ओर ऐसी उम्र है, धन-संपदा के अभाव में जिसकी जिंदगी भूख, बेकारी और लाचारी से भरी है। लाखों अनाथ बच्चे, सनाथ होने के लिए सहारा खोजते फिरते हैं। अपनी रोजी कमाने के चक्कर में पढ़ने की उम्र में औजार थाम लेते हैं। बुरी संगत में कई ऐसी लत पाल लेते हैं; जो आगे चलकर उनकी और बाकी की दुनिया को नरक बना देती है। कितना अच्छा हो कि बुजुर्गों की गोदियां और बच्चों के कंधे आपस में मिल जायें। ओल्ड एज होम और अनाथालयों को आपस में मिला दिया जाये। अनाथालयों के लिए संसाधन, संस्कार और अनुभव देने वालों को जुटाने की समस्या मिट जायेगी। अकेलेपन से जुझते बुजुर्गों को सहारा और प्यार मिल जायेगा। यदि बच्चे और बुजुर्गों के बीच ऐसा साझा अपने-अपने मोहल्ले में रहते हुए होने लग जाये, तो न किसी अनाथालय की ज़रूरत रहेगी और न किसी बुजुर्गालय की। यह उम्र की सांझ में सचमुच का सूर्योदय होगा। पहल किसी ओर से भी हो सकती है; चाहे हम राजनाथ से राजू बनें या छोटू से दद्दू का प्यारा छोटेलाल।

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