चिकित्सक एवं स्वास्थ्यकर्मियों की सुरक्षा जरूरी

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प्रमोद भार्गव

इटली में कोरोना वायरस से प्रभावित रोगियों का लगातार उपचार कर रहे 51 चिकित्सकों की मौत हो गई है। स्पेन में 12,298 चिकित्सकों एवं स्वास्थ्यकर्मियों की कोविड-19 जांच पाॅजिटिव आई है। भारत में भी मुंबई में एक डाॅ. उस्मान की मौत हुई है और दिल्ली के मोहल्ला क्लीनिक के चिकित्सक को कोरोना पाॅजिटिव आया है। यदि देशबंदी का उल्लंघन बड़े पैमाने पर होता है तो हमारे चिकित्साकर्मी खुद कोरोना की चपेट में आ सकते हैं। ऐसे में इलाज करना इसलिए मुश्किल होगा क्योंकि देश के अस्पतालों में पर्याप्त मात्रा में इस जानलेवा विषाणु से सुरक्षा के उपकरण भी नहीं हैं। यह विषाणु कितना घातक है, यह इससे भी पता चलता है कि चीन में फैले कोरोना वायरस की सबसे पहले जानकारी व इसकी भयावहता की चेतावनी देने वाले डाॅ. ली वेनलियांग की मौत हो गई। चीन के वुहान केंद्रीय चिकित्सालय के नेत्र विशेषज्ञ रहे वेनलियांग को लगातार काम करते रहने के कारण कोरोना ने चपेट में ले लिया था। वेनलियांग ने मरीजों में सात ऐसे मामले देखे थे, जिनमें साॅर्स जैसे किसी वायरस के संक्रमण के लक्षण दिखे थे और इसे मानव के लिए खतरनाक बताते हुए चेतावनी भरा वीडियो भी सार्वजनिक किया था।

भारतमें वैसे भी आबादी के अनुपात में चिकित्सकों की कमी है। बावजूद वे दिन-रात अपने कर्तव्य पालन में जुटे हैं। फिलहाल इटली, स्पेन, ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, ईरान और चीन से कहीं ज्यादा अच्छी स्थिति में भारत केवल देशबंदी की वजह से है। वरना उन सब महाशक्तियों ने कोरोना के समक्ष घुटने टेक दिए हैं, जो चिकित्सा के क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों पर अभिमान करते थे। इटली और स्पेन में जहां पांच-सात सौ लोग रोजाना काल के गाल में समा रहे हैं, वहीं अमेरिका में करीब 2500 लोगों की मौत हो चुकी है और डेढ़ लाख के करीब लोग कोरोना पाॅजिटिव हैं। ब्रिटेन के सरकारी अस्पताल कोरोना पीड़ित मरीजों से भरे पड़े हैं। अब ब्रिटेन के हालात इतने बद्तर हो गए हैं कि वहां पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्यूपमेंट (पीपीई) और वेंटिलेटरों की कमी आ गई है। मास्क सहित इन उपकरणों की कमी भारत के अस्पतालों में भी है लेकिन अब इस कमी से निपटने के लिए उन अकुशल आविष्कारकों को महत्व दिया जा रहा है, जिन्होंने अपनी कल्पना शक्ति के बूते उत्तम गुणवत्ता के मास्क और पीपीई बनाने में सफलता हासिल की है। तात्कालिक जरूरतों की पूर्ति के लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ने भी अस्थाई स्वीकृति दे दी है।

दरअसल कोरोना वायरस संक्रमण से हमारे चिकित्सक और चिकित्साकर्मी सीधे जूझ रहे हैं। चूंकि ये सीधे रोगियों के संपर्क में आते हैं, इसलिए इनके लिए विशेष प्रकार के सूक्ष्म जीवों से सुरक्षा करने वाले ‘बायो सूट’ पहनने को दिए जाते हैं। इसे ही पीपीई अर्थात व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण कहा जाता है। हालांकि यह एक प्रकार का बरसात में उपयोग में लाए जाने वाले बरसाती जैसा होता है। यह विशेष प्रकार के फैब्रिक कपड़े से बनता है। इसका वाटरप्रूफ होना भी जरूरी होता है। पाली राजस्थान में व्यापारी कमलेश गुगलिया को जब जोधपुर के एम्स में बायोसूट कम होने की जानकारी मिली तो उन्होंने छाते में उपयोग होने वाले वस्त्र से बायोसूट बना डाला। परीक्षण के बाद कुछ सुधारों की हिदायत देते हुए एम्स के अधीक्षक डाॅ. विनीत सुरेखा ने इन सूटों को खरीदने की मंजूरी दे दी। इसकी लागत महज 850 रुपए हैं। जबकि पीपीई बनाने वाली कंपनियां इस सूट को तीन से पांच हजार रुपए में बेचती हैं। इन्हीं कमलेश ने इस अस्पताल में बड़ी मात्रा में मास्क उपलब्ध कराए हैं। साफ है, यदि कमलेश जैसे अकुशल कल्पनाशीलों को चिकित्सा उपकरण बनाने की सुविधा मिल जाए तो हम स्थानीय पर ही कई उपकरणों का निर्माण कर सकते हैं। इसी तरह अब वेंटिलेटरों की कमी की आपूर्ति ऑटो मोबाइल कंपनियों में इन्हें निर्मित कराकर पूरी की जा रही है। इसी तरह विषाणु विज्ञानी मीनल भोंसले ने कोरोना वायरस की परीक्षण किट बनाने में सफलता हासिल की है। यह किट आठ घंटे की बजाय केवल ढाई घंटे में ही जांच रिपोर्ट दे देगी। इसकी कीमत भी केवल 1200 रुपए होगी, जबकि इस किट को 4500 रुपए में भारत सरकार खरीद रही है। डीआरडीओ ने भी यह किट और वेंटीलेटर बनाने में सफलता हासिल कर ली। इन उपायों के चलते डाॅक्टरों को सुरक्षा और मरीज को जीवनदान तो मिलेगा लेकिन लगातार काम कर रहे चिकित्सा दल यदि जरा भी सावधानी बरतने में चूक जाते हैं तो वायरस उन्हें अपनी गिरफ्त में ले सकता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन 1000 की आबादी पर एक डाॅक्टर की मौजदूगी अनिवार्य मानता है लेकिन भारत में यह अनुपात 0.62.1000 है। 2015 में राज्यसभा में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने बताया था कि 14 लाख ऐलोपैथी चिकित्सकों की कमी है। किंतु अब यह कमी 20 लाख हो गई है। इसी तरह 40 लाख नर्सों की कमी है। अब तक सरकारी चिकित्सा संस्थानों की शैक्षिक गुणवत्ता और चिकित्सकों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठते रहे हैं लेकिन ध्यान रहे कि लगभग 60 प्रतिशत मेडिकल काॅलेज निजी क्षेत्र में हैं। कोरोना के इस भीषण संकट में सरकारी अस्पताल और मेडिकल काॅलेज तो दिन-रात रोगियों के उपचार में लगे हैं, लेकिन जिन निजी अस्पतालों और काॅलेजों को हम उपचार के लिए उच्च गुणवत्ता का मानते थे, उनमें से ज्यादातर ने तालाबंदी कर दी है। जिला और संभाग स्तर के अधिकांश निजी अस्पताल बंद हैं।

देश में एमबीबीएस की कुल 67,218 सीटें हैं। इनकी भरपाई सरकारी और निजी चिकित्सा महाविद्यालयों में की जाती है। कायदे से उन्हीं छात्रों को मेडिकल काॅलेजों में प्रवेश मिलना चाहिए, जो सीटों की संख्या के अनुसार नीट परीक्षा से चयनित हुए हैं। लेकिन आलम है कि जो छात्र दो लाख से भी ऊपर की रैंक में है, उसे भी धन के बूते प्रवेश मिल जाता है। यह स्थिति इसलिए बनी हुई है, दरअसल जो मेधावी छात्र निजी काॅलेज की शुल्क अदा करने में सक्षम नहीं हैं, वह मजबूरी वश अपनी सीट छोड़ देते हैं। बाद में इसी सीट को निचली श्रेणी में स्थान प्राप्त छात्र खरीदकर प्रवेश पा जाते हैं। इस सीट की कीमत 60 लाख से एक करोड़ रुपए तक होती है। गोया जो छात्र एमबीबीबीएस में प्रवेश की पात्रता नहीं रखते हैं, वे अपने अभिभावकों की अनैतिक कमाई के बूते इस पवित्र और जिम्मेदार पेशे के पात्र बन जाते हैं। ऐसे में इनकी अपने दायित्व के प्रति कोई नैतिक प्रतिबद्धता नहीं होती है। पैसा कमाना ही इनका एकमात्र लक्ष्य रह जाता है। अपने बच्चों को हर हाल में मेडिकल और आईटी काॅलेजों में प्रवेश की महत्वाकांक्षा रखने वाले अभिभावक यही तरीका अपनाते हैं। देश के सरकारी काॅलेजों में एक साल का शुल्क महज 4 लाख है, जबकि निजी विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों में यही शुल्क 64 लाख है। यही धांधली एनआरआई और अल्पसंख्यक कोटे के छात्रों के साथ बरती जा रही है। एमडी में प्रवेश के लिए निजी संस्थानों में जो प्रबंधन के अधिकार क्षेत्र और अनुदान आधारित सीटें हैं, उनमें प्रवेश की राशि 2 करोड़ से 5 करोड़ है। इसके बावजूद सामान्य प्रतिभाशाली छात्र के लिए एमबीबीएस परीक्षा कठिन बनी हुई है।

विडंबना यह भी है कि जो छात्र धन के बूते एमबीबीएस करते हैं, वे सरकारी अस्पतालों में नौकरी करने की बजाय निजी अस्पतालों में नौकरी करते हैं या फिर स्वयं अपना अस्पताल खोल लेते हैं। धनलोलुपता से जुड़े ऐसे ही लोगों के अस्पताल इस कोरोना संकट में बंद हैं। जबकि सरकार ने इन अस्पतालों को खोले रखने की छूट दी हुई है। लेकिन जिन डाॅक्टरों के दिल में संकट की इस घड़ी में कोई करुणा का भाव नहीं है, वे मानव सेवा का धर्म कैसे निभाएंगे।

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