-अनिल गुप्ता-
भारत का संविधान निर्माण करने के लिए गठित संविधान सभा किसी चुनाव द्वारा जनता ने गठित नहीं की थी! उस समय के अंग्रेज़ों द्वारा लागू किये गए गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया एक्ट, १९३५ के अंतर्गत १९४६ में संपन्न सीमित चुनाव के जरिये चुनी गयी केंद्रीय असेम्ब्ली को ही संविधान सभा मान लिया गया था। जबकि देश की आबादी के बहुत बड़े हिस्से को इसमें भाग लेने का अवसर ही नहीं मिला था। जो संविधान बनाया गया था, उसमें विभिन्न देशों के संविधानों के अलग अलग भाग लेकर कॉपी, कट, पेस्ट संविधान का निर्माण कर दिया गया था। जिसमें अब तक सवा सौ संशोधन हो चुके हैं। संविधान की अनेकों व्यवस्थाएं विकास को रोकने वाली साबित हुई हैं। लोकतान्त्रिक तरीके से जनता द्वारा चुनी गयी सरकार अपने लोकहितकारी कार्यों के लिए भी जनता द्वारा न चुने गए “जन प्रतिनिधियों” के रहम पर निर्भर हैं। मेरा आशय राज्य सभा के सदस्यों से हैं जिनका चयन जनता द्वारा नहीं किया जाता है!जो नीति निर्देशक सिद्धांत बनाये गए उनको लागू करने के लिए कोई ठोस व्यवस्था नहीं ऐ। अनेकों मामले ऐसे हैं जिनमें निर्देशक सिद्धांतों के बिलकुल विरोधी कानून बनाये गए हैं। लेकिन इस पर कुछ नहीं किया जा सकता।
इंदिरा जी को भी अनेकों बार इस स्थिति का सामना करना पड़ा था। और वर्तमान सरकार को तो पहले दिन से ही विपक्ष की नकारात्मक अवरोधात्मक राजनीति का शिकार होना पड़ रहा है। इसके अतिरिक्त भी अनेकों ऐसे विषय हैं जिन के बारे में संविधान में कोई व्यवस्था नहीं है! जैसे न्यायाधीशों की नियुक्ति किस प्रकार होगी इस विषय में संविधान मौन था। और १९९३ में सर्वोच्च न्यायालय की नौ सदस्यीय पीठ द्वारा कोलेजियम व्यवस्था का गठन कर दिया गया जिसके द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को न्यायमूर्तियों की नियुक्ति में सर्वेसर्वा बना दिया गया। दुनिया के किसी भी देश में इस प्रकार की व्यवस्था नहीं है, जहाँ स्वयं न्यायाधीशों द्वारा स्वयं की नियुक्ति या अपने भाइयों की नियुक्ति की जाती हो। अमेरिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की पुष्टि वहां की संसद द्वारा की जाती है। अब अगर आज़ादी के लगभग अढ़सठ वर्ष बाद इस कमी को दूर करने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन हेतु संविधान में संशोधन किया गया है तो माननीय मुख्य न्यायाधीश महोदय उसको मानने को तैयार नहीं हैं। यह एक प्रकार की न्यायिक अराजकता ही है। इसी प्रकार योजना आयोग का कोई संवैधानिक दर्ज़ा नहीं था। और यही स्थिति नए गठित किये गए नीति आयोग की है। क्या किसी महत्वपूर्ण राष्ट्रीय विषय पर जनता की राय जानना आवश्यक नहीं है ? हर बार किसी विषय को लेकर मध्यावधि चुनाव तो नहीं कराया जा सकता है। अतः मेरे विचार में महत्वपूर्ण विषयों पर जनता की राय जानने की व्यवस्था होना लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है। इससे लोकतंत्र मजबूत होगा और जनता में भी विभिन्न विषयों के प्रति जागरूकता बढ़ेगी। अतः संविधान में किसी भी विषय पर ‘जन मत संग्रह’ कराने का प्राविधान होना चाहिए। इस निमित्त संविधान में व्यवस्था किये जाने की जरूरत है। तथा यह व्यवस्था भी होनी चाहिए की यदि किसी विषय पर जनमत संग्रह के जरिये जनता का जनादेश प्राप्त हो जाये तो उसे न्यायालय में चुनौती न दी जा सके। तथा संसद को भी जनमत संग्रह के परिणाम को मान्यता देना अनिवार्य होना चाहिए।
इसके साथ ही एक और विषय भी है। क्या सवा सौ संशोधनों ( जो अभी भी रुके नहीं हैं) के पश्चात वर्तमान संविधान के प्राविधानों की सफलता और कमियों के विषय में अध्ययन नहीं होना चाहिए ? यदि नयी संविधान सभा का गठन किया जा सके तो और भी अधिक उपयोगी होगा। वैसे भी देश की बढ़ती जनसँख्या और पिछले सत्तर वर्षों में आये बदलावों के परिप्रेक्ष्य में संविधान के अनेकों प्राविधान अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं। अतः वर्तमान संसद के रहते हुए भी एक एग्जीक्यूटिव आदेश से नयी संविधान सभा का गठन किया अ सकता है। इसके लिए संविधान के किसी परिधान इ कोई निषेध भी नहीं है। और वर्तमान संविधान अलोकतांत्रिक तरीके से बनी संविधान सभा द्वारा बनाये जाने की अपेक्षा लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी हुई संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान अधिक लोकसम्मत होगा।