ॐ
तमिल भाषा में ४०% से ५० % तक शब्द तत्सम और तद्भव रूप में पाए जाते हैं।
(१)
संस्कृत के शब्द भारतीय भाषाओं में दो रूप में, फैले हैं; कुछ तत्सम रूप में और कुछ तद्भव रूप में। सही आकलन के लिए, पहले तत्सम और तद्भव संज्ञाएं समझ लेनी होंगी।
वे शब्द ’तत्सम’ (तत्+ सम) कहलाते हैं, जो अविकृत, शुद्ध संस्कृत रूप में प्रादेशिक भाषाओं में फैले हुये, हैं। और ’तद्भव’ (तत् +भव) वे शब्द कहलाते हैं, जो प्रादेशिक भाषा का संस्कार पाकर रूपान्तरित हो कर रूढ हो चुके हैं।
तत्सम का शब्दार्थ है उसके समान। और तद्भव का शब्दार्थ है उससे उद्भूत (उससे उत्पन्न)
(२)
तमिल के तत्सम शब्दों के कुछ उदाहरण :
(१)अंकुशम् , (२)अणु, (३)अंतरंगम्,(४) गर्वम्, (५)विषयम्,(६) आडंबरम्, (७)अलंकारम्,(८) रोहणम्,(९) विस्तारम्,(१०) सुगम, (११) विशालमान इत्यादि शब्द अविकृत और शुद्ध संस्कृत रूप में तमिल में पाये जाते हैं।।
टिप्पणी : कुछ तमिल बंधु ऐसे समान शब्दों को तमिल से संस्कृत में आये हुए मानते हैं।
पर हमें जब समानता ही ढूंढना है,और समन्वय की ही चाहना है, तो संस्कृत-तमिल की शब्द-समानता ही हमारे लिए पर्याप्त है। वे शब्द संस्कृत में तमिल से आये थे, या तमिल में संस्कृत से गये थे, यह चर्चा गौण हो जाती है। वैसे हमारी विचार प्रणाली समन्वयकारी है, विविधता में एकता देखनेवाली है। हमें हमारे तमिल भाषी पुरखों का उतना ही गौरव है, जितना हमारे संस्कृत भाषी पुरखों का।कुछ इसी प्रकार, विवेकानन्दजी ने भी कहा हुआ स्मरण है।
(३)
तद्भव शब्दों के कुछ उदाहरण: निम्न शब्द कुछ रूपान्तरित होकर तमिल में पाए जाते हैं। जैसे (१)सभा —> सबै, (२) अनाथ —-> अनादै; (३)मूल –> मुलै, (४)अवमर्यादा —->अवमरियादै; (५)अर्चना —–> अरुच्चनै, (६) पूजा—>पूजै इत्यादि।
निर्देशित शब्दों की ओर देखने पर आप के ध्यान में आयेगा, कि,
(एक) इन शब्दों का अंत ”ऐ” कार से हो रहा है; जैसे मूल का मुलै, सभा का सबै, पूजा का पूजै
(दो) दूसरी विशेषता भी है, जो तमिल की वर्णमाला की उच्चारण सीमा में ही उच्चारण करवाती है।
(तीन) संस्कृत की भांति अनुनासिक म् में शब्द का अंत
(चार) ”द्ध” के स्थान पर ”द्द” का उच्चारण। बुद्धि –> बुद्दि
(पांच) भ के स्थान पर ब, ख के स्थान पर क, त थ द ध के स्थान पर द या त ।
ऐसी और भी विशेषताएं हैं। अभी केवल प्राथमिक जानकारी ही उद्देश्य है, पर ठीक समझ में
आने के लिए, कुछ बिन्दु प्रस्तुत किए हैं।
(४)
तमिल ’ळ’ का उच्चारण।
तमिल का ळ वेदों में भी पाया जाता है, जो हिन्दी में लुप्त हुआ है; पर संस्कृत में है; गुजराती, मराठी में भी है। शायद कन्नड, तेलुगु, मल्लयालम में भी होगा। तमिल ळ का उच्चारण कुछ अलग ही है।
(५) हिन्दी/संस्कृत—>तमिल शब्द
माना जाता है कि तमिल भाषा में ४०% से ५० % तक शब्द तत्सम और तद्भव रूपमें पाए जाते हैं।
केवल अ से प्रारंभ होते शब्दों का चयन किया है, इसके पीछे उद्देश्य, समझता हूँ, कि एक ”अ” से प्रारंभ होने वाले इतने शब्द मिल पाए, तो सारे तमिल शब्दों में प्रायः इसी अनुपात में शब्द मिलने चाहिए।
निम्न शब्द सूचि में, बाईं ओर संस्कृत का शब्द देकर उसीका तद्भव या तत्सम तमिल रूप दाहिनी ओर अंतमें दिया है। कुछ और पर्याय भी दिए हैं। कोष्ठक में अर्थ बताया है। तमिल शब्द अंत में —> की दाहिनी ओर दिए हैं।
(६)
संस्कृत शब्द –(संभवित अर्थ )—–> तमिल शब्द
अंकुर — मुलै।
अंकुश — (लोहे का कांटा जिससे हाथी को वश में किया जाता है; ) —> अंकुशम।
अंतरंग — (घनिष्ठ, आत्मीय;) —>आप्तमान; अंतरंगमान, अंतरंगं।
अंतर्राष्ट्रीय — (एक से अधिक राष्ट्रों से संबंध रखने वाला )—> सर्वदेसि।
अकड़ना — (कड़ा होना, ऐंठना; घमंड दिखाना या दुराग्रह करना )—> गर्वम्।
अक्ल — (बुद्धि, समझ )—> बुद्दि।
अगरबत्ती —> अगर्बत्ति ,ऊदुवत्ति।
अग्रज — (बड़ा भाई )—> अण्णन् (अण्णा )
विशेष: यही अण्णा हज़ारे का नाम भी है। ”अन्ना” अशुद्ध माना जाएगा।
अड्डा —-(निलयम )—-> निलैयम्
अणु — (किसी तत्वका बहुत छोटा अंश )—> अणु;
अदालत — (न्यायालय) —> नियायालयम् (न्यायालयम्)
अधिक — (बहुत; अतिरिक्त )—> अदिकं; अदिगं
अधिवेशन –( सभा )—> सबै
अध्यापक — (पढ़ाने वाला, शिक्षक) —> उबाद्दियायर् (उपाध्याय)
अध्याय —–> अद्दियायम्; विषयम्
अनशन — (आहार त्याग, उपवास;) —> उपवासम्
अनाथ —-> अनादै;
अनाथालय — —> अनादैलियम
अनुराग — (प्रेम,) —> पिरियम् (प्रियम )
अनुसार – (अनुरूप )—> अनुसरित्तु (अनुसरित)
अनेक — —> अनेग,
अन्न — (अनाज) —> दानियम् (धान्यम )
अन्याय —> अनियायम्; (अन्यायम्)
अपमान —–> अवमरियादै;(अवमर्यादा)
अफसर —> अदिकारि, — (अधिकारी)
अभयदान — (सुरक्षा का वचन) —> अबयम (अभयम)
अभिनय — (आंगिक चेष्ठा, हावभा —> अबिनयम्,
अभिप्राय — —> अंबिप्पिरायम्;
अभिभावक —-> पोषकर् (पोषक)
अभिमान — (अहंकार,)—> गर्वम्
अभिलाषा —–> अभिळाषै,
अभिशाप — —> शाबम्
अभ्यास —> अब्बियासम्
अमावस्या —> अमावासै
अमृत —–> अमुदम्
अम्ल —-> अमिलम्
अराजक —-अराजकम्
अरुण —>सूरियन् (सूर्यन)
अर्चना —–> पूजै, अरुच्चनै
अर्थ —– >अर्त्तम्; अर्त्तम्,
अर्धमासिक — –> पक्षम्, ( जैसे शुक्ल पक्ष, कृष्ण पक्ष)
अर्धांगिनी —-> धर्मपत्नी —> पत्तिनि, (पत्नी)
अर्पण —-> अर्पित्तल्,
अलंकरण —-> अलंकरित्तल्
अलंकार —->अलंकारम्
अलमारी —–> अलमारि ( यह एक पुर्तगाली शब्द मूलका शब्द है, जो हिन्दी में चलता है, पर संस्कृत में नहीं चलता)
अलापना —-> आलापनै
अलौकिक (दैवी )– —> देय्वीगमान
अलता —-> अल्ता
अवतार —->अवतारम्;
अवयव — —> अवयवम्;
अवरोह —-> अवरोहणम्
अवश्य — —> अवसियम्,
अवसान —-> मरणम्
अशुद्ध —->अशुद्दमान;
अशुद्धि —–> अशुद्दम्, (अशुद्धम)
अशुभ — —> अमंगलमान, अशुभम्;
अष्टमी — —> अष्टमि
असर — (प्रभाव) —> पिरबावम् (प्रभावम)
असल —-> मूलदनम् (मूल धन)
असली —-> असल् शुद्दमान (शुद्धमान)
असुविधा —–> असौकरियम्; (असौकर्यम)
अस्त्र —–> अस्तिरम्,
अल्प —-> अर्पमान (अल्पमान)
अहं — —> गर्वम्, अहंकारम्
अहिंसा —-> अहिंसै
आंशिक —->अपूर्णमान
आकाश — —> आगायम्
आकाशवाणी —-> अशरीरि वाक्कु ; आकाशवाणी,
आकृति —-> रूपम्, मुखम्
आकर्षण —-> शक्ति,
आचार्य —–> गुरु;
आज़ाद — (स्वाधीन, मुक्त, स्वतन्त्र )—> सुतंदिरमान (स्वतंत्रमान)
आजीविका — (रोज़ी, रोज़गार, धंधा) —>उद्दियोगम् (उद्योगम्)
आज्ञा — (आदेश,अनुमति) —> अनुमदि
आडंबर — (दिखावा,) —> आडंबरम्
आत्म-कथा — (स्व चरित्र) —> सुय-चरितै
आत्मा — —> आत्तुमा, जीवन्;
आदर —–> मरियादै; (मर्यादा)
आलंबन — (आधार, आश्रय) —> आदारम्
आदि — (मूल; पहला;) —> आदि, मूल
आदिवासी — (जनजाति का सदस्य )—> आदिवासी
आधार — –> आदारम्; कारणम्
आधिकारिक — (अधिकारपूर्वक) —> आदिकार पूर्वमान
आध्यात्मिक — (आत्मा से सम्बन्ध रखने वाला )—> आन्मीयम्
आनंद — (हर्ष, खुशी; मौज) —> आनंदम्
आमोद-प्रमोद —->उल्लास
आयत — (चार भुजाओं वाला विशाल क्षेत्र) —> विशालमान; नीळ् सदुरमान
आया — (धाय, दाई) —> आया;
आयाम — (लंबाई, विस्तार) —>विस्तारम्
आयुष्मान् — (दीर्घजीवी, चिरंजीवी )—> चिरंजीवियान,
आरंभ —–> आरंबम,
आरती —> आरत्ति, दीपारादनै;(दीपाराधना)
आराम —> सुगम्,
आरोह —>रोहणम्
आलोचना —–> विमरिसनम् (विमर्श)
आवरण — (परदा;)–> पडुदा;
आवश्यक — –> अवसियमान, (अवश्यमान)
आभूषण —–> अलंकारम्
भारत की एकता को अक्षुण्ण रखने की बात नेता अपनी शपथ मे करते ज़रूर है पर प्रयास केवल मधुसूदन जी द्वारा ही होता दिख रहा है | सचमुच ऐसी जानकारी मन की सारी ग्रंथियों को खोल देती है और जैसे जैसे ये समझ आता है की भारत की समस्त भाषाओं और यहाँ तक की विश्व की समस्त भाषाओं की जननी हमारी संस्कृत भाषा है तो सारे अंधविश्वास दूर हो जाते हैं और अपने भारतीय होने पर गर्व होता है | हालांकि कुछ ऐसी भ्रांतियाँ भी तमिलभाषियों के बीच फैली हैं जिनका उत्तर कठिन प्रतीत होता है जैसे की तमिल भाषा तब भी थी जब सारे विश्व मे कुछ नहीं था | ये वैसे ही है जैसे इस्लाम विश्व मे हमेशा से था | अब ऐसे अंधविश्वास का क्या जवाब हो सकता है? यदि ऐतिहासिक तथ्य मौजूद हों तो ऐसे दुराग्रहों का जवाब दिया जा सकता है |
सुरेन्द्र जी, विश्व मोहन जी, मोहन जी, शिवेंद्र जी, अवनीश, सत्त्यार्थी जी, श्री राम तिवारी जी, और डॉ. राजेश जी, सभी का बहुत ऋणी हूँ.
मैं कुछ भाषा वैज्ञानिकों को जानता हूँ. जिन्हों ने सही संस्कृत पढ़ी है, वे सही अंग्रेजी नहीं जानते. और जो अंग्रेजी जानते हैं, वें संस्कृत नहीं जानते. और साथ में हीनता ग्रंथि भी उन पर प्रभाव डालती है.वास्तव में संस्कृत की जानकारी ही कम देखता हूँ.
फिर पता नहीं. वे जो पुस्तक में लिखा होता है, वही सही मान कर–वही लिखते हैं. अपनी सोच नहीं सामने रखते.
मुझे दो बहुत बहुत अच्छे संस्कृत शिक्षक शाला में मिले, और पिता मिले जो संस्कृत सहित ६-७ भाषाओं पर प्रभुत्व रखते थे. ज्ञान के पीछे एक आदर्श ब्राह्मण की भांति वृत्ति रखते थे.
मैं भी कुछ कुछ ही जानता हूँ.
परम पिता की कृपा भी है.
पर त्रुटियाँ भी बताते रहिये —आपके शब्दों को प्रेरणा मानकर प्रयास करता रहूंगा.
अचरज है, की, अकस्मात् सहायता भी प्राप्त हो जाती है. तमिल के छात्र भी अनायास मिल ही गए, जो सहायक सिद्ध हुए. सभीका श्रेय मानता हूँ.
परमात्मा की कृपा है. गर्व नहीं करूँगा.
पुस्तक निश्चित छपवाएंगे.
आलेखों में सुधार कर, और बढ़ाकर परिमार्जित भी करूँगा. प्रवास पर हूँ –१५ नवम्बर तक. आलेख पश्चात डालूँगा.
प्रो. मधुसुदन जी के हिंदी भाषा के बारे में लिखे शोधपरक लेख राष्ट्रीय एकता की कड़ी को मजबूत बनाने वाला अमूल्य योगदान है. द्रविड़ीयन भाषा समूह के झूठे सिद्धांत के आधार पर राष्ट्रीय एकता को तोड़ने के वर्षों पुराने प्रयासों की धज्जियां एक अकेले प्रो. मधुसुदन जी ने उड़ा डाली हैं. हिंदी भाषा की वैज्ञानिकता व तार्किकता को प्रमाणिक रूप से स्थापित किया है. कमाल तो यह है कि ये भाषा विज्ञानी नहीं हैं. फिर भी इन्हों ने वह कर दिखाया है जो कोई भाषा विज्ञानी नहीं कर सका. इनकी लगन और प्रतिभा वंदनीय है, अभिनंदनीय है. लाखों रुपया मासिक लेकर देश के लिए कोई योगदान न करने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी, भाषाविज्ञानी क्या इनसे कुछ प्रेरणा लेंगे ? प्रवक्ता के अधिकाँश पाठक तो निसंदेह खूब उत्साहित व प्रेरित हो रहे हैं. आवश्यकता है कि इनके लेखन को अधिकाधिक प्रचारित किया जाए. क्या आदरणीय प्रो. मधुसुदन जी इस सामग्री को पुस्तिका का रूप देंगे जिससे इस सामग्री को प्रचारित करने में सरलता हो ?
मधुभाई —
आपका तमिल वाला लेख मैंने बड़े मनोयोग से पढ़ा| बहुत सुन्दर और सटीक लेख है, साथ ही शिक्षा-प्रद भी | बधाई हो |
आपके सारे लेख समयाभाव के कारण नहीं पढ़ पाता हूँ; पर मुझे मालूम है; आप जो भी लिखते हैं, विद्वत्तापूर्ण और तर्क-संगत होता है| विभिन्न भाषाओँ के ज्ञान के कारण, आपको, उनके शब्दों के मूल का विषद ज्ञान है; यह आपके लेखों में पूरी तरह दृष्टिगोचर होता है| विद्वानों और युवकों के लिए ये तर्क-संगत लेख, समान रूप से प्रेरणा-प्रद होंगें, यह मेरी आशा है और शुभ-कामना भी|
आपने कहा था की मैं अपनी कविता, ” राही, पंथ अकेला है यह”, प्रवक्ता के लिए भेज दूं, वह भी शीघ्र ही करूंगा|
सादर
सुरेन्द्र नाथ तिवारी (अन्तर राष्ट्रीय हिन्दी समिति –के पूर्वाध्यक्ष )
आदरणीय प्रोफेसर मधुसूदन जी का यह लेख अपेक्षाकृत अधिक आनंद दायक लगा मेरे जैसे अधिकांश हिंदी भाषी यह समझते आये हैं की चारों दक्षिण भारतीय भाषाओँ में तमिल ही सबसे दुरूह है मलयालम,कन्नड़ तथा तेलुगु भाषाओँ में संस्कृत के तत्सम तथा तद्भव शब्द अधिक हैं आज यह लेख पढ़ कर ऐसा लगा की तमिल का भी हिंदी से ऐसा ही सम्बन्ध है जैसा की बंगला,या मराठी का इसी श्रंखला को आगे बढ़ाते हुए यदि तमिल नाडू निवासी विद्वान ऐसे ही लेख भेजें तो भाषाई तथा प्रादेशिक सद्भाव को पुनर्जीवित करने के प्रयत्नों को बल मिलेगा मधुसूदन जी अमरीका में रह कर भारत की जिस प्रकार सेवा कर रहे हैं उसके लिए सब भारतीय उनके अत्यंत आभारी रहेंगे .
तुलनात्मक भाषा अध्यन केन्द्रों के शोधार्थियों से निवेदन है कि आदरणीय डा मधुसूदन के इन प्रयासों का सदुपयोग करें.
हमें हमारे तमिल भाषी पुरखों का उतना ही गौरव है, जितना हमारे संस्कृत भाषी पुरखों का।
जी, यही भाव प्रसारित करने का लक्ष्य है|
जानकारीपूर्ण रोचक आलेख
बहुत से भार्तिये लोग येह समज्ते है के भारत से अन्ग्रेजि का महतव कभि कम नहि हो सकता क्योओन्के कै लोग येह मन्ने लग गये हैन के अन्ग्रेझि भारत कि एक भाशा बन गयि है. बहुत से लोग अन्ग्रीजि बोल्ने मे अप्नि शान सम्ज्ह्ते हैन और बदप्पन का अनुभव कर्र्ते है. सन्स्क्रित का तो कया केह्ना , आज कल रेदिओ और तेल्विसिओन पर कहि पर भि सन्सक्रित निस्त भाशा नहि बोलि जाति हिन्दि मे बहुत अधिक उर्दु और ऍन्ग्लिश के शबद मोले होते है जिसे हिन्दि मे उचित शब्दो का अभाव हो जब के वस्त्विक्त येह है के हिन्दि मे परापयत शबद है.श्रि मदुसुदन जी ने अप्ने केयी लखो मेइ येह सिध किया है के सन्स्क्रित मेइ अशनख्या शब्दो का निर्मान किया जा सक्त.खेस्त्रिया भाश्ये भि उन शब्दो का पर्योग कर सक्ति है जो सन्स्क्रित भाशा कि सहाय्ता से निर्मान किये जा सक्ते है. कयी लोग केह्ते है के सन्स्क्रित भाशा का सर्लिकरन किया जाना चाच्ये . किसि भाशा का स्सर्लिकरन कर्ने से भाशा का स्वारूप हि बिगद जाता है.श्वातन्त्र भारत मे सन्स्क्रित और हिन्दि का विकास नहि हुआ है. आज्कल सब और से भारात मे अन्ग्रेझि को बधावा मिल रहा है. भारत मेइ केये राज्यो मेइ खेस्त्रिये भाबना के करन अन्ग्रीजि विद्मान है और उसको बधत मिलि हुइ है. खेस्त्रियो भाव्ना को सामापत कर्ने के लिये के लिये उत्तरि भारत के लोगो को तमिल, तेल्गु, मल्यालम, कन्नद जैसि भसाये सिक्नि चाहिये .
प्रबुद्ध पाठक, सर्व श्री विश्वमोहन जी, शिवेंद्र जी, अनिल जी, और छात्रवत अभिषेक —आप सभीको धन्यवाद देता हूँ| विश्व मोहन जी के सभी बिंदुओं से मेरा ज्ञान बढ़ा, एवं सहमति|
शिवेंद्र जी यह तो केवल “अ” से प्रारम्भ होने वाले शब्द थे| अधिकृत जानकारी है, की तमिल में, संस्कृत शब्द ४० से ५०% हैं| तमिल भाषा शैली की अलगता के कारण यह भांपना कठिन हो जाता है|
कितने कन्धों पर चढ़कर यह आलेख संपन्न किया गया है| श्रेय के भागी कुछ छात्र भी हैं, कुछ बार बार दूर भाष से संदेह करने वाले मेरे मित्र भी|
विशेष देखता हूँ कि हमारे दक्षिण के छात्र कुछ अधिक ही विवेकी होते हैं|बहुत बड़े हर्ष कारण, यह युवा पीढ़ी है, जो अनुभव ही नहीं करती, पर मानने भी लगी है, कि हिंदी के बिना भारत की एकता दृढ़ नहीं हो सकती, और न, आंतर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रभावी भूमिका निर्वाह हो सकती है|
बड़ी पीढ़ी मात्र बहुत “धौत बुद्धि” (ब्रेन washed )है, और कुछ पढ़े लिखे उच्च पदस्थ, भारत के सुपुत्र, पी. एच. डी., जब हमें हमारी “राष्ट्रीय” एकता को दृढ़ करने के लिए “परराष्ट्रीय अंग्रेजी” का सुझाव देते हैं, तो उनके, सामने, अनादर माना जाने के भय से, हँसा भी नहीं जा सकता|
सतर्क रहना है| (एक) हिंदी वर्चस्व वादियों से दूर रह कर,
(दो ) और राजनितिज्ञो को दूर रखकर
(तीन) अपनी अपनी भाषा के पुरस्कर्ताओं को भी —दूर रख कर ही कुछ सही दिशा निकल पाएगी|
आप सभीका ह्रदय तलसे धन्यवाद|
जय राष्ट्र भाषा भारती
आपके लेख एक बाद मैंने भी भाषा पर गौर करना शुरू कर दिया है और लगभग 10 नए शब्द भी मिल गए ये शब्द रोजाना की बात चीत के हैं। कल (16.10.12) की एक बात बताऊँ, मैं कांचीपुरम के एक ग्राम में दक्षिणेश्वर शिव मंदिर में एक कार्यक्रम में गया था, दक्षिण भारतीय शैली का यह मंदिर बहुत सुंदर है। और काफी बड़ा भी है, मैं नृत्य मंडप में बैठा था, दूर दूर से आए हुए लोग पूरे मंदिर की परिक्रमा करने के बाद वहीँ पर आकर सुस्ता रहे थे। इतने में एक दम्पति अपनी छोटी बेटी के साथ वहां आए वो चेन्नई से आए थे, उनसे थोड़ी बातचीत होने लगी तो उन्होंने बताया की मेरी बेटी को हिंदी आती है, उनकी बेटी छोटी सी थी कक्षा 3 में पढ़ती है। मैं उससे बात करने लगा। उस छोटी सी कन्या को बहुत अच्छी हिंदी आती थी, उसने बताया की वो कक्षा 3 में पढ़ती है मैं हैरान रह गया वो छोटी सी कन्या इतनी सुंदर हिंदी बोल रही थी और एकदम शुद्ध उच्चारण। इसके अलावा भी उसे तमिल, तेलगु, अंग्रेजी बहुत अच्छी तरह से आती थी। लेकिन मुझे एक बात बहुत अच्छी लगी की वो छोटी सी कन्या हिंदी को ज्यादा महत्त्व दे रही थी। सिर्फ अपने माता पिता से ही वो तमिल में बात करती थी। उसका भी कारण था की उन्हें सिर्फ तमिल ही आती थी और टूटीफूटी अंग्रेजी। इसके अलावा वो किसी से तमिल में बात नहीं कर रही थी और तो और उसके माता पिता बहुत ही गर्व से सबसे बोल रहे थे की इसे हिंदी आती है। इसके अतिरिक्त उस छोटी सी प्यारी सी कन्या को नृत्य और गायन भी आता था। एक बहुत सुंदर गणपति वंदना भी उसने सुनाई। मेरे मोबाइल की बैटरी खत्म हो गई थी नहीं तो आपको उन लोगों की फोटो भी भेजता। यहाँ एक कांचीपुरम सुपर मार्किट नाम से एक बड़ी दुकान हैं शौपिंग माल की तरह की उसके मालिक एक मोहम्मदी भाई हैं, उनको कुछ एक शब्द हिंदी के उच्चारते देख में उनसे पूछा की आपको हिंदी आती है तो बोले की जी हाँ व्यापार करना है तो सीखना ही पड़ेगा। इसके पहले वो मुंबई, सूरत, बिहार व्यापार के सिलसिले में जाते रहते थे।
करीब 3 हफ्ते पहले में तमिल नाडू के वेल्लूर जिले में गया था स्वर्ण मदिर देखने, सोने का बना हुआ ये मंदिर बहुत ही सुंदर है। शाम के समय इसकी आभा देखते ही बनती जब सूर्य अस्ताचल की ओर जाता है और बिजली का प्रकाश उदित होता है। वहां से निकलने के बाद में वहां के विधायक के यहाँ चला गया था। उनके बड़े सुपुत्र से मिलना हुआ। उनको भी बहुत ही अच्छी हिंदी आती थी, वो भी मकान निर्माण के कार्य में लगे हुए हैं और कुछ समय मुंबई में व्यापार के सिलसिले में उनका वहां जाना हुआ था। उनसे काफी देर तक बातचीत होती रही वो भी हिंदी में। मूल बात है की तमिलनाडु में बहुत लोगों को हिंदी आती है और अगर उचित प्रयास किये जाएं और हिंदी के बजाए संस्कृत से जोड़ा जाए तो सफलता की दर बहुत ज्यादा होगी, उसका भी एक कारण है की यहाँ लोग अभी भी बहुत ज्यादा धर्म को मानते हैं, मंदिरों में जाना पूजा पाठ करना, मंदिरों में सामूहिक पूजा पाठ अभी भी बहुत ज्यादा है बनिस्बत उत्तर भारत के। देवताओं की डोली निकलना इत्यादि और ये सारे कर्म का आधार संस्कृत है। अगर संस्कृत अध्ययन पर जोर दिया जाए तो हिंदी खुदबखुद चल पड़ेगी। इति शुभम।
सादर,
पूर्व लेख की कड़ी में अति सुन्दर जानकारी प्रस्तुत की गयी है.
सादर चरण स्पर्श ….बहुत ही सारगर्भित लेख ! मैं समझता हूँ की तमिल के नाम पर क्षेत्रीयता को राजनीतिक लाभ हेतु बढ़ावा देकर संस्कृत एवं हिंदी के प्रति नफरत भरी गयी है वहां के लोगों में अन्यथा संस्कृत को वो आसानी से स्वीकार्य कर सकते हैं ! आवश्यकता ऐसे ही जागरूकता बढाने की है ! अत्यंत साराहनीय प्रयास !!
आपने एक ज्वलंत समस्या को उठाया है।
सामान शब्दावली इंगित करती है कि दोनों भाषा के बोलने वाले कितने आपस में मिलजुल कर रहते थे, रहते हैं।
संस्कृत और तमिळ भाषाओं में अंतर उनके व्याकरण में है जिस व्याकरण की रचना महर्षि अगस्त्य ने की थी।
दो छोटी टिप्पणियां :
अंकुर — मुलै ——— इसमें दोनों का सम्बन्ध सीधा न होकर ‘मूल’ शब्द के अर्थ के विस्तार के रूप में आया है।
अगरबत्ती को हिन्दीमें ऊदबत्ती भी कहते हैं।
पिछले ५० वर्षों से तमिलनाडु में यह प्रथा चलाई जा रही है कि तत्सम शब्दों को हटाकर उनकीजगह तमिळ शब्दों का ही उपयोग किया जाए जो अंग्रेजों की बाँटने वाली नीति की सफ़लता दर्शाता है। और उनके कुप्रचार से प्रभावित होकर भेद बढ़ रहे हैं।
यहां आवश्यकता हमारे मनों से दुष्प्रचार हटाकर ‘मनों’ को मिलाने की है।
इसमें तो संदेह नहीं होना चाहिये कि भाषा में थोड़ा भेद होने के बाद भी हमारी संस्कृति एक हीहै।
किन्तु अंग्रेज़ी का प्रभाव बढ़ने पर हम प्रेम के स्थान पर ‘स्वकेंद्रिता’ को महत्व देंगे और अलगाव बढ़ता हीजाएगा। अंग्रेजीहमें बाँटकर छोड़ेगी।
सारे भारत में अंग्रेजी को हटाकर भारतीय भाषाएं लाना बहुत ही आवश्यक है।
हिंदी तमिल के शब्दों के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया अब मेरा शब्दकोष और भी उर्वर हो जाएगा. इन शब्दों के माध्यम से मैं यहाँ कुछ लोग जो हिंदी पढ़ लेते हैं उनको शब्दार्थ भी बता सकूंगा, जिससे उनका हौसला बढ़ जाएगा और वो जल्दी से जल्दी हिंदी सीखने के लिए प्रेरित होंगे. आपका ह्रदय की गहराइयों से धन्यवाद. सादर