सप्तऋषियों और चतुष्टय वेदज्ञों में एक महर्षि अंगिरा

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angiraअशोक “प्रवृद्ध”

 

दिव्य अध्यात्मज्ञान, योगबल, तप-साधना एवं मन्त्रशक्ति के लिए विशेष रूप से प्रतिष्ठित महर्षि अंगिरा भारतीय सनातन वैदिक परम्परा के आदि पुरूषों में से एक हैं, जिन्हें सृष्टि के आदि काल में वेद ज्ञान को सुनने , समझने और आदिपुरूष ब्रह्मा को समझाने का सौभाग्य प्राप्त है । पुरातन ग्रंथों के अनुसार महर्षि अंगिरा ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं तथा ये गुणों में ब्रह्मा के ही समान हैं। इन्हें प्रजापति भी कहा गया है तथा सप्तर्षियों में सप्त ऋषियों में केतु , पुलह , पुलस्त्य , अत्रि , अंगिरा , वशिष्ट और मारीचि आदि के साथ इनका भी परिगणना किया जाता है। इनके दिव्य अध्यात्मज्ञान, योगबल, तप-साधना एवं मन्त्रशक्ति की विशेष गुणों के कारण पुरातन ग्रंथों में इन्हें विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त है। इनकी पत्नी दक्ष प्रजापति की पुत्री स्मृति (श्रद्धा) थीं, जिनसे इनके वंश का विस्तार हुआ। वायुपुराण अध्याय 22 उत्तर भाग में दिये विवरणानुसार के अनुसार आर्दव वसु प्रभाष को अंगिरा की पुत्री बृहस्पति की बहिन योगसिद्ध विवाही गई और अष्टम वसु प्रभाष से जो पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम विश्वकर्मा हुआ जो शिल्प प्रजापति कहलाया । भाद्रपद शुक्ल पंचमी को महर्षि अंगिरा जयंती वैदिक परम्परा में भक्तिपूर्ण वातावरण में मनाई जाती है । इस तिथि को ऋषि पंचमी व्रत के रूप में भी मनाया जाता है ।

 

महर्षि अंगिरा चार वेदज्ञ ऋषियों यथा, अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य में से एक हैं, जिन्होनें सृष्टि के आदि काल में सर्वप्रथम सत्यधर्मप्रतिपादक, सकल विद्यायुक्त वेदों का उपदेश करने वाले ब्रह्मादि गुरुओं के भी गुरु, जिसका नाश कभी नहीं होता उस परमेश्वर के आज्ञा पर वेद ज्ञान को सुनकर सर्वप्रथम ब्रह्मा और फिर लोगों के लिए प्रकाशित किया । बाद में इनकी वाणी को बहुत से ऋषियों ने वैदिक ऋचाओं को रचा और विस्तार दिया। विश्व के सर्वप्राचीन स्मृति शास्त्र मनुस्मृति में स्मृतिकार मनु महाराज कहते हैं –

अग्निवायुरविभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्म सनातनम।

दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृगयु: समलक्षणम्॥

-मनुस्मृति – 1/13

अर्थात – जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न कर अग्नि आदि चारों ऋषियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराए उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और (तु अर्थात) अंगिरा से ऋग, यजुः, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया।

 

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि वेदों का ज्ञान ब्रह्मा पर न हो कर चार ऋषियों अग्नि ,आदित्य ,वायु ओर अंगिरा पर हुआ था।  उन्ही से ब्रह्मा ने वेदों का ज्ञान प्राप्त किया था-

अग्नेर्ऋग्वेदों वायोर्यजुर्वेद: सुर्य्यात् समावेद: ।

– शतपथ ब्राह्मण `11`/5/ 8/3

अर्थात- अग्नि से ऋग्वेद ,वायु से यजुर्वेद ओर सूर्य से सामवेद प्रकट हुआ।

शतपथ ब्राह्मण के उपरोक्त मन्त्र में  तीन वेद का ही उल्लेख किया जाना तीन प्रकार की मन्त्र रचना ओर यज्ञ कर्म की दृष्टि से है। मीमासा दर्शन में इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि ऋग ,साम ओर यजु से तात्पर्य है कि वेद में पाद व्यवस्था ,गान व्यवस्था ओर गद्य रूप में मन्त्र विद्यमान है। चूँकि अर्थववेद में तीनों तरह की ही रचना है इसलिए उसका उल्लेख यहाँ  न कर पृथक से किया गया है।  ऐतरेय ब्राह्मण 5/33 के अनुसार यज्ञ कर्म में होता का कार्य ऋग्वेद से, अधर्व्यु का कार्य यजुर्वेद से और उदाता का कार्य सामवेद से है। यज्ञ कर्म में ब्रह्मा भी होता है जिसका सम्बन्ध अर्थववेद से है जो कि यज्ञ में मौन रहता है। इसी कारण उक्त श्लोक ओर अन्य जगह जहाँ त्रिविद्या के रूप में वेद का उल्लेख किया जाता है वहाँ केवल तीन वेद ऋग ,यजु ,साम का उल्लेख किया जाता है ताकि मन्त्रों की रचना ओर यज्ञ कर्म में संगति रह सके।  गोपथ ब्राह्मण अर्थवाअंगिरोभिर्बह्मत्वं के अनुसार भी ब्रह्मा का कार्य अर्थववेद से है । इसलिए होता ,उदाता ओर अर्ध्व्यु के अतिरिक्त मौन रहने वाला ब्रह्मा भी यज्ञ में होता है। इन्ही दो कारणों से त्रिविद्या विषयक श्लोक में चौथे का उल्लेख नही होता है क्यूंकि चौथा अर्थववेद में तीनों का समाहित हो जाता है ।

शतपत आदि अन्य ग्रंथो में भी अर्थववेद का अंगिरा पर होने का प्रमाण उपलब्ध है –

यदथर्वान्गिरस: स य एव विद्वानथर्वान्गिरसो अहरह: स्वाध्यायमधीते ।

– शतपथ ब्राह्मण 11/5/6/7

अर्थात-जो अर्थववेद वाला अंगिरा मुनि वह जो इस प्रकार जानता है कि अर्थवाअंगीरा का हमेशा स्वाध्याय करता है।

श्रुतीरथार्वान्गिरसी: कुर्यादित्यविचारयन ।

–मनुस्मृति  11/33

अर्थात- बिना किसी संदेह के अंगिरा ऋषि पर प्रकट हुई अर्थववेद की श्रुतियो का पाठ करे ।

इन प्रमाणों में स्पष्ट है कि अंगिरा पर अर्थववेद प्रकट हुआ था।

इसके अतिरिक्त वेद में भी चारों वेदों का नाम आया है –

यस्मिन्नश्वास ऋषभास उक्षणो वशामेषा अवसृष्टास आहूता: ।

कीलालपे सोमपृष्ठाय वेधसे हृदामर्ति जनये चारुमग्नये ।।

-ऋग्वेद 10/91/14

(यस्मिन) जिस सृष्टि में परमात्मा ने (अश्वास:) अश्व (ऋषभास) सांड (उक्ष्ण) बैल (वशा) गाय (मेषा:) भेड़, बकरियाँ (अवस्रष्टास) उत्पन्न किये और (आहूता) मनुष्यों को प्रदान कर दिए। वही ईश्वर (अग्नेय) अग्नि के लिए (कीलालपो) वायु के लिए (वेधसे) आदित्य के लिए (सोमपृष्ठाय) अंगिरा के लिए (हृदा) उनके ह्रदय में (चारुम) सुन्दर (मतिम) ज्ञान (जनये) प्रकट करता है।

स्मरणीय है कि अग्नि सूर्य ओर वायु कोई जड़ पदार्थ नहीं वरन ऋषि हैं। जड़ पदार्थ में वेद की ज्योति प्रकाशित होने का विचार करना मूर्खता की बात है। क्योंकि जड़ से अर्थात जड़ में ज्ञान नहीं दिया जा सकता है।  अग्नि वायु, (वायो), आदित्य ऋषि ही इसका प्रमाण हैं-  आचार्य सायण ऐतरेय ब्राह्मण ५/३३ की व्याख्या करते हुए अग्नि आदि को जीव विशेष कहते है। सायण के जीव कहने मात्र से ही उनके जड़ होने का स्वतः खंडन हो जाता है –

जीव विशेषैर्ग्निवाय्वादित्यैर्वेदानामुत्पादितत्वाद।

– सायणभाष्यभूमिकासंग्रह पृष्ठ 4

स्वयम ऋग्वेद अग्नि के ऋषि होने की घोषणा करता है –

अग्निर्ऋषि: पवमान: पाचजन्य: पुरोहित: ।

-ऋग्वेद 9/66/20

अभिप्राय है कि जो पवित्र सब मनुष्यों का पुराहित है वह ऋषि अग्नि है।  यहाँ किस ऋषि का नाम अग्नि हो ये बताया है अत: अग्नि जड़ नही वरन जीव विशेष ही है ।

आपस्तम्बग्र्ह्सुत्र में अग्नि सोम आदि नाम वालो को काण्ड ऋषि कहा है –

प्रजापतिस्सोमोअग्निविश्वदेवा ब्रह्मास्वयम्भू पंचकाण्डऋषय: ।

-आपस्तम्ब 4/3

यहाँ अग्नि ओर सोम को ऋषि कहा है सोम अंगिरा का पर्याय है।

अत: स्पष्ट है कि चारो वेद चारो ऋषियों पर प्रकट हुए और ब्रह्मा ने इन चारों ऋषियों से वेद का ज्ञान प्राप्त किया । मनस्मृति के प्रथम अध्याय के एक अन्य श्लोक 1/23 से भी इस बात की पुष्टि होती है । मनुस्मृति के श्लोक 1/13 एवं 1/23 के साथ कई अन्य श्लोकों से इस बात की पुष्टि होती है कि त्रिविद्या रूपी ऋग, यजु, साम लक्षण वाले यज्ञ की सिद्धि हेतु ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, रवि और अंगिरा से चारों वेदों क्रमशः ऋग, यजु, साम और अथर्ववेद का ज्ञान प्राप्त किया ।

महर्षि अंगिरा की वैदिक महता का पत्ता इस बात से चलता है कि ऋग्वेद का नवम मण्डल, जो कि 114 सूक्तों में निबद्ध हैं,  तथा पवमान-मण्डल के नाम से विख्यात है, इनके ही नाम समर्पित है अर्थात नवम मण्डल के द्रष्टा अकेले महर्षि अंगिरा हैं। इसकी ऋचाएँ पावमानी ऋचाएँ कहलाती हैं। इन ऋचाओं में सोम देवता की महिमापरक स्तुतियाँ हैं, जिनमें यह बताया गया है कि इन पावमानी ऋचाओं के पाठ से सोम देवताओं का आप्यायन होता है। अंगिरा की वैदिक महता का पत्ता इस बात से चलता है कि सम्पूर्ण ऋग्वेद में महर्षि अंगिरा तथा उनके वंशधरों तथा शिष्य-प्रशिष्यों का जितना उल्लेख है, उतना अन्य किसी ऋषि के सम्बन्ध में नहीं हैं। विद्वानों के अनुसार  महर्षि अंगिरा से सम्बन्धित वेश और गोत्रकार ऋषि ऋग्वेद के नवम मण्डल के द्रष्टा हैं। नवम मण्डल के साथ ही ये अंगिरस ऋषि प्रथम, द्वितीय, तृतीय आदि अनेक मण्डलों के तथा कतिपय सूक्तों के द्रष्टा ऋषि हैं। जिनमें से महर्षि कुत्स, हिरण्यस्तूप, सप्तगु, नृमेध, शंकपूत, प्रियमेध, सिन्धुसित, वीतहव्य, अभीवर्त, अंगिरस, संवर्त तथा हविर्धान आदि मुख्य हैं।

 

 

 

 

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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