कहो कौन्तेय-१८ (महाभारत पर आधारित उपन्यास)

(पाण्डवों के विवाहोपरान्त हस्तिनापुर की राजसभा)

विपिन किशोर सिन्हा

पिछला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

द्रौपदी से हमारे विवाह का समाचार हस्तिनापुर में सबसे पहले महात्मा विदुर को प्राप्त हुआ। विश्वस्त गुप्तचरों के माध्यम से हमारा संपर्क उनसे निरन्तर बना हुआ था। उन्होंने पितामह भीष्म और महाराज धृतराष्ट्र को हमारे जीवित बच जाने और द्रौपदी स्वयंवर की सूचना दी। धृतराष्ट्र ने कर्ण और दुर्योधन को बुलाकर समाचार की सत्यता की पुष्टि भी की। उन्हें पूरा विश्वास था कि कर्ण की सहायता से दुर्योधन द्रौपदी को प्राप्त करेगा। उन्हें घोर निराशा हाथ लगी। निराशा षड्यंत्र को जन्म देती है। पराजय और निराशा के भंवर में डूबते-उतराते कर्ण. दुर्योधन और धृतराष्ट्र पुनः आगामी षड्यंत्र की व्यूह-रचना में सन्नद्ध हो गए।

दुर्योधन ने विचार प्रकट किए –

“कांपिल्यनगर में ही गुप्त रूप से भीम का वध करा दिया जाय। इसके लिए बुद्धिभेद उत्पन्न कराने वाले कुछ कुशल ब्राह्मणों की सहायता लेकर कुन्ती-पुत्रों में भेद उत्पन्न किया जाय, उनमें फूट डाली जाय। पांच पति होने के कारण कृष्णा का किसी एक में सुदृढ़ अनुराग नहीं हो सकता। उसका मतिभ्रम कर उसके द्वारा पाण्डवों का परित्याग या पाण्डवों द्वारा उसका परित्याग कराया जाय। दोनों ही स्थितियों का प्रतिफल, पाण्डवों की फूट के रूप में ही आयेगा। पाण्डव अलग-अलग रहना प्रारंभ कर देंगे। उसी समय अवसर देखकर, घात लगाकर हत्या करने में सिद्धहस्त हमारे विश्वस्त योद्धा भीम का वध कर देंगे। तीखे स्वभाव का वह शूरवीर पाण्डवों का सबसे बड़ा सहारा है। उसी को पृष्ठरक्षक पाकर अर्जुन भी अजेय बना हुआ है। उसके वध के पश्चात, पाण्डवों का बल और उत्साह नष्ट हो जाएगा। फिर वे राज्य प्राप्त करने का प्रयास भी नहीं करेंगे। अगर मेरा यह प्रस्ताव स्वीकारयोग्य न हो, तो मेरे दूसरे प्रस्ताव पर विचार किया जाय –

राधानन्दन कर्ण को कांपिल्यनगर भेजकर, उन्हें पूरे सम्मान के साथ यहां बुलाया जाय, सहज स्नेह और सम्मान देकर उनका विश्वास जीता जाय, पश्चात विश्वसनीय बधिकों द्वारा विभिन्न उपायों द्वारा उनका वध करा दिया जाय।”

कर्ण दुर्योधन से सहमत नहीं था। उसने दुर्योधन को संबोधित कर अपना परामर्श दिया –

“तुम्हारी यह सलाह उचित नहीं है। पाण्डवों में फूट डालना असंभव है। जो एकमत हों, एक ही पत्नी में अनुरक्त हों, उनमें परस्पर विरोध हो ही नहीं सकता। कृष्णा को भी उनकी ओर से फूट डालकर विलग करना असंभव है। पाण्डव जब भिक्षाभोजी होने के कारण दीन-हीन थे, उस अवस्था में उसने उनका वरण किया। अब तो वे संपत्तिशाली हैं, हस्तिनापुर के भावी सम्राट हैं। स्वच्छ और सुन्दर वेश में रहते हैं। अब वह क्यों उनकी ओर से विरक्त होगी? अपने बाल्य-काल में वे यहीं तुम्हारे पास रहते थे, उनके गुणों से बहुत कम लोग परिचित थे, तब तुमने गुप्त विधियों से उनका वध करने की कई बार चेष्टा की, लेकिन सफलता प्राप्त नहीं हुई। इस समय वे विदेश में हैं और उनके पक्ष में न सिर्फ अनेक नृपगण हैं बल्कि हस्तिनापुर का प्रचण्ड जनमत भी है। इन सबके बावजूद भी उनकी जड़ें अभी बहुत गहरी नहीं हैं। अतः जबतक पांचालराज शक्ति संग्रह कर, अपने महापराक्रमी पुत्रों के साथ, उनके लिए प्रत्यक्ष युद्ध का निमंत्रण नहीं देते, वृष्णि कुलनन्दन श्रीकृष्ण यदुवंशियों की सेना के साथ पाण्डवों को राज दिलाने के उद्देश्य से पांचालराज के घर नहीं आ जाते, उनके पास अनेकानेक वाहन, मित्र और कुटुम्बी नहीं हो जाते और वे पर्याप्त बलशाली नहीं हो जाते, हमलोग अपनी विशाल चतुरंगिणी सेना के द्वारा द्रुपद को कुचलकर शीघ्र ही पाण्डवों को बंदी बनाकर ला सकते हैं।

राजन्! क्षत्रिय के पराक्रम की ही प्रशंसा की जाती है। पराक्रम करना ही शूरवीरों का धर्म है। महात्मा भरत ने पराक्रम के द्वारा ही यह पृथ्वी प्राप्त की। इन्द्र ने पराक्रम से ही तीनों लोकों पर विजय पाई। साम, दाम और भेद की नीति से पाण्डवों को वश में नहीं किया जा सकता है। उन्हें पराक्रम से नष्ट कर सारी पृथ्वी का राज निष्कण्टक भोगो। इसके अतिरिक्त कार्यसिद्धि का विकल्प मैं नहीं देखता।”

धृतराष्ट्र ने कर्ण की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा –

“कर्ण, तुम परम बुद्धिमान, अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता और सूतकूल को आनन्दित करने वाले हो। मेरे पुत्र के सबसे बड़े हितचिन्तक! ऐसे पराक्रमयुक्त वचन तुम्हारे ही योग्य हैं। मैं तुमसे सहमत हूं लेकिन पांचाल देश पर आक्रमण के लिए पितामह भीष्म और विदुर की सहमति एवं अनुमोदन आवश्यक है। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो पाण्डवों में फूट डालने की बात तो दूर, हम कई टुकड़ों में विभाजित हो जाएंगे। अगर भीष्म, द्रोण और विदुर ने पाण्डवों का साथ दे दिया, तो वे नहीं, हम बन्दी बना लिए जाएंगे। अतः कल भीष्म, द्रोण और विदुर को बुलाकर उन्हें अपनी योजना पर सहमत करा, आक्रमण की योजना बनाई जाय।”

दूसरे दिन मंत्रणा कक्ष में महाराज धृतराष्ट्र ने पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, महात्मा विदुर, दुर्योधन, कर्ण और अपने विश्वस्त मंत्रियों के साथ मंत्रणा की। उन्होंने कर्ण के प्रस्ताव को यथावत् रखते हुए सबसे इसके अनुमोदन का आग्रह किया। धृतराष्ट्र, दुर्योधन और कर्ण पाण्डवों के अनिष्ट के लिए कुटिलता की इस सीमा तक जाने का विचार रखते हैं; भीष्म, द्रोण और विदुर यह जानकर अत्यन्त व्यथित और आश्चर्यचकित हुए। व्यथित मन से पितामह ने कहना आरंभ किया –

“पुत्र धृतराष्ट्र! जब से मैंने सुना कि माता के साथ पाण्डव लाक्षागृह में भस्म हो गए, तभी से लज्जा, क्षोभ और विषाद के मारे, अपना ही मुंह छुपाए अपने ही आवास में बन्दी था। जममानस से यह बात छिपी नहीं रह सकी कि इस षड्यंत्र में तुमने भी अपने पुत्रों का साथ दिया था। समस्त आर्यावर्त्त इस कार्य के लिए पुरोचन को उतना दोषी नहीं मानता, जितना तुम्हारे साथ मुझे। महाराज! पाण्डवों के जीवनकाल में उनका पैतृक अंश साक्षात् वज्रधारी इन्द्र भी नहीं ले सकते।

पाण्डवों में ज्येष्ठ युधिष्ठिर अत्यन्त धार्मिक, न्यायप्रिय, मृदुभाषी और प्रजा में लोकप्रिय है। वह इस बात को भलीभांति जानता है कि कब स्वाभाविक बल का प्रयोग करना चाहिए, कब मित्र और कब सैन्यबल का। वह साम, दाम, भेद और दण्डनीति में अत्यन्त प्रवीण है।

क्रोध और अमर्ष की अवस्था में भीम किसी भी शत्रु का विनाश कर सकता है। द्रौपदी-स्वयंवर में उसने एक वृक्ष हाथों में लेकर अकेले आर्यावर्त्त के समस्त नरेशों को पराजित किया।

द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण का परम सखा तृतीय पाण्डु-पुत्र अर्जुन अपने शरीर के गठन, अतुलनीय पराक्रम और मृदुवाणी से सभी मनुष्यों के नेत्रों तथा हृदय को आनन्द प्रदान करता है। कर्ण के पराक्रम के भरोसे दुर्योधन उसे विजित करने का स्वप्न देखता है लेकिन द्रौपदी स्वयंवर में, प्रत्यक्ष युद्ध में, अर्जुन के हाथों कर्ण की अपमानजनक पराजय से यथार्थज्ञान हो जाना चाहिए। सदा मनोहर वचन बोलने वाला अर्जुन, कभी ऐसा वचन नहीं बोलता जो अनुपयुक्त, अनुचित, मिथ्या या अप्रिय हो।

समस्त पाण्डव राजोचित लक्षणों से संपन्न तथा समस्त गुणों से विभूषित हैं। मेरी दृष्टि में दूर-दूर तक ऐसा कोई वीर नहीं जो अपने बल से पाण्डवों का उच्छेद कर सके। अगर इस कुटिल कार्य में तुम मेरे सहयोग या सहमति की अपेक्षा रखते हो, तो तुम्हें निराशा ही हाथ लगेगी। इस पूरे राज्य पर, उनका निर्विवाद अधिकार है। फिर भी आपसी कलह, षड्यंत्र, युद्ध, रक्तपात को सदा के लिए विराम देने हेतु, राज्य का आधा भाग उन्हें और आधा भाग दुर्योधन को देकर स्थाई शान्ति और संधि का पक्षधर हूं। वे आधे राज्य से भी संतुष्ट हो जाएंगे, क्योंकि मुझे इसका पूरा विश्वास है कि वे मेरी आज्ञा शिरोधार्य करेंगे।

अतः हे धृतराष्ट्र! पुत्रमोह में पड़कर अनर्थ न करो। पांचाल देश से ससम्मान बुलाकर, पाण्डवों को न्यायोचित भाग प्रदान कर, अपने उपर कलंक को धो डालो।”

धृतराष्ट्र ने आचार्य द्रोण के भी विचार आमंत्रित किए। पितामह भीष्म से पूर्ण सहमति व्यक्त करते हुए आचार्य ने दृढ़ शब्दों में अपना परामर्श दिया –

“महाराज, परामर्श लेने ले लिए आमंत्रित हितैषियों के लिए यह उचित है कि वे ऐसी मंत्रणा दें जो धर्म, यश और अर्थ को प्राप्त करने वाली हों। कुन्ती-पुत्रों को कम से कम आधा राज्य अवश्य मिलना चाहिए। मेरी सम्मति है कि दुशासन और विकर्ण को वर पक्ष की ओर से धन, रत्न और द्रौपदी के लिए रत्नजटित सुन्दर आभूषणादि के साथ द्रुपद के पास भेजा जाय। वे दोनों सम्मान के साथ कुलवधू को विदा कराकर हस्तिनापुर ले आएं। हे भरतवंशी नरश्रेष्ठ! आपको अपने पुत्रों और अनुज-पुत्रों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए – आदरणीय भीष्म के साथ मैं भी यही उचित समझता हूं।”

क्रमशः

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,049 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress