कहो कौन्तेय-२८ (महाभारत पर आधारित उपन्यास-अंश)

(हस्तिनापुर की द्यूत-सभा)

विपिन किशोर सिन्हा

“भीम, लौट आओ, मुझे लज्जित न करो। तुम्हें मेरी शपथ, लौट आओ।”

युधिष्ठिर ने तेज स्वरों में बार-बार भीम को लौट आने का आदेश दिया। भैया भीम कठपुतली की भांति युधिष्ठिर के पांव के अंगूठे पर दृष्टिपात करते हुए अपने स्थान पर लौट आए। हम चारो भ्राताओं की जीवन-डोर अग्रज युधिष्ठिर के दाहिने पैर के अंगूठे से बंधी थी। हम सभी की गतिविधियों का संचालन वहीं से होता था।

भीम के बैठते ही दुशासन का दुस्साहस बड़वानल की भांति पुनः बढ़ने लगा। कृष्णा को पकड़ने के लिए वह उसकी ओर झपटा। उसकी कलाई उसने बाएं हाथ से ऐसे पकड़ ली जैसे खड्‌ग की मूठ पकड़ी जाती है। दाएं हाथ से उसने पांचाली की केशराशि पकड़ रखी थी। सभा कक्ष के मध्य में खड़ी करने के बाद भी वह उसके केश झटक रहा था जैसे वह कोई प्राणहीन प्रतिमा हो। लाज संकोच छोड़कर द्रौपदी ने दोनों हाथ जोड़ लिए, आंचल वक्षस्थल से नीचे आ चुका था। अत्यन्त कातर स्वर में उसने विनती की –

“कृपया मुझे एकान्त में रहने दें। मैं एकवस्त्रा हूं…….रजस्वला हूं।”

दुशासन ने अट्टहास किया –

“तुम कुछ भी हो, वस्त्रहीन हो या आवेष्ठित, हमें इससे क्या? इस समय हमारे लिए तुम सामान्य दासी मात्र हो। हम अपनी इच्छा से तुम्हारा उपभोग करेंगे।”

मैं द्रौपदी की ओर देखने का साहस नहीं कर पा रहा था। अपराधियों की भांति सभाकक्ष की फर्श पर नेत्र झुकाए मौन बैठा था। मन फिर भी नहीं मान रहा था – एक बार चोरदृष्टि से अपनी प्राणप्रिया को देख ही लिया – कितनी असहाय! कितनी विवश! पुष्प मालाओं से सदा बंधे रहने वाले, उसके काले घुंघराले केश मुक्त होकर बिखर रहे थे। आंखों से अजस्र अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। सभाकक्ष के मध्य में खड़ी, दोनों हाथों को जोड़, याचना भरी दृष्टि लिए, बारी-बारी से सभी उपस्थित गुरुजनों को सहायता के लिए देख रही थी। उसको देखते ही मेरे नेत्रों के सम्मुख घनीभूत अंधकार की अनगिनत परतें एक-एक कर खड़ी हो गईं। मैं कहां था? सामने क्या घटित हो रहा था? अपमान! अन्याय!! अत्याचार!!! यह कुरुओं कि गौरवशाली राजसभा थी या कामुकों, मदोन्मत्तों और बुद्धिहीनों की अन्तःपुरी? द्रौपदी के वक्षस्थल पर पड़ने वाली दुर्योधन, कर्ण और दुशासन की कामोद्दीप्त दृष्टियों पर अंकुश लगाने वाला, कोई पुरुषार्थी प्रकट नहीं हुआ। मेरे हाथ के बंधन अचानक गाण्डीव पर कस गए। एक क्षण में ब्रह्मास्त्र का स्मरण हो आया। पूरी सृष्टि मेरे क्रोध का शिकार बनने ही वाली थी – मैं प्रलय से उसका साक्षात्कार कराना चाह रहा था। मैंने अग्रज युधिष्ठिर के पांव के अंगूठे की ओर देखा, वहां से कोई संकेत नहीं मिला। मैंने उनके पराजित नेत्रों में अपनी जलती हुई दृष्टि गड़ा दी, शायद कोई संकेत मिल जाय। उन्होंने मेरी पीठ पर हाथ फेरा, मुझे शान्त रहने का संकेत दिया। गाण्डीव पर मेरी पकड़ ढीली पड़ गई। असह्य भाव से मैंने नेत्र मूंद लिए। लेकिन आंख बंद कर लेने से घटनाएं तो नहीं रुक जातीं, मन का सन्ताप तो नहीं मिट जाता। मेरे नेत्रों से अश्रु बिन्दुओं के साथ रक्तबिन्दु भी भूमि पर गिरे – टप-टप। विवश, कायर और नपुंसक अर्जुन का रक्तमिश्रित अश्रुप्रवाह विशालतर होता गया, गंगा और यमुना जैसी। गरजती हुई उनकी प्रचण्ड लहरें आपस में मिलीं, उफनती हुई, अनियंत्रित। उन लहरों में सभाकक्ष में उपस्थित अनेक योद्धाओं के सिर, बहते हुए मुझे दिखाई पड़े। मन तिक्त हो गया, पर भय से थरथराया नहीं। संभालने का प्रयत्न कर ही रहा था कि पांचाली कि चिरपरिचित ध्वनि कानों से टकराई। वह दुशासन को धिक्कार रही थी –

“अरे दुष्ट! इस सभा में शास्त्रों के विद्वान, कर्मठ और इन्द्र के समान तेजस्वी, मेरे पिता समान सभी गुरुजन बैठे हुए हैं। मैं उनके सम्मुख इस रूप में होना नहीं चाहती। अरे दुराचारी। मुझे घसीट मत, मुझे नग्न मत कर। इस नीच कर्म से तनिक डर तो सही। स्मरण कर, यदि इन्द्र के साथ समस्त देवता भी तेरी सहायता को उपस्थित हो जाएं, तो भी तू पाण्डवों से बच नहीं पाएगा। तेरा पतन अवश्यंभावी है।”

दुशासन दूने वेग से कृष्णा की ओर बढ़ा। इस बार उसका आंचल दुष्ट के हाथों में था। द्रौपदी में पता नहीं कहां से अपार शक्ति आ गई थी। विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के लिए, उसने स्वयं को तैयार कर लिया था – किटकिटाकर दुशासन के हाथों में अपने दांत गड़ा दिए। दर्द से बिलबिलाता हुआ दुशासन छिटककर दूर खड़ा हो गया। सभागृह में वह एक-एक व्यक्ति के पास गई, न्याय की गुहार की, सहायता की याचना की लेकिन सभी शिलाखण्ड की भांति मूक और अविचल रहे। पितामह के सामने खड़ी होकर, विलाप करते हुए उसने अन्तिम याचना की –

“पितामह ऽ ऽ! मैं महाराज द्रुपद की पुत्री, हस्तिनापुर के स्वर्गीय यशस्वी महाराज पाण्डु की पुत्रवधू, आपकी कन्या समान हूं। मुझ एकवस्त्रा, रजस्वला नारी को भरी सभा में घसीटते हुए लाकर, लांछित करना क्या पूरे कुल के लिए लज्जाजनक नहीं है? क्या द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, महात्मा विदुर, महाराज धृतराष्ट्र और स्वयं आप में इतनी शक्ति नहीं रह गई कि आप सभी, या आप में से कोई एक भी दुर्योधन के इस भयानक पापाचार का प्रतिकार कर सके? उठिए कुरुश्रेष्ठ, उठिए पितामह! आंचल फैलाकर मैं भीख मांगती हूं। कुरुओं की इस प्राचीन गौरवशाली सभा में कुलवधू के शील का व्यापार मत होने दीजिए। उठिए कुरुतिलक! जगद्‌जननी सीता का स्पर्श करने पर जो दण्ड, श्रीराम ने दशानन को दिया था, वही दण्ड पापकर्म में लिप्त इस दंभी मदान्ध, नीच दुशासन को दीजिए।”

परन्तु……………

परन्तु पितामह भीष्म का मस्तक तूफान के प्रहार से टूटे तालवृक्ष के शीर्ष की भांति झुका रहा। मैंने समझा – अभी मेघ गर्जन की भांति पितामह का स्वर सभाकक्ष में गूंजेगा, बदली छंट जाएगी। लेकिन वह स्वर गूंजा नहीं।

पितामह भीष्म – ऋषिवर वशिष्ठ का शिष्य! बृहस्पति और शुक्राचार्य से शास्त्राध्ययन करने वाला पराक्रमी क्षत्रिय! च्यवन, भार्गव और मारकण्डेय से धर्म का गंभीर ज्ञान प्राप्त करने वाला धर्मज्ञ! महाराज शान्तनु का साक्षात गंगापुत्र। युद्ध में अपने ही गुरु परशुराम को पराजित करने वाला विख्यात धनुर्धारी, अतुलनीय योद्धा। आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला तेज का ज्वलित पूंज!

वे पितामह भी सिर झुकाकर चुप बैठे थे। किस विवशता ने उन्हें क्रियाहीन बना दिया था? वह कौन सा कारण था जिसने उनकी वाणी छीन ली थी? हमें तो हमारे स्वामी ने द्यूत में हार दिया था, वे तो स्वतंत्र थे। लगता है नियति ने उन जैसे सामर्थ्यवान पुरुष के सम्मान घर्षण के निमित्त ही इस घटना का आयोजन किया था।

दुशासन ने पांचाली के केश पुनः पकड़ लिए, जोर से झटका दिया। वह भूमि पर गिर पड़ी। मस्तक से रक्त की बून्दें निकलने लगीं। वह अचेत सी हो रही थी। दुशासन उसे घसीटते हुए अट्टहास कर रहा था –

“विदुषी बनने की कोशिश करना, नारी का सबसे बड़ा अपराध है। विद्यावती और ज्ञानवती बनने के कारण ही तेरी यह दशा हुई है। तू अगर हमारे चरणों में पड़कर भीख मांगती तो इतने बड़े अपमान से तुम्हारी निश्चित रक्षा हो जाती। तू हमारी दासी है, दासी। अभिमान का त्याग कर, दासी धर्म स्वीकार कर। तुझे रानी बना हम अभयदान देंगे। हाऽऽ हाऽऽ हाऽऽ।”

सभा में उपस्थित सभी सभासदों ने एक बार फिर लज्जा से अपने सिर झुका लिए। सिर्फ कर्ण खिलखिलाकर हंसा। उसने तिर्यक दृष्टि से एकबार मुझे देखा, एकबार पांचाली को और उच्च स्वर में दुशासन की सराहना कर प्रोत्साहन देने लगा। सुबलपुत्र गांधारराज शकुनि ने भी दुशासन का अभिनन्दन किया। दुर्योधन कुटिल मुस्कान बिखेर रहा था।

द्रौपदी ने पुनः एकबार शक्ति का संचय किया। उसकी चेतना वापस आ चुकी थी। स्वयं को एकबार पुनः दुशासन के बंधन से मुक्त किया। सभाकक्ष के मध्य में आकर तथाकथित गुरुजनों को धिक्कारते हुए उसने प्रश्न किया –

“अहो धिक्कार है। मिथ्या गर्व से मस्तक ऊंचा करके चलनेवाले भरतवंशी, कुरुवंशी महापुरुषों पर, आचार्यों पर, विद्वानों पर। निश्चय ही सभी श्रेष्ठ पुरुषों का सदाचार लुप्त हो चुका है, तभी तो यहां कुलवधू का शीलहरण हो रहा है और सभा में बैठे सभी कुरुवंशी तमाशा देख रहे हैं।

वह सभा नहीं, जहां वृद्ध न हों, वे वृद्ध नहीं जो धार्मिक न हों, वह धर्म नहीं जिसमें सत्य न हो, और वह सत्य नहीं जो छल से युक्त हो।

धर्मपुत्र महात्मा युधिष्ठिर सदा धर्म में ही स्थित रहते हैं। वे सिर्फ धर्मात्मा ही नहीं, अत्यन्त सरल और साधु स्वभाव के हैं। उनकी सरलता और आज्ञाकारिता का लाभ उठाकर उन्हें अन्यायपूर्ण ढंग से द्यूत के खेल में पराजित किया गया है। राजा से राजा ही खेल सकता है। पर द्यूतक्रीड़ा में निपुण, अनार्य, दुष्टात्मा, कपटी धूर्त शकुनि दुर्योधन के लिए खेले। द्यूतक्रीड़ा के भी अपने नियम होते हैं। इसमें एक के स्थान पर दूसरा नहीं खेल सकता। मैं समस्त पाण्डवों की समान रूप से पत्नी हूं, केवल युधिष्ठिर की नहीं। इसके अतिरिक्त पाण्डु कुमार युधिष्ठिर पहले अपने आप को हार चुके थे। उसके बाद किसी भी वस्तु को दांव पर लगाने का उनका अधिकार नहीं था। शकुनि द्वारा विवश करने पर सबसे अन्त में उन्होंने मुझे दांव पर लगाया। इतना जानने के बाद भी क्या गुरुजन सोचते हैं कि मैं कौरवों की दासी बन गई? मुझे इस राजसभा से अपने प्रश्नों के उत्तर की अपेक्षा है।”

……….लेकिन सभा ने द्रौपदी के प्रश्नों के उत्तर देने के बदले मौन रहने का विकल्प ही चुना। दुशासन का मनोबल बढ़ता ही जा रहा था। वह नए सिरे से पांचाली का तिरस्कार करने को उद्यत हुआ। भीम अपनी पीड़ा और क्रोध का शमन नहीं कर पाए। वह स्वभाविक भी था। इस बार उनका आक्रोश युधिष्ठिर पर था –

“अग्रज युधिष्ठिर! द्यूतक्रीड़ा के घोर व्यवसनियों के घर में प्रायः कुलटा स्त्रियां रहती हैं, किन्तु वे भी उन्हें दांव पर लगाकर जुआ नहीं खेलते। उन कुलटाओं के प्रति भी उनके हृदय में दयाभाव रहता है। हमारा संपूर्ण राजपाट, राज्यलक्ष्मी आपका शरीर तथा हम सभी भ्राताओं को शत्रुओं ने जुए के दांव पर रखवाकर अपने अधिकार में कर लिया किन्तु मेरे मन में क्रोध नहीं आया। आप हमारे सर्वस्व के स्वामी हैं। लेकिन आपने द्रौपदी को दांव पर लगाकर घोर अनर्थ किया है। वह भोली-भाली अबला पाण्डवों को पतिरूप में पाकर भी इस प्रकार अपमानित होने की भागी कदापि नहीं है। आपके कारण ये नीच, नृशंस और अजितेन्द्रिय कौरव इसे नाना प्रकार के कष्ट दे रहे हैं।

राजन्‌! द्रौपदी की इस दुर्दशा के सबसे बड़े दोषी आप ही हैं। मैं आपको सबसे बड़ा अपराधी मानता हूं। आप दण्ड पाने के अधिकारी हैं। जिन भुजाओं से पासा फेंककर आपने द्रौपदी को दुर्योधन की दासी बनाया, मैं आपकी उन भुजाओं को भस्म कर दूंगा। सहदेव, अग्नि की व्यवस्था करो।”

क्रमशः 

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