कहो कौन्तेय-३१ (महाभारत पर आधारित उपन्यास-अंश)

(पाण्डवों की दासता से मुक्ति)

विपिन किशोर सिन्हा

अब धृतराष्ट्र ने भी मुंह खोला –

“पुत्रवधू कृष्णा! तुम मेरी पुत्रवधुओं में सबसे श्रेष्ठ एवं धर्मपारायण हो। तुम्हारा सतीत्व और तुम्हारी भक्ति तुम्हें सम्मानित करते हैं। तुमने अपनी महिमा प्रकट कर दी है। तुम्हारा पातिव्रत्य असंदिग्ध है। तुम्हारी निष्ठा पर मैं अत्यन्त प्रसन्न हूं। तुम मुक्त हो। तुम जो चाहे वर मांग सकती हो। मैं उसे पूर्ण करने का वचन देता हूं।”

द्रौपदी ने एक क्षण विचार किया और वर मांगा –

“भरतवंश शिरोमणे! यदि आप मुझे वर देते हैं तो मैं यही मांगती हूं कि संपूर्ण धर्म का आचरण करने वाले राजा युधिष्ठिर दास भाव से मुक्त हो जाएं। कम से कम मेरा ज्येष्ठ पुत्र प्रतिविन्ध्य किसी क्रीतदास का पुत्र न कहलाए।”

“तथास्तु! तुम्हें एक वर देने से मुझे तृप्ति नहीं हो रही है, अतः तुम दूसरा वर भी मांगो।” धृतराष्ट्र ने अभय वाणी में कहा।

“राजन मैं दूसरा वर यह मांगती हूं कि भीमसेन, अर्जुन, नकुल एवं सहदेव अपने रथ और धनुष-बाण सहित दास भाव से रहित एवं स्वतंत्र हो जाएं।” द्रौपदी ने शान्त स्वर में कहा।

धृतराष्ट्र की वाणी पुनः गूंजी –

“एवमस्तु! महाभागे! तुम अपने कुल को आनन्द प्रदान करने वाली हो। तुम जैसा चाहती हो, वैसा ही हो। मेरा मन तुम्हें तीसरा वर देने के लिए प्रेरित हो रहा है। इसलिए तुम तीसरा वर भी मांगो।”

“महाराज! लोभ धर्म का नाशक होता है, अतः अब मेरे मन में वर मांगने का उत्साह नहीं है। राजशिरोमणे! तीसरा वर लेने का मुझे अधिकार भी नहीं है। राजेन्द्र! वैश्य को एक वर मांगने का अधिकार है, क्षत्रिय स्त्री दो वर मांग सकती है, क्षत्रिय को तीन तथा ब्राह्मण को सौ वर लेने का अधिकार है। मेरे पांचो पति दास भाव को प्राप्त होकर भारी विपत्ति में फंस गए थे। अब उससे पार हो गए। इसके बाद पुण्य कर्मों के अनुष्ठान द्वारा ये लोग स्वयं कल्याण प्राप्त कर लेंगे। कृपा और न्याय के लिए हमारा आभार स्वीकार करें।”

एक घृणित, अपमानजनक और जीवनपर्यन्त पीड़ा देनेवाले नाटक का पटाक्षेप हो चुका था। जिस सभागार में हमने जीवन का सबसे बड़ा अपमान झेला था, उसमें एक पल और व्यतीत करना, नरक में खड़े रहने के समान प्रतीत हो रहा था। मैंने युधिष्ठिर से प्रस्थान करने का अग्रह किया। वे धृतराष्ट्र के सम्मुख खड़े हुए और विनम्र निवेदन किया –

“महाराज, आप हमारे स्वामी हैं, पितृदेव हैं। आज्ञा देने का कष्ट करें, हम क्या करें? हम लोग सदा आपकी आज्ञा के अधीन रहना चाहते हैं।”

दुखी और उदास होने का अभिनय करते हुए धृतराष्ट्र ने कहा –

“अजातशत्रो! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मेरी आज्ञा से हारे हुए धन के साथ, बिना किसी विघ्न-बाधा के कुशलतापूर्वक अपनी राजधानी को प्रस्थान करो और अपने राज्य का शासन करो। सती याज्ञसेनी के साथ सुख से रहो।

पुत्री याज्ञसेनी! इस अन्यायपूर्ण द्यूतक्रीड़ा की अनुमति मैंने वाध्य होकर दी थी। दुर्योधन मेरी आज्ञा नहीं मानता, उल्टे अपनी इच्छा के अनुसार चलने के लिए मुझे विवश कर देता है। पुत्रमोह मेरी विवशता है। मेरी लाचारी मेरे अतिरिक्त कोई नहीं समझ सकता। पुत्रों की कुटिल बुद्धि के कारण, मेरे भाल पर कलंक का जो टीका आज लग गया है, उसे गंगा का समस्त जल भी नहीं धो सकता। मरणोपरान्त मैं देवलोक में अपने पूर्वजों को कौन सा मुंह दिखाऊंगा। हमारा यह कुकृत्य निश्चित रूप से युगों-युगों तक घृणा के योग्य रहेगा। आनेवाली पीढ़ियां मुझे, मेरे पुत्रों को धिक्कारेंगी; लेकिन मुझे इस बात की प्रसन्नता हो रही है कि इस अपमान से तुम्हारा मान सहस्रगुणा बढ़ गया है। मेरे पुत्र अपनी शक्ति और पराक्रम को समझ गए होंगे। द्यूत क्रीड़ा के परिणाम ने यह सिद्ध कर दिया है कि पाण्डव कितने महान हैं। युधिष्ठिर की धर्मपारायणता, अर्जुन का धैर्य, भीम का सत्साहसपूर्ण पराक्रम की नीति और शान्ति संपूर्ण विश्व के सम्मुख प्रकट हुई है। मेरे पुत्र यद्यपि क्षमा के योग्य नहीं हैं, फिर भी तुम सबसे मैं उन्हें क्षमा करने का आग्रह करता हूं। जाओ, ईश्वर तुम्हें तुम्हारे पतियों के साथ सदैव सुखी, संपन्न और यशस्वी रखे।”

हमने सबसे विदा ली और राजवस्त्र में इन्द्रप्रस्थ को प्रस्थान किया।

हम जितने सरल थे, हमारे ज्येष्ठ पिताश्री उतने ही जटिल थे। वे सोचते कुछ और थे, कहते कुछ और तथा करते कुछ और थे। कई अवसरों पर मैंने उन्हें धर्म और कर्त्तव्य पर प्रभावशाली वक्तव्य देते हुए सुना था। वे हमेशा यह दिखावा करते थे कि उन्हें सिंहासन का कोई मोह नहीं है – वे तो अनुज पाण्डु की अकाल मृत्यु के कारण, योग्य पात्र के अभिषेक होने तक कार्यवाहक शासक के रूप में कार्य करने के लिए वाध्य किए गए थे। लेकिन ऐसा था नहीं। वे अपने पुत्रों से भी पिता के बदले महाराज का संबोधन सुनना पसंद करते थे। वे हृदय से चाहते थे कि सब उन्हें महाराज ही कहें – पितामह भीष्म भी।

मैं लाक्षागृह की घटना के पूर्व उन्हें ’ताऊजी’ के संबोधन से पुकारता था, पिता का सम्मान देता था। उनके षड्यंत्रों का भेद खुलने के बाद , भूलकर भी मैंने उन्हें ताऊ नहीं कहा। पुत्रमोह और राजमोह में पड़कर वे सदैव एक राजा का स्वभाविक कर्त्तव्य और धर्म भूल जाते थे। जीवन भर मोह की भूल-भुलैया में भटकते रहे। उनके वाह्य चक्षु बंद थे, वे देख नहीं सकते थे लेकिन उनके अन्त:चक्षु, राज्य लोभ के कारण दिवारात्रि खुले रहते थे। विकलांगता मनुष्य को शारीरिक और मानसिक दृष्टि से अपूर्ण बना देती है। एक अंग का अभाव संपूर्ण व्यक्तित्व को खण्डित कर देता है – यह बात धृतराष्ट्र के संदर्भ में शत प्रतिशत सत्य थी। दृष्टिहीनता ने उन्हें हीन भावना से आपूरित कर दिया था, जिसकी पूर्ति वे सत्ता पर आधिपत्य जमाकर करना चाहते थे। उनकी हर हीन भावना ने ही उनमें पुत्र ग्रंथि भर दी थी। दुर्योधन आदि पुत्रों के जन्म के पश्चात उनकी पहली जिज्ञासा यही थी – “मेरे पुत्रों को तो दृष्टि-दोष नहीं है।” धृतराष्ट्र का आहत अहं, दुर्दम्य दुर्योधन के निरंकुश आचरण से कही पोषित होता था। पिता जिस कार्य को नहीं कर सकता, पुत्र के माध्यम से उसकी क्षतिपूर्ति करता है। धृतराष्ट्र का पूरा जीवन एक विडंबना में ही व्यतीत हुआ। मृत्यु की पूर्वरात्रि तक कभी उन्होंने निश्चिन्त निद्रा सुख का भोग नहीं किया। उन्हें अपने पूर्वजों, महाराज भरत, आयु, नहुष, ययाति, पुरु, हस्ति, अजमीढ़, संवरण, कुरु, जह्नु, प्रतीव और शान्तनु की यशोगाथा विस्मृत हो चुकी थी; स्मरण थी मात्र अंधत्व की भाग्य प्रवंचना जिसके प्रतिकार के लिए सन्नद्ध थे, वे एक सौ एक पुत्रों के साथ – उनके हृदय में शेष बच रही थी तो सिंहासन अपने पास रखने की अभिलाषा जिसके लिए वे कोई भी मूल्य चुकाने को प्रस्तुत थे।

क्रमशः

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