कहो कौन्तेय-८३

विपिन किशोर सिन्हा

(अश्वत्थामा द्वारा द्रौपदी-पुत्रों की हत्या)

गदायुद्ध में नियमतः कटि के नीचे किसी भी प्रकार का प्रहार वर्जित था। बलराम के अनुसार भीम ने नियम भंग किया था। दुर्योधन उनका सर्वप्रिय शिष्य था। उसके पतन ने बलराम का विवेक हर लिया। अपना हल लेकर चिल्लाते हुए भीम की ओर दौड़े –

“कटि के नीचे प्रहार करने वाले, गदायुद्ध का नियम भंग करने वाले, मूढ़ भीमसेन! आज मैं इस हल से तुम्हारा वध करके अपने प्रिय शिष्य को न्याय दिलाऊंगा।”

श्रीकृष्ण ने अपने दोनों हाथों से पकड़कर उन्हें रोका और रोषपूर्ण वाणी में कहा –

“दाऊ! भरी द्यूतसभा में द्रौपदी को अपनी अनावृत्त जंघाओं पर बैठने का असभ्य निमंत्रण देने वाले दुर्योधन की जंघाओं को युद्ध में अपनी गदा से चूर-चूर करने की भीम ने उसी समय प्रतिज्ञा की थी। आज अवसर प्राप्त होने पर, उसकी जंघा तोड़ने के बदले क्या भीमसेन द्रौपदी को लाकर उसपर बिठा देते? अतिशय शिष्य प्रेम में विवेक का परित्याग मत कीजिए। दुर्योधन के प्रति आप आरंभ से ही पक्षपाती रहे हैं। बिना किसी से मंत्रणा किए आपने सुभद्रा का विवाह उससे तय कर दिया था। भीमसेन को मारने का विचार हमेशा के लिए अपने मस्तिष्क से निकाल दीजिए, अन्यथा मैं अपनी पूरी शक्ति से आपका प्रतिकार करूंगा। दाऊ, यदि इस समय आपके स्थान पर मैं होता, तो महापराक्रमी, महाबली, वीर भीमसेन को अपनी कौमुदकी गदा प्रदान कर उसका सम्मान करता। अपने क्रोध पर नियंत्रण कीजिए – कृपया शान्त हो जाइए।”

बलराम को समझते देर न लगी कि जो भी हुआ था, श्रीकृष्ण की सम्मति से ही हुआ था। जिन पाण्डवों के हित के लिए श्रीकृष्ण ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था, उन्हीं में से एक भीम को दंड देने के उद्देश्य से स्पर्श, उनकी आंखों के सामने करना असंभव था। लाचार बलराम पैर पटकते हुए द्वारिका के लिए प्रस्थान कर गए। जाते-जाते प्रलाप कर रहे थे –

“जो भी हो, यह युद्ध-नियमों का अतिक्रमण है और वह मेरे ही समक्ष हुआ है। तुम्हारे ही कारण भीम ने यह नियम भंग किया है। मैं तुम दोनों का मुख भी देखना नहीं चाहता – मैं द्वारिका जा रहा हूं।”

अपने स्वभाव के अनुरूप बलराम भैया आंधी की भांति आए और झंझावात की तरह चले गए।

युद्ध समाप्त हो चुका था। लेकिन हमारे हृदय में ऐसा घाव दे गया था जो संभवतः शेष जीवन में कभी न भरे। क्या खोया – क्या पाया की गणना अन्य जन करेंगे। मैंने तो बस खोया ही था। अठारहवें दिन की अर्द्धरात्रि में सोए हुए पांचों द्रौपदी-पुत्रों और धृष्टद्युम्न की नृशंस हत्या करके क्रूर अश्वत्थामा ने रही सही कसर भी पूरी कर दी थी। युद्धोपरान्त हमारे प्रसन्न होने का कोई कारण शेष नहीं था। यद्यपि हमने अश्वत्थामा को पकड़ उसे दण्डित कर दिया था लेकिन इससे क्या हमारे पांचों पुत्र वापस आ सकते थे?

हमारे पुत्रों की हत्या के बाद अश्वत्थामा भाग रहा था। हमने उसका पीछा किया। हमें रोकने के लिए उस आतताई ने ब्रह्मास्त्र क प्रयोग कर दिया। मुझे अब पश्चाताप हो रहा था – क्यों उसको पिछले अठारह दिनों में, कम से मन अठारह बार जीवन दान दिया था। अपने ब्रह्मास्त्र से उसको दिव्यास्त्र को शान्त किया। भीम ने उसे जा पकड़ा, लात घूंसों से मारते हुए उसे ले आए। वह अर्द्धमृत हो चुका था। यदि उसे अमरता का वरदान प्राप्त नहीं होता, तो भीम के प्रचण्ड प्रहारों से कब का वह स्वर्ग सिधार गया होता। भीम उसे पीटते-पीटते क्लान्त हो गए। श्रीकृष्ण उनके पास गए, अश्वत्थामा को छुड़ाया, उनके हाथ में एक दिव्य खड्ग देते हुए, मन्द स्वर में बोले –

“हे कौन्तेय! अश्वत्थामा को चिरंजीवी होने का वरदान प्राप्त है, वह मरने वाला नहीं है, अतः अपना श्रम व्यर्थ न करो। मृत्यु दो प्रकार की होती है – शारीरिक और लौकिक। इसे लौकिक मृत्यु प्रदान की जा सकती है। इस खड्ग द्वारा इसके मस्तक पर जन्मना जो मांसल मणि है, उसे काटकर निकाल दो। इसके मस्तक का घाव कभी नहीं भरेगा, लहूलुहान ही रहेगा – जैसे तुम्हारे पुत्रों के शव। रक्त और पीब के स्राव से व्यथित और आकुल अश्वत्थामा, कभी नहीं भरने वाले इस घाव को लेकर, युगों-युगों तक जीता रहेगा – विक्षिप्तों की भांति, दौड़ता रहेगा – श्वान की भांति; विधाता से अपनी मृत्यु की याचना करेगा लेकिन वह इसे प्राप्त नहीं होगी। यह जहां भी जाएगा, जनसमुदाय अपमान, उपेक्षा और तिरस्कार से इसपर थूकेगा, बच्चे इसे पत्थर मारेंगे, कुत्ते इसे दौड़ाकर काटेंगे। लौकिक अर्थ में यह इसकी मृत्यु ही होगी – सबसे घृणास्पद मृत्यु। शीघ्रता करो, काट लो इसके मस्तक की मणि और दे दो इस अधम को इसके जघन्य पापों का दंड।”

भीमसेन की आंखें अंगारे बरसा रही थीं। उन्होंने तत्क्षण श्रीकृष्ण के आदेश का पालन किया। बाएं हाथ से अश्वत्थामा की ग्रीवा कसकर, दाहिने हाथ के खड्ग से उन्होंने उसकी मणि उसके मस्तक से निकाल ली। मणिविहीन, विवेकहीन अश्वत्थामा चीत्कार करता रहा।

भीमसेन ने रक्तरंजित खड्ग वहीं फेंक दिया। दोनों हाथों से मणि को संभाला, शिविर में लौटकर द्रौपदी के हाथों में मणि को देते हुए पूरी घटना विस्तार से सुनाई। श्रीकृष्ण ने भी द्रौपदी को अश्वत्थामा के चिरंजीवी होने के विषय में बताकर, उसके पुत्रशोक को कम करने का प्रयास किया। क्या अश्वत्थामा की मांसल मणि द्रौपदी के पांच पुत्रों की हत्या का शोक तनिक भी कम करने में समर्थ थी? द्रौपदी के विलाप से पृथ्वी का हृदय भी विदीर्ण हो रहा था। युधिष्ठिर शोक से व्याकुल हो पृथ्वी पर गिर पड़े थे, नकुल-सहदेव पाषाण बने चुपचाप बैठे थे। भीम मूर्ति की भांति शान्त खड़े थे। आंखों से आंसू की मोटी-मोटी बून्दें धरती पर गिर रही थीं। मैं द्रौपदी को इस अवस्था में नहीं देख सकता था – शिविर से बाहर आ, सूने आकाश को निहारता रहा – उसमें न चांद, था न सूरज, न ग्रह थे, न तारे। चारों ओर शोक और दुख का सागर ही लहरा रहा था। हम उसमें डूब रहे थे या उतरा रहे थे, इन्द्रियों को इसका भान नहीं रहा।

आज मुझे अपने आप पर क्रोध आ रहा था। मैंने युद्ध अठारह दिनों तक चलने क्यों दिया? मैं चाहता तो अपने दिव्यास्त्रों के प्रयोग से, युद्ध को एक ही दिन में समाप्त कर सकता था। इतने सारे दिव्यास्त्रों का संग्रह आखिर किस दिन के लिए किया था? लेकिन मेरी बुद्धि मारी गई थी। मैं कम से कम विनाश के साथ विजय चाहता था। पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य और गुरुपुत्र अश्वत्थामा को तो किसी भी दशा में खोना नहीं चाहता था। लेकिन मिला क्या? युद्ध समाप्ति के बाद अपने पांच पुत्रों के सिरविहीन शव, हृदय को खंड-खंड कर देन वाला द्रौपदी का करुण क्रन्दन, उत्तराधिकारी विहीन हस्तिनापुर का शापित साम्राज्य!

क्रमशः

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