सागर

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सागर मौला मस्त सा
ख़ुद से ही अंजान,
वाष्प बना उड़ता गया
बादल बन बरस गया।
कौन तूफ़ानों में घिरा,
कब सुनामी आई,
वो तो मौला मस्त सा
वहीं का वहीं रहा।
सागर सारे जुडे हुए हैं,
सागर को पता नहीं,
कहीं कोई सीमा नहीं।
कहाँ प्रशांत ख़त्म हुआ,
और हिंद शुरू हुआ।
सागर तट की ऊँचाई से
पर्वत नापे गये…
सागर को अपनी
गहराई का भी मान नहीं।
सागर में पलते हैं कितने
ही जल- जंतु
सागर के तट में वनस्पति
के अद्भुत भंडार का
सागर को पता नहीं।
कितना नमक घुला सागर में

सागर को अंदाज नहीं।
नमक बिना भोजन बेसुआदी
इसका भी आभास नहीं।
मौला-मस्त सुखी रहता है
उसको ये कोई बतलाये
सागर में पॉलीथीन प्लास्टिक
डाले तो कुछ शोर मचाये……..
चीख़े चिल्लाये…….

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मनोविज्ञान में एमए की डिग्री हासिल करनेवाली व हिन्दी में रुचि रखने वाली बीनू जी ने रचनात्मक लेखन जीवन में बहुत देर से आरंभ किया, 52 वर्ष की उम्र के बाद कुछ पत्रिकाओं मे जैसे सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी और माधुरी सहित कुछ ग़ैर व्यवसायी पत्रिकाओं मे कई कवितायें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लेखों के विषय सामाजिक, सांसकृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामयिक, साहित्यिक धार्मिक, अंधविश्वास और आध्यात्मिकता से जुडे हैं।

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