’सेक्युलर’ शब्द पर गहराया विवाद

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संदर्भः- राजनाथ सिंह का बयान
secular
प्रमोद भार्गव

संसद के शरदकालीन सत्र के पहले दिन ही बहस की सुई ‘सेक्युलर‘ शब्द की व्याख्या पर अटक गई है। गोया, लगता है, यह सत्र भी कहीं पिछले सत्र की तरह इस शब्द का अपने-अपने ढंग से अर्थ निकालने में स्वाहा न हो जाए। क्योंकि यही बहस इसी साल गणतंत्र दिवस 26 जनवरी को भी छिड़ी थी। इस अवसर पर संविधान की 42 वीं प्रस्तावना से संबंधित विज्ञापन प्रकाषित किए गए थे,लेकिन उनमें ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द नदारद थे। अब गृहमंत्री राजनाथ सिंह के संसद में दिए इस कथन पर विवाद गहराना स्वाभाविक है कि ‘सेक्युलर‘ शब्द का अर्थ ‘धर्मनिरपेक्ष‘ के स्थान पर ‘पंथनिरपेक्ष‘ होना चाहिए। हालांकि यह सही है कि संविधान में सेक्युलरिज्म का अर्थ पंथनिरपेक्ष ही बताया गया है। किंतु दुर्भाग्य से धर्मनिरपेक्ष शब्द ही प्रचलन में आ गया। बावजूद विडंबना यह रही कि इस शब्द के वास्तविक आषय को आजतक नहीं समझा जा सका है। यहां तक कि धर्मनिरपेक्ष शब्द की न तो संविधान में स्पष्ट व्याख्या है और न ही सर्वोच्च न्यायालय इस शब्द को स्पष्ट रुप में परिभाषित कर पाई है। इस परिप्रेक्ष्य में गृहमंत्री ने संविधान संशोधन के जरिए संविधान की मूल प्रस्तावना में सेक्युलर शब्द जोड़े जाने पर आपत्ति जताई है तो उसे गंभीरता से लेने की जरूरत है।
यह सही है कि भारत का धर्मरिपेक्ष स्वरूप भारतीय संविधान का बुनियादी आधार है। लेकिन इस अभिव्यक्ति की स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई है। हिंदू और हिंदुओं से जुड़े प्रतिरोध को ही धर्मनिरपेक्षता मान लिया जाता है। जबकि वास्तविकता है कि मूल संविधान की प्रस्तावना में ‘सेक्युलर‘ अथवा ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द था ही नहीं। यह शब्द आपातकाल के दौरान 42वां संविधान संशोधन लाकर ‘समाजवादी धर्मनिरपेक्ष संविधान अधिनियम 1976’ के माध्यम से जोड़ा गया। बावजूद इसे ठीक से परिभाषित नहीं किया गया। लिहाजा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों की भी विरोधाभासी टिप्पणियां आती रही हैं, जो किसी एक निष्कर्ष पर जाकर नहीं ठहरती।
आपातकाल के बाद जब जनता दल की केंद्र में सरकार बनी तो यह सरकार 43वां संशोधन विधेयक लाकर ‘सेक्युलरिज्म मसलन धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या स्पष्ट करना चाहती थी, प्रस्तावित प्रारूप में इसे स्पष्ट करते हुए वाक्य जोड़ा गया था, ‘गणतंत्र शब्द जिसका विशेषण ‘धर्मनिरपेक्ष’ है का अर्थ है, ऐसा गणतंत्र जिसमें सब धर्मों के लिए समान आदर हो।‘ लेकिन कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को राज्यसभा में गिरा दिया। अब यह स्पष्ट उस समय के कांग्रेसी ही कर सकते हैं कि धर्मों का समान रूप से आदर करना धर्मनिरपेक्षता क्यों नहीं है ? गोया,इसके लाक्षणिक महत्व को दरकिनार कर दिया गया। शायद ऐसा इसलिए किया गया,जिससे देश में सांप्रदायिक सद्भाव स्थिर न होने पाए और सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता को अनंतकाल तक वोट की राजनीति के चलते,तुष्टिकरण के उपायों के जरिए भुनाया जाता रहे। साथ ही इसका मनमाने ढंग से उपयोग व दुरूपयोग करने की छूट सत्ता-तंत्र को मिली रहे। यही वजह है कि पिछले कुछ समय से यह एक शब्द तमाम समस्याओं की जड़ बन गया है।
जहां तक गणतंत्र शब्द का प्रश्न है तो विस्टर ह्यूगो ने इसे यूं परिभाषित किया है, ‘जिस तरह व्यक्ति का अस्तित्व उसके जीने की इच्छा की लगातार पुष्टि है, उसी तरह देश का अस्तित्व उसमें रहने वालों का परस्पर तालमेल नित्य होने वाला जनमत संग्रह है।’ दुर्भाग्य से हमारे यहां परस्पर तालमेल खंडित हो रहा है। अलगाव और आतंकवाद की अवधारणाएं निरंतर देश की संप्रभुता व अखण्डता के समक्ष खतरा बनकर उभर रही हैं। इस गंभीर परिस्थिति में तथाकथित धर्मनिरपेक्षता हिंदु, हिंदुत्व और देश की पुरातन सभ्यता व संस्कृति के विरुद्ध जबरदस्त चुनौती के रूप में पेश आई है।
भारतीय संविधान जिस नागरिकता को मान्यता देता है, वह भी एक भ्रम है। सच्चाई है कि हमारी नागरिकता भी खासतौर से अल्पसंख्यक,बहुसंख्यक समुदायों में बंटी हुई है। लिहाजा इसका चरित्र उत्तरोत्तर सांप्रदायिक हो रहा है। हिंदु, मुसलमान और ईसाई भारतीय नागरिक होने का दंभ बढ़ रहा है। जबकि नागरिकता केवल देशीय मसलन भारतीय होनी चाहिए। हालांकि आजादी के ठीक बाद प्रगतिशील बौद्धिकों ने भारतीय नागरिकता को मूल अर्थ में स्थापित करने का प्रयास किया था, लेकिन धर्मनिरपेक्षता के फेर में मूल अर्थ सांप्रदायिक खानों में विभाजित होता चला जा रहा है। क्योंकि सेक्युलरिज्म ने एक विशेष समुदाय को वोट बैंक की राजनीति के लिए गोलबंद किया।
वर्तमान में हमारे यहां धर्म निरपेक्ष शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के शब्द ‘सेक्युलर’ के अर्थ में हो रहा है। अंग्रेजी के प्रसिद्ध आॅक्सफोर्ड शब्द-कोष में इसका अर्थ ‘ईश्वर विरोधी‘ दिया है। भारत और इस्लामिक देश ईश्वर विरोधी कतई नहीं हैं। ज्यादातर क्रिश्चियन देश भी ईसाई धर्मावलंबी हैं। हां, बौद्ध धर्मावलंबी चीन और जापान जरूर ऐसे देश हैं, जो धार्मिक आस्था से पहले राष्ट्रप्रेम को प्रमुखता देते हैं। हमारे संविधान की मुश्किल यह भी है कि उसमें धर्म की भी व्याख्या नहीं हुई है। इस बाबत न्यायमूर्ति राजगोपाल आयंगर ने जरूर इतना कहा है, ‘‘मैं यह जोड़ना चाहता हूं कि अनुच्छेद 25 और 26 में धार्मिक सहिष्णुता का वह सिद्धांत शामिल है, जो इतिहास के प्रारंभ से ही भारतीय सभ्यता की विशेषता रहा है।’’ इसी क्रम में उच्चतम न्यायालय ने कहा, ‘धर्म शब्द की व्याख्या लोकतंत्र में नहीं हुई है और यह ऐसा शब्द है, जिसकी निश्चित व्याख्या संभव नहीं है।’’ संभवतः इसीलिए न्यायालय को कहना पड़ा कि ‘गणतंत्र का धर्मनिरपेक्ष स्वभाव राष्ट्रनिर्माताओं की इच्छा के अनुरूप होना चाहिए और इसे ही संविधान का आधार माना जाना चाहिए।’ अब यहां संकट यह भी है कि भारत राष्ट्र का निर्माता कोई एक नायक नहीं रहा। गरम और नरम दोनों ही दलों के विद्रोह से विभाजित स्वतंत्रता संभव हुई। नतीजतन धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या को किसी एक इबारत में बांधना असंभव है। इसीलिए श्रीमद्भागवत गीता में जब यक्ष,धर्म को जानने की दृष्टि से प्रश्न करते हैं तो धर्मराज युधिष्ठिर का उत्तर होता है, ‘तर्क कहीं स्थिर नहीं हैं,श्रुतियां भी भिन्न-भिन्न हैं। एक ही ऋषि नहीं है, जिसका प्रमाण माना जाए और धर्म का तत्व गुफा में निहित है। अतः जहां से महापुरूष जाएं, वही सही धर्म या मार्ग है।’
वैसे भारतीय परंपरा में धर्म कर्तव्य के अर्थ में प्रचलित है। यानी मां का धर्म, पिता का धर्म, पुत्र का धर्म, स्वामी का धर्म और सेवक का धर्म। इस संदर्भ में कर्तव्य से निरपेक्ष कैसे रहा जा सकता है। सेक्युलर के लिए शब्द-कोश में पंथनिरपेक्ष शब्द भी दिया गया है, पर इसे प्रचलन में नहीं लिया गया। कर्तव्य के उपर्युक्त पालन के निहितार्थ ही संविधान के 42वें संशोधित अधिनियम 1976 के अंतर्गत ‘बुनियादी कर्तव्य के परिप्रेक्ष्य में एक परिच्छेद संविधान में जोड़ा गया है। अनुच्छेद 51ए (ई) में कहा गया है, ‘धार्मिक, भाषाई, क्षेत्रीय और भेदों से ऊपर उठकर सौहार्द्र और भाईचारे की भावनाएं बनाए रखना और स्त्रियों की गरिमा की सुरक्षा करना हरेक भारतीय नागरिक का दायित्व होगा।‘
1973 में न्यायमूर्ति एच.आर.खन्ना ने भी धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित करते हुए कहा था ‘राज्य,धर्म के आधार पर किसी नागरिक के साथ पक्षपात नहीं कर सकता।‘ न्यायमूर्ति एमएन वेंकटचलैया की परिभाषा उपरोक्त परिभाषाओं से पृथक है। उन्होंने कहा था, ‘धर्म निरपेक्षता का अर्थ बहुसंख्यक समुदाय के विरूद्ध नहीं हो सकता।’ जाहिर है, धर्मनिरपेक्षता को हथियार मानते हुए जो लोग इसका दुरूपयोग बहुसंख्यक समुदाय के विरूद्ध करते हैं, उन पर नियंत्रण का संकेत इस टिप्पणी में परिलक्षित है। संविधान निर्माता भीमराव आंबेडकर ने भी संविधान को धर्मनिरपेक्ष नहीं माना था, क्योंकि वे जानते थे कि एक बहुधर्मी, बहुजातीय, बहुभाषीय देश के चरित्र में ये प्रवृत्तियां उदार एवं एकरूप नहीं हो सकतीं।
फिर हमारे यहां सामंतशाही और विदेशी हमलावरों के सत्ता पर काबिज हो जाने के चलते स्वेच्छाचारिता और निरंकुशता की भी एक सुदीर्घ परंपरा रही है,जो सामान्य से लेकर विशिष्ट नागरिकों को भी चंचल व विचलित बनाए रखने का काम करती है। फलस्वरूप धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में राजनीतिक दलों ने भी अपनी-अपनी परिभाषाएं गढ़ लीं। कांग्रेस की परिभाषा है,‘सर्व-धर्म, समभाव’ और भाजपा की है,‘न्याय सबको, पक्षपात किसी को नहीं।’ इसी तर्ज पर नरेंद्र मोदी ने चुनावी नारा दिया था,‘सबका साथ, सबका विकास।’ लेकिन इन परिभाषाओं के भावार्थ राजनेताओं के चरित्र में शुमार दिखाई नहीं देते। इसीलिए गांधी जी ने कहा था,‘वास्तव में धर्म आपके प्रत्येक क्रियाकलाप में अंतर्निहित होना चाहिए। ’ऐसा होगा तो एक साझा उद्देश्य, साझा लक्ष्य और साझा भाईचारा दिखाई देगा। देश में सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए इन्हीं उपायों की जरूरत है। लेकिन विधि सम्मत दायरे में धर्मनिरपेक्षता को एक निश्चित इबारत में परिभाषित करना जरूरी है। क्योंकि इसका लचीलापन दुरूपयोग का सबब बन रहा है। लिहाजा अपरिभाषित चले आ रहे सेक्युलर शब्द को नया अर्थ देकर ठीक से परिभाषित करने की बात गृहमंत्री ने की है,तो इसे गंभीरता से लेने की जरूरत है,क्योंकि यह एक शब्द संविधान का हिस्सा बनने से लेकर अबतक संप्रदायों के बीच तनाव का सबसे बड़ा कारण बना चला आ रहा है।

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  1. सेक्युलर और समाजवादी शब्द संविधान में अनावश्यक रूप से जोड़े गए हैं- इसकी जरूरत होती तो बनाते समय ही दिया गया होता. भाजपा को विपक्ष के सुर में सुर नहीं मिलाना चाहिए न ही अपने सूडो सेकुलर वाले कथनों से पीछे हटना चाहिए..

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