”शिवप्रसाद, तुमको इस मकान से अच्छा मकान मिल सकता था, जहां शांति रहती, परंतु तुमने छोटे-छोटे बच्चों के विद्यालय के समीप ही मकान क्यों लिया? दिन-भर बच्चों का षोरगुल सुनाई देगा।” मोहनलाल ने अपने मित्र से प्रश्न किया।
”ऐसा है मोहन, मेरे पांच बेटे हैं और सभी का विवाह हो चुका है। पांचों बेटों के ग्यारह बच्चे हैं। बच्चों वाले घर में, मैं बच्चों की मधुर आवाजें हमेशा सुनता आया हूं। फिर आरंभ हुआ परिवार का टूटना। पांचों बेटों ने अपना-अपना बसेरा पृथक कर लिया तो ऐसा लगा मानो यह घर रूपी वृक्ष वीरान हो गया और इस वीराने में पक्षीरूपी बच्चों का जो कलरव सुनाई देता था, वह लुप्त हो गया। इसलिये इस विद्यालय के समीप ही मकान ले लिया ताकि पक्षीरूपी बच्चों की चहचहाहट, उनका कलरव हमेशा सुनाई दें।
-देवेन्द्र गो. होलकर,
188/ए,सुदामा नगर, इंदौर
लघु कथा/कलरव – by – -देवेन्द्र गो. होलकर, इंदौर
इंदौर जैसे महानगर में तो कलरव की कम्मी कहीं नहीं होगी though there is law against noise pollution
यह तो व्यक्ति के अपने मन की अवस्था है कि इसे षोरगुल,चहचहाहट या कलरव मानते हैं.
PS
आपने अपने मित्र शिवप्रसाद जी को उनके नए मकान की ब्धाई तो दी ही नहीं ? चलो अब दे दीजिये – देर से ही.
– अनिल सहगल –
बच्चों का षोरगुल -vs पक्षीरूपी बच्चों की चहचहाहट = कलरव