कंधे प‌र‌ न‌दी

यदि हमारे बस में होता,

नदी उठाकर घर ले आते|

अपने घर के ठीक सामने,

उसको हम हर रोज बहाते|

 

कूद कूद कर उछल उछलकर,

हम मित्रों के साथ नहाते|

कभी तैरते कभी डूबते,

इतराते गाते मस्ताते|

 

“नदी आई है”आओ नहाने,

आमंत्रित सबको करवाते|

सभी उपस्थित भद्र जनों का,

नदिया से परिचय करवाते|

 

यदि हमारे मन में आता,

झटपट नदी पार कर जाते|

खड़े खड़े उस पार नदी के,

मम्मी मम्मी हम चिल्लाते|

 

शाम ढले फिर नदी उठाकर,

अपने कंधे पर रखवाते|

लाये जहां से थे हम उसको,

जाकर उसे वहीं रख आते|

 

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लेखन विगत दो दशकों से अधिक समय से कहानी,कवितायें व्यंग्य ,लघु कथाएं लेख, बुंदेली लोकगीत,बुंदेली लघु कथाए,बुंदेली गज़लों का लेखन प्रकाशन लोकमत समाचार नागपुर में तीन वर्षों तक व्यंग्य स्तंभ तीर तुक्का, रंग बेरंग में प्रकाशन,दैनिक भास्कर ,नवभारत,अमृत संदेश, जबलपुर एक्सप्रेस,पंजाब केसरी,एवं देश के लगभग सभी हिंदी समाचार पत्रों में व्यंग्योँ का प्रकाशन, कविताएं बालगीतों क्षणिकांओं का भी प्रकाशन हुआ|पत्रिकाओं हम सब साथ साथ दिल्ली,शुभ तारिका अंबाला,न्यामती फरीदाबाद ,कादंबिनी दिल्ली बाईसा उज्जैन मसी कागद इत्यादि में कई रचनाएं प्रकाशित|

2 COMMENTS

  1. आप ने सार्थक कर दिया —
    कि
    जहां न पहुंचे रवि,
    वहां पहुंचे कवि|
    सुन्दर कविता.

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