उल्लुं शरणं गच्छामि..

सुरेश नीरव

दिवाली फटाफट अमीर होने का तत्काल-सेवा रिजर्वेशन काउंटर है। जो हर साल खुलता है। और जहां हर साल धन की धनक और खनक पर भांगड़ा करने की अदम्य लालसा लिए नोटाभिलाषी भक्तगण चीन में बनी लक्ष्मी मैया की मूर्ति के आगे अपनी स्वदेशी श्रद्धा की आउटसोर्सिंग के जरिए मनुष्य से धनपशु होने का दुर्दांत वरदान हासिल करने के लिए लोम-विलोम करते हैं। यह भावुक-भक्तों का सालाना व्यायाम है। इस उठापटक में कई उत्साही भक्तों की तो कपालभाति भी हो जाती है। मगर भक्तगणों की सरफरोश मुरादों पर इसका रत्तीभर भी असर नहीं होता है। हां आजकल इन भक्तगणों की प्रार्थनाएं भी यूज एंड थ्रो वाली डिजायन की होने लगी हैं। चूंकि उल्लुओं को ऑब्लाइज करने का लक्ष्मीजी का शौक सनातन एवं ओल्डेस्टतम है इसलिए मुझे छोड़कर हर साल कई उल्लू गरीबी की रेखा से ऊपर उड़कर संपन्नता के मॉल में घुसपैठ कर जाते हैं। और मैं काठ का उल्लू जिसे कभी भी उल्लू सीधा करना नहीं आया हर बार की तरह फिर उल्लू का पट्ठा ही साबित होता हूं। सही मौके पर उल्लू बनना और उल्लू बनाने के तकनीकि पाठ्यक्रम में पास होना तो दूर अपनी कभी सप्लीमेंट्री तक नहीं आई। इसलिए अपुन कभी मनीशंकर तो क्या मनीप्लांट भी नहीं बन पाए। और दौलत के हाइवे पर हर बार आदर्शों की पोटली में गरीबी के चिथड़े लिए माइलस्टोन की तरह वहीं अड़े-खड़े ही रह जाते हैं। लेकिन मुझे खुशी है कि ऐसे उल्लुओं की प्रजाति (जिनमें से मैं भी एक हूं) पर्यावरण की तमाम छेढ़छाड़ के बाद भी अभी प्रलुप्त नहीं हुई है। एक ढ़ूंढ़ो हजार मिलते हैं। दूर ढ़ूंढ़ों पास मिलते हैं। मुझे मालुम है कि चुनाव के समय नेता और दीवाली के समय लक्ष्मी मैया अपने चमचों को खूब खैराते बांटती हैं। मगर धन कमाने के मामले में हमारे लिए तो हरेक साधन-प्रसाधन लोकपाल बिल ही साबित हुए हैं। फिर भी बरबादियों का जश्न मनाते हुए लक्ष्मीपूजन के इस रोचक कार्यक्रम को वनडे क्रिकेट मैच की तरह देख-देखकर हम भी भरपेट प्रसन्न होते हैं और जिद्दी उत्साह के साथ हर साल सपरिवार दिवाली-दिवाली खेलते हैं। त्वचा में गोरापन और लॉकर में कालाधन की सात्विक कामना हर भारतीय की होती है। इसलिए ऐसी कामना करना अपनी भी भौगोलिक मजबूरी है। सुना है कि सत्वादी हरिश्चंद्र के ज़माने में हमारे देश में सत्य का सिक्का चलता था। अब सिक्के का सत्य ही देश के चलन में है। इसलिए डॉलर,पौंड,येन,रेंडवाली तमाम विविध मुद्राओं के देशों को पछाड़कर भारत ही दुनिया का इकलौता देश बना हुआ है जहां हर दिवाली पर नोट की बाकायदा और खुलेआम पूजा होती है जो अगली दिवाली तक जारी ही रहती है। शास्त्रों में उल्लेख है कि उल्लू की सेवा करने से भी लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं सो इस दिवाली पर मैंने भी अपने बॉस की सेवा करने की भीष्म प्रतिज्ञा कर डाली है। जनहित में यह रहस्योदघाटन मैंने इसलिए किया है कि निराश भक्तगण भी दिवाली के पावन पर्व पर इस ललचाऊ सूत्र का सेवन कर आर्थिक तंदरुस्ती में विश्वबैंक की तरह हृष्ट-पुष्ट हो जाएं। वैसे भी फेस्टिवल डिस्काउंट जोर-शोर से चालू है और यूं भी उलूक-सेवा का यह फार्मूला काफी स्वास्थ्यवर्धक और शक्तिप्रदायक माना गया है। इसलिए भक्तगणो प्यार से बोलो..ज़ोर से बोलो उल्लुं शरणं गच्छामि।

 

2 COMMENTS

  1. सुरेश जी
    आपका एक एक रूपक माइक्रोसाफ़्ट की विंडोज़ पर विंडोज़ खोलता है और उतनी‌ ही चोट करते हुए आनंद बढ़ाता है।
    एक उल्लू के बहाने आपने सारे समाज का जंगलीपन सामने ला दिया है;
    बधाई

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