राकेश कुमार आर्य
बलिदानों से बचा है राष्ट्र
बलिदान राष्ट्र की आधारशिला है। आज समय आ गया है कि जब राष्ट्र को नेहरू जी की भ्रम नीति से सावधान करना होगा। हमें नाचने गाने वालों के पीछे खड़ा होकर अभिनेताओं को नेता नही मानना है, अपितु राष्ट्र के उत्थान के लिए राष्ट्र की समस्याओं के प्रति सजग और जागरूक होना है। विषय और भोग जीवन के अंग तो हो सकते हैं, पर उसके ध्येय अथवा साध्य नही हो सकते।
जो लोग विषय-भोग की सामग्री को एकत्र करते हुए राष्ट्रसेवा करने का ढोंग कर रहे हैं वह निरे पाखण्डी हैं। उनके विषय में समझ लेना चाहिए कि वह राष्ट्रात्मा का हनन कर रहे हैं और राष्ट्र को मूर्ख बना रहे हैं।
श्रीमती इंदिरा गांधी की शासन प्रणाली
श्रीमती इंदिरा गांधी 20वीं सदी की महान राजनीतिज्ञा हुई हैं। हर व्यक्ति का व्यक्तित्व अच्छी बुरी बातों से मिलकर बना करता है। इंदिरा जी भी इसका अपवाद नही थीं। यह मानना पड़ेगा कि कुछ मामलों में वह राजनीति के उस शिखर तक पहुंची जहां नेहरू जी सहित हमारा कोई भी प्रधानमंत्री आज तक नही पहुंच पाया है, जैसे कि-
बैंकों का राष्ट्रीयकरण।
राजाओं के प्रीविपर्स को एक झटके में बंद करना।
पाकिस्तानी सेना को भारी पराजय का मुंह देखना।
सन 1974 ई. में पोखरण परमाणु परीक्षण कर राष्ट्र को उन्नति की ओर ले चलना।
कृषि क्षेत्र में हरित क्रांति के सफल प्रयास करना।
विश्व में गुटनिरपेक्ष आंदोलन को सुदृढ़ता प्रदान कर उसका सफल और सक्षम नेतृत्व करना।
भारत की राजधानी दिल्ली में प्रथम एशियाई खेलों का आयोजन करना, आदि-आदि सम्मिलित हैं।
इंदिरा जी की ऐतिहासिक भूलें
देखिये इसी विषय का दूसरा पक्ष भी हमारे सामने मौजूद है। जैसे देश में न्यायालय के निर्णयों का पहली बार खुला उल्लंघन इंदिरा जी ने किया। न्यायालय के निर्णयों को अपने विरूद्घ देखकर बौखलाहट में पहली बार देश में आपातकाल की घोषणा कर दी।
सारे लोकतांत्रिक संस्थानों का शोषण और दोहन इंदिरा जी ने किया था। आम नागरिक पर अत्याचार किये गये। राष्ट्र की आत्मा रो पड़ी। 25 जून सन 1975 ई. के दिन के इस काले निर्णय की स्याही इतिहास के पन्नों पर अभी तक भी नही सूख पायी है। निजी हित पर राष्ट्र हितों की हत्या होने का ये दानवी कृत्य भारत की जनता ने पहली बार देखा था।
‘इंडिया इज इंदिरा और इंदिरा इज इंडिया’ की संस्कृति अर्थात कल्चर भी इसी समय विकसित हुई। राष्ट्र एक परिवार की जागीर बन गया। इंदिरा जी के द्वारा राष्ट्र में दूसरे दर्जे का नेतृत्व न पनपने देने का पूरा प्रबंध कर दिया गया। फलस्वरूप व्यक्तिपूजा का ये राष्ट्र दीवाना हो गया।
इंदिरा प्रदत्त उन्हीं बंदिशों के परिणाम राष्ट्र आज तक भुगत रहा है। हमने जल्दी-जल्दी कई प्रधानमंत्री उतरते और गद्दी पर बैठते देखे हैं। ये लोग संसद में सांसदों के सिरों की गिनती के आधार पर कुर्सी तक तो पहुंच गये किंतु राष्ट्र में लोगों के सिरों की गिनती इनके लिए कम पड़ गयी। अत: समय आते ही गद्दी से उतरना इनकी विवशता हो गयी।
आज कहा जाता है कि ‘यह समय संयुक्त सरकारों का समय है’ यह राष्ट्र का ‘संक्रमण काल’ है। ये ऐसा कथन है कि जो जनता का मूर्ख बनाने के लिए बार-बार छोड़ा जाता है। यदि यह समय संयुक्त सरकारों का और राष्ट्र के संक्रमण का समय है तो यह मानना पड़ेगा कि-
राष्ट्र में एकतंत्र भी रहा है।
किसी ने संक्रमण से पूर्व अतिक्रमण भी किया है?
ये दोनों बातें तानाशाहों में मिलती है। इंदिरा जी इन दोनों बातों में बहुत धनी थीं। राजनीतिक हिंसा, हत्या, संसद की उपेक्षा, विपक्ष के प्रति पूर्णत: लापरवाह, समस्याओं को हिंसक होने तक बढऩे देना और फिर उनके समाधान के लिए सक्रिय होना आदि उनके चरित्र में (अपवादस्वरूप कुछ को छोडक़र) यही गुण मिलते हैं। संसद का हर सत्र अभूतपूर्व हंगामे से आरंभ होकर हंगामे में ही समाप्त हो जाता है। सरकारी और विधायी कार्य उतने नही हो पाते जितने कि होने चाहिए।
संसद की कार्यवाही पर राष्ट्र का धन मिनट भर के लिए लाखों रूपये के अनुपात में व्यय होता है। जहां केवल शोर और हंगामा होता है। सरकारी और विधायी कार्य बहुत कम होते हैं। ऐसा करके राजनीतिज्ञ राष्ट्र के साथ छल कर रहे हैं। इनके इस आचरण पर सजा देने के लिए राष्ट्र में आज तक कोई कानून नही बना। वैसे इन्हें मालूम है कि इंकलाब से पूरी तरह बेखबर भारत की जनता चुपचाप सब कुछ सहती रहेगी। इसलिए ये लोग भारत की बहरी और गूंगी जनता के कान खोलने के लिए अभूतपूर्व शोर मचाते हैं।
हर बार के अभूतपूर्व हंगामे और शोर शराबे से अब तो अभूतपूर्व शब्द ही निरर्थक हो गया है। अब तो वह समय आ गया है जब बहरी और गूंगी सरकार को जगाने के लिए उसके कान खोलने के लिए जैसे भगतसिंह को असेम्बली में बम फेंकने की आवश्यकता हुई थी, वैसे ही अब संभव है कि जनता को जगाने और उसके कान खोलने के लिए हमारी सरकारों को ही बम फेंकने पड़ जाएं। बात इंदिराजी की चल रही थी। श्रीमती इंदिरा गांधी के द्वारा बांगलादेश को अलग किया गया। इंदिरा जी की बहुत बड़ी सफलता कहकर कंाग्रेस ने उसे भुनाने अर्थात (कैश) करने का प्रयास किया। इनसे कोई पूछे कि वह कूटनीत भी क्या कूटनीति होती है? जिसे सडक़ छाप आदमी भी समझ जाए।
इसी प्रकार वह कूटनीतिज्ञ भी क्या कूटनीतिज्ञ है जिसकी कूटनीति स्वयं उसके मुंह से ही सडक़ पर खुल जाए। हम इस बात के लिए कि इंदिरा जी पाकिस्तान को दो फाड़ करने में सफल रहीं, उनके स्वयं कृतज्ञ हैं। पुनश्च यह और भी अच्छा होता यदि-
बांग्लादेश को स्वतंत्र राष्ट्र न बनाकर उसे मूल देश भारत का प्रांत बनाया जाता।
पाकिस्तान की लगभग एक लाख सेना को तब तक न छोड़ा जाता जब तक कि कश्मीर के भारत में विलय को अपनी मान्यता देकर उसके द्वारा कब्जाये हुए भाग पर अपना अधिकार छोडऩे को पाकिस्तान उद्यत न हो जाता।