सोशल मीडिया की निगरानी

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आशुतोष

सोशल मीडिया ने भारतीय मीडिया जगत में अपना एक स्थान बना लिया है। कभी-कभी तो लगता है कि वह पारंपरिक मीडिया पीछे छोड़ चुकी है और जल्द ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के स्वप्निल संसार को छोड़ कर आगे निकल जायेगी।

उसकी यह संभावना और लोगों तक सीधी पहुंच केवल सत्ताधारी ही नहीं बल्कि उन लोगों को चिंतित किये हुए है जो जनमत को अपनी ताल पर थिरकते देखना चाहते हैं। लोकतंत्र होते हुए भी भारत में अंग्रेजों के बनाये कानूनों की आड़ में सूचनाओं को छापने और छिपाने का खेल आजादी के बाद भी दशकों तक चला है।

जूलियस असांजे ने सूचनाओं को फाइलों की गिरफ्त से निकाल कर लोगों तक पहुंचाने का काम किया तो तमाम सरकारें उसके खिलाफ खड़ी हो गयीं। लेकिन असांजे के इस दुस्साहस ने गली-मुहल्ले में ऐसे किशोरों की फौज खड़ी कर दी जो अपने हाथ लगी ननिहीं सी जानकारी को भी इंटरनेट के माध्यम से दुनियां भर में बांटने को मचल उठे।

सरकार ने अपनी पारदर्शिता साबित करने के लिये जो टोटके अपनाये उनमें से एक सूचना के अधिकार का भी है। यह कदम उसने पेशेवर आंदोलनकारियों के दवाब को कम करने के लिये उठाया था। कानून बनने पर इन आंदोलनकारियों में से ही कुछ आयोगों में जगह पा गये और शेष सूचना अधिकार के कार्यकर्ता बन गये। कुछ मीडिया संस्थानों ने भी इसे खबर के उत्पादन का आधार बनाया और देखते ही देखते यह धंधा भी चल निकला।

जिज्ञासा वह तत्व है जिसने मनुष्य को पशुतुल्य जीवन से उठाकर विकास के इस स्तर तक पहुंचाया। यही जिज्ञासा ज्ञान-विज्ञान और यहां तक कि मीडिया के जन्म का आधार बनी। अपने आस-पास हो रही घटनाओं की जानकारी और उस पर विशेषज्ञों की टिप्पणियां पाने के लिये लोगों ने समाचार पत्रों का सहारा लिया। दूर-सुदूर की जानकारी पाने की पाठक की इच्छा ने संवाद समितियों के गठन की आवश्यकता उत्पन्न की।

रेडियो के आविष्कार ने सूचना प्रेषण को नये आयाम दिये। द्वितीय विश्व युद्ध और उसके बाद सूचना और मनोरंजन का प्रमुख साधन रेडियो बना।

टेलीविजन ने दृश्यों का एक स्वप्निल संसार मनुष्य के सामने प्रकट किया। अब वह सूचनाओं को पढ़ अथवा सुन ही नहीं बल्कि देख भी सकता था। अमेरिका द्वारा ईराक पर आक्रमण का साक्षात दर्शन, ट्विन टॉवर और मुंबई पर हमले के दृश्य आज भी दर्शकों के जेहन में ताजा हैं। वस्तुतः आतंक को जिन्होंने प्रत्यक्ष नहीं देखा उन्हें आतंकवाद की विभीषिका का परिचय इन घटनाओं के टेलीविजन पर सीधे प्रसारण से ही मिला।

संवाद एक दिशा में नहीं होता। व्यक्ति जहां सारी दुनियां की जानकारी चाहता है वहीं यह भी चाहता है कि उसकी अपनी समस्या अथवा सूचना को भी मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया जा सके। मीडिया से पाठक अथवा दर्शक तभी जुड़ाव अनुभव करता है जब उसे लगता है कि उसकी अपनी समस्या, चिन्ता अथवा सूचना ही उसकी विषयवस्तु है।

पिछले कुछ वर्षों में मीडिया का फोकस आम आदमी से हटा है। इसका खास कारण है बाजार के साथ उसकी संलग्नता। मीडिया ने अपनी ताकत को बाजार के सुपुर्द कर दिया है और बाजार उसका मनमाना उपयोग कर रहा है। दूसरी ओर बाजार ने सरकारों को भी गंभीर रूप से प्रभावित किया । आज सत्ता शिकर पर बैठे लोग बी बाजार की भाषा और मुहावरों में बात करते देखे जा सकते हैं।

परिणामस्वरूप, सरकार और मीडिया, दोनों के फोकस में बाजार आ गया और आम आदमी उससे बाहर हो गया। यह स्थिति इलेक्ट्रॉनिक तथा अंग्रेजी मीडिया में अधिक तथा हिन्दी और भाषायी समाचार पत्रों-पत्रिकाओं में तुलनात्मक रूप से कम थी। किन्तु हिन्दी के पाठकों की अपेक्षा भी अधिक थी जिसके कारण मीडिया का सरोकारों से कटना उसके पाठकों को नहीं भाया।

खबरों से विस्थापन का यह दंश नागरिक को वर्षों से बेचैन किये हुए था। हालात यहां तक जा पहुंचे कि पत्रकार भी अपने ही प्रकाशन में अपनी बात लिखने से वंचित हो गये।

इस बेचैनी को निकलने का मार्ग मिला जब वेब मीडिया का प्रादुर्भाव हुआ। सबसे पहले पत्रकारों की नयी पीढ़ी ने इसे अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया और बाद में बड़ी संख्या में नागरिक भी इससे जुड़ते गये। पहले ब्लॉग और उसके बाद ऑरकुट, फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति की असीम संभावनाओं के द्वार खोल दिये। बेहद कम समय में बहुत अधिक लोकप्रियता पाने का कारण था इसका सस्ता और सर्वसुलभ होना। साथ ही यह ऐसा माध्यम बन गया जिसमें बतकही के लिये पूरी गुंजाइश थी, भाषा और भावों का, छन्द और व्याकरण का कोई बन्धन न था।

मीडिया में छपने वाले आंकड़ों में देश की सुनहरी तस्वीर और मजबूत होती अर्थव्यवस्था की खबरे छपती थीं तो मंहगाई से जूझ रहा नागरिक यह संदेह तो करता था कि कहीं-न-कहीं दाल में काला है किन्तु कसमसाने के अलावा कुछ भी कर सकना उसके लिये असंभव था। लेकिन सोशल मीडिया में अपनी बात कहने के साथ ही अपने विचार से सहमत लोगों को ढ़ूंढ़ निकालना भी अत्यंत सरल हो गया।

जल्दी ही राष्ट्रीय मुद्दों पर समान रूप से सोचने वाले लोगों की गोलबंदी होने लगी और सोशल मीडिया एक आंदोलन का आधार बन गया। सोशल मीडिया के माध्यम का उपयोग कर मध्य एशिया के देशों में परिवर्तन की जो लहर चली उसने दुनियां भर सरकारों को चौकन्ना कर दिया। भारत सरकार भी उस पर प्रभावी नियंत्रण की योजना बनाती इससे पहले ही अन्ना की टीम ने इसका पहला सफल प्रयोग किया। जंतर-मंतर पर अन्ना के पहले प्रदर्शन के बाद हुए रामदेव के आंदोलन को सरकार ने जिस तरह कुचलने की कोशिश की उससे रामलीला मैदान में अन्ना के अनशन को धार मिली। रामदेव के समर्थकों पर हुई हिंसा के विरोध में सोशल मीडिया पर टिप्पणियों की बाढ़ आ गयी। यही बाढ़ बाद में अन्ना के समर्थन में तब्दील हो गयी।

अब जबकि अन्ना की टीम ने सरकार को दोबारा घेरने की कोशिश शुरू कर दी है, सरकार चाहती है कि सोशल मीडिया की मुश्कें कुछ इस तरह कस दी जायें ताकि आने वाले समय में वह अन्ना के लिये प्लेटफॉर्म न बन सके।

इसी कवायद का एक हिस्सा था संचार मंत्री सिब्बल द्वारा सोशल मीडिया साइट के संचालकों को बुला कर दी गयी कपिल सिब्बल की घुड़की। चिन्ता की बात यह है कि इन साइट संचालकों ने भारत में इसकी चर्चा भी नहीं की। न ही मंत्रालय के भीतर की हलचल सूंघने वाले खोजी खबरियों ने इसे छापा। वाशिंगटन पोस्ट में छपने के बाद भारत की मीडिया में इस पर बावेला मचा।

सोशल साइटों पर लगाम लगाने की सिब्बल की कोशिश को व्यक्तिगत प्रयास नहीं बल्कि सरकार की नीति ही मानना चाहिये। यद्यपि सिब्बल द्वारा उठाये गये प्रश्नों को भी महत्व दिया जाना चाहिये। उनके द्वारा उठाये गये नैतिकता और मूल्यों के सवाल नकार दिये जाने योग्य नहीं हैं और उन पर गंभीर चिंतन आवश्यक है। किन्तु यह कवायद तब अर्थ खो देती है जब लगता है कि यह सरकार की ईमानदार कोशिश के बजाय नागरिकों की जबान बंद करने की कोशिश अधिक है।

सोनिया गांधी के जिस चित्र को उन्होंने लहराते हुए सोशल साइट संचालकों को चेतावनी दी वह उतना अधिक वीभत्स तो नहीं था जितना हिन्दू देवियों का एमएफ हुसैन का बनाया गया चित्र। लेकिन हुसैन के चित्र सरकार की नैतिकता को जगाने में विफल रहे थे। इससे लगता है कि सरकार इसे तूल देकर सरकार अन्ना के आंदोलन का गला घोटना चाहती है।

यदि सरकार को लगता है कि वह इसमें सफल हो सकेगी तो इसकी संभावना बेहद कम है। इसलिये नहीं कि पूरा देश अन्ना के समर्थन में आ खड़ा हुआ है अथवा मध्य एशिया के देशों की तरह क्रांति पर उतर आया है, बल्कि इसलिये, क्योंकि मीडिया और सरकार की लगातार बेरुखी के बाद आम नागरिकों के हाथ एक ऐसा माध्यम आया है जहाँ उनकी समस्याओं का हल नहीं है लेकिन कम से कम बिना किसी प्रतिबंध के अपनी बात कह सकने की आजादी तो है।

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  1. 0 आम आदमी और वीआईपी लोगों के लिये अलग अलग कानून? इंटरनेट के भी सदुपयोग के फायदों के साथ साथ दुरुपयोग के नुक़सान भी मौजूद हैं लेकिन केवल इस एक वजह से अभिव्यक्ति की आज़ादी पर रोक नहीं लगाई जा सकती। हमारे दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल जी सुना है वकील भी हैं। उनको यह भी पता होगा कि 11 अप्रैल 2011 को पास किया गया सूचना प्रोद्योगिकी कानून सोशल नेटवर्किंग साइटों पर होने वाली अश्लील और अपमानजनक गतिविधियों को रोकने के लिये पहले से बना हुआ है। इस कानून की धारा 66 ए के अनुसार सरकार द्वारा शिकायत करने पर आपत्तिजनक सामाग्री हर हाल में 36 घंटे के अंदर हटानी होगी नहीं तो दोषी के खिलाफ सख़्त कानूनी कार्यवाही का प्रावधान है। सवाल उठता है कि जब इस तरह का पर्याप्त साइबर कानून पहले से ही मौजूद है तो फिर सिब्बल साहब ऐसी बात क्यों कर रहे हैं जिससे यह लगे जैसे यह बहुत बड़ी समस्या है कि किसी के इस मीडिया के द्वारा मनमानी करने पर क्या किया जाये? अजीब बात यह है कि आज तक सरकार की तरफ से इस तरह की मांग अपनी तरफ से तो क्या किसी के शिकायत करने पर भी कभी नहीं उठाई गयी जबकि अरब देशों में सोशल नेटवर्किंग साइटों द्वारा तख्तापलट होने और सुपर पीएम सोनिया गांधी के बारे में इंटरनेट पर कुछ आपत्तिजनक सामाग्री डाले जाने के बाद में सरकार हरकत में आई। इससे पहले जब कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने अन्ना हज़ारे जी के बारे में बेसिरपैर के आरोप लगाये थे तो तब सिंह के बारे में इन साइटों पर ऐसी सामाग्री देखने को मिली तो उन्होंनेे इसी साइबर कानून के ज़रिये अपनी एफआईआर थाने में दर्ज करा दी थी। यह बात समझ से बाहर है कि आज सरकार को फेसबुक, ब्लॉग, आरकुट और यू ट्यूब पर अचानक अश्लील, अपमानजनक और धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाली चीज़े कैसे नज़र आने लगीं? यह काम तो इंटरनेट पर लंबे समय से हो रहा है। हम भी यह मानते हैं कि इस तरह की चीज़े वास्तव में गलत हैं और नहीं होनी चाहिये लेकिन जहां तक हमारी जानकारी है न तो किसी धार्मिक संगठन और न ही किसी सामाजिक और राजनीतिक दल ने इस तरह की हरकतों का कभी संज्ञान लिया और न ही इनकी वजह से कोई तनाव, विवाद और दंगा हुआ। दरअसल सवाल नीति नहीं नीयत का है। आम आदमी भूखा प्यासा नंगा कुत्ते बिल्ली की मौत मर जाये तो सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेेंगती लेकिन उसके नेताओं की शान में गुस्ताखी हो या उसकी सत्ता को इन साइटों से ज़रा सा भी ख़तरा महसूस हो तो सरकार फौरन हरकत में आ जाती है। आम आदमी का कोई मान सम्मान और जीवन जीने का बुनियादी संवैधानिक अधिकार नहीं लेकिन नेताओं के राजसी ठाठबाट आज भी बदस्तूर जारी हैं। पीएम का काफिला दिल्ली के एक अस्पताल वाले रोड से गुज़रता है तो मौत और जिं़दगी के बीच झूल रहे अनिल जैन नाम के एक नागरिक की एंबुलैंस सुरक्षा कारणों से रोकने से असमय दुखद मौत हो जाती है। ऐसे ही पीएम कानपुर का दौरा करते हैं तो अमान खान नाम के बच्चे की उनके रोड से न गुज़रने देने से इलाज न मिलने से दर्दनाक मौत हो जाती है। हज़ारों किसान कर्ज में डूबकर अपनी जान दे देते हैं तो कोई बात नहीं। आम आदमी थाने से लेकर तहसील और अदालत से सरकारी अस्पताल तक चक्कर काट काटकर अपने जूते और उम्र ख़त्म कर देता है लेकिन न तो उसकी सुनवाई होती है और न ही उसको न्याय और सम्मान मिलता है। उल्टे उससे रिश्वत लेकर खून चूसने के साथ साथ तिल तिल कर मरने को उसके हाल पर छोड़ दिया जाता है तब हमारे मंत्री जी और नेताओं को सांप सूंघ जाता है। सूचना और प्रोद्योगिकी मंत्री सिब्बल साहब को यह भी पता होगा कि आज तक ऐसा कोई साफ़्टवेयर नहीं बना जो यह पता लगा सके कि कोई आदमी इंटरनेट पर क्या लिखने या फोटो डालने वाला है। वैसे भी अपराध होने के बाद ही अपराधी को सज़ा दी जा सकती है। फिर यह एकमात्र मीडिया है जहां राजा रंक सब बराबर हैं।
    0 मैं वो साफ ही न कहदूं जो है फर्क तुझमें मुझमें,
    तेरा दर्द दर्द ए तन्हा मेरा ग़म ग़म ए ज़माना।

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