समाजवाद पर आधारित लोकतांत्रिक मूल्यों का कैसा स्वरूप है सुशासनी बिहार ?

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-आलोक कुमार-  nitish
सुशासन बाबु (नीतीश कुमार) इसके लिए सदैव प्रयासरत रहते हैं कि देश और बिहार की जनता उन्हें सिद्धांतवादी स्वीकार करे। इसलिए वे बीच-बीच में समाजवाद, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया इत्यादि का नाम भी उच्चारित करते रहते हैं। लेकिन देश की जनता, विशेषकर बिहार की जनता उनकी असलियत से वाकिफ़ हो चुकी है कि उनके खाने के दांत और हैं और दिखाने के और। बिहार में सुशासन बाबू के चरित्र और चाल दोनों की चर्चाएं चरम पर हैं। अपने हालिया बयानों एवं व्यवहार से सुशासन बाबु तो खिसियाकर खंभा नोचते दिखाई दे ही रहे हैं।

सुशासन बाबु एक स्वच्छंद और धृष्ट सामंत की तरह बिहार को चला रहे हैं। जनता ने सुशासब बाबू को परिवर्तन के लिए वोट दिया था लेकिन हुआ ठीक इसके उल्ट सुशासब बाबू की प्राथमिकताएं ही बदल गयीं। सुशासन बाबू ने ये भ्रम पाल लिया है कि वो बिहार की जरूरत हैं और उनके बिना बिहार चल नहीं सकता। दूसरे कार्यकाल के लिए मिले अपार बहुमत ने सुशासन बाबू को अहंकारी बना दिया। आज बिहार में किसी भी योजना या नीति को तय करने में जनप्रतिनिधियों की हिस्सेदारी नहीं के बराबर रह गई है। सुशासब बाबू और उनके चुनिन्दा नौकरशाहों के द्वारा ही सब कुछ तय हो रहा है। लोकतंत्र का कैसा संस्करण है ये ? समाजवाद पर आधारित लोकतांत्रिक मूल्यों का कैसा स्वरूप है ये ?
जनहित से जुड़े मुद्दे भी अहम की भेंट चढ़ रहे हैं, जनभावनाओं को हाशिए पर धकेल दिया गया है। सरकार की कार्यशैली पर जब प्रश्न उठता है तो सुशासन बाबू का जबाव होता है कि “लोग भ्रम में न रहें, सब ठीक चल रहा है।” सुशासन बाबु के द्वारा लगाए जाने वाले जनता दरबार से जनता का मोहभंग हो चुका है। सुशासनी सरकार प्रायोजित मीडिया के द्वारा अपने काम को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित कर रही है। एक सोची-समझी रणनीत और कुत्सित राजनीति के तहत एक भ्रम की स्थिति पैदा की जा रही है सुशासन बाबु के द्वारा। मूलभूत समस्याएं यथावत हैं। भ्रष्टाचार का स्वर्णिम काल है। उपरनिष्ठ विकास को समग्र विकास का जामा पहनाने की कवायद जारी है जो आने वाले दिनों में ऐसा भयावह रूप धारण करेगा कि स्थिति संभाले नहीं संभलेगी। सूचना के अधिकार के माध्यम से हासिल आंकड़ों को अगर देखें तो ये साबित हो जाएगा कि कानून व्यवस्था के सुधार के संबंध में जो आंकड़े सुशासन बाबु के द्वारा पेश किए जा रहे हैं, उन आंकड़ों का हकीकत से कोई वास्ता नहीं है। सुशासब बाबू के बहुप्रचारित विकास की आड़ में सत्ता की लूट का विभाजन बड़े ही कौशल के साथ किया गया है और तथाकथित सड़क निर्माण और ऐसे ही अन्य कार्यों में संगठित ठेकेदारी राज का बोल-बाला है। विकास का कोई भी मॉडल कृषि व किसान को नजरअंदाज कर बनाया जा सकता है क्या? बिहार का किसान और उसकी समस्याएं सुशासनी एजेन्डे में फ़ाईलों तक ही सीमित हैं।
सुशासन बाबू के शासनकाल में बिहार में एक नई परंपरा की शुरुआत हुई है विरोध प्रदर्शनों व प्रजातांत्रिक अधिकारों का दमन। जमकर लाठियां चलवाई जाती हैं और प्रदर्शनकारियों को जेल भेज दिया जाता है जबकि सुशासन बाबु ख़ुद ऐसी ही राजनीति की पैदाइश हैं। सुशासन बाबु को शायद ये खुद भी अहसास होगा कि उन्होंने इन पांच सालों में एक भी ऐसा काम नहीं किया, जिसके दूरगामी सामाजिक व राजनैतिक परिणाम हों। प्रजातांत्रिक आंदोलन, विचारधारा और मूल्यों की बड़ी-बड़ी बातें करना और उन पर अमल नहीं करना इसके सटीक उदाहरण हैं सुशासन बाबू।

विगत कुछ वर्षों से बिहार के सभी समाचार-पत्र “सुशासन (नीतीश) चालीसा” मय हैं। कुछ पढ़ने के लिए है ही नहीं ” महिमा-मण्डन और गुणगान के सिवा “। अब तो संशय होता है कि कहीं गोस्वामी तुलसीदास और संकट-मोचन भगवान बजरंगबली के बीच भी कहीं कुछ “लेन-देन” हुआ होगा “हनुमान चालीसा ” लिखने के एवज में..! “अपने मुंह मियां मिट्ठु” बनते सर्वत्र नजर आ रहें हैं सुशासन बाबू। मीडिया के सहयोग से मिथ्या का ऐसा खूबसूरत प्रस्तुतिकरण करते दिख रहे हैं कि “सत्य भी बगलें झाँकने पर मजबूर है”।
हमारे धर्म-शास्त्रों में कहा गया है कि

न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति
न स्त्रीषु राजन् न विवाहकाले ।
प्राणात्यये सर्वधनापहारे
पञ्चानृतान्याहुरपातकानि ॥
अर्थात ” मज़ाक में, पत्नी के पास, विवाह के वक्त, प्राण जाने का प्रसंग हो तब, और सब लुट जानेवाला हो तब इन पांच अवसर पर झूठ बोलने से पाप नहीं लगता।” इनमें से  कोई भी परिस्थिति सुशासन बाबू के साथ नहीं है। मजाक तो उनके स्वभाव में है ही नहीं सदैव भृकुटि तनी ही रहती है, धर्म-परायण पत्नी स्वर्गवासी हो चुकी हैं , विवाह का भी शायद कोई संयोग अब नहीं दिखाई देता है और वैसे भी इस पचड़े में पड़ने की उन्हें आवश्यकता भी क्या है ? आज कल तो “ONE NIGHT STAND” का जमाना है, भगवान ना करे कि उनके प्राण जाएं “दीर्घायु” हों वो, वैसे भी अब “अधिकार-यात्रा” का दौर समाप्त हो चुका है। इस यात्रा के दौरान उन्होंने ऐसी ( प्राण जाने की) शंका जताई थी और अंत में ” सबकुछ लुटने ” में भी अभी लगभग डेढ़ साल से ऊपर का समय बाकी है फ़िर भी ना जाने क्यूं वो प्रदेश ( बिहार ) की जनता के सामने झूठ पर झूठ बोलने का पाप कर रहे हैं। शायद दुविधा-ग्रस्त हैं कि कहीं सत्य बोलकर “राजनीतिक बिरादरी के पहले” युधिष्ठर” होने का “पाप” ना कर बैठें !

सुशासन बाबू ने ‘अहंकार’ में केवल समाजवाद के स्वरूप पर ही प्रश्नचिन नहीं खड़ा किया अपितु समाजवादी राजनीतिको ही कठघरे में खड़ा कर दिया। समाजवाद की मूल विचारधारा में ना ही “अहंकारी शासक ” का कोई स्थान है ना ही गैरजिम्मेदाराना तरीके से शासन का संचालन का। अब  ये स्पष्ट हो चुका है कि सुशासन बाबु की प्रतिबद्धता जनहित ,राज्यहित या समाजवाद से नहीं है , इनकी प्रतिबद्धता इनकी अपनी महत्वाकांक्षा है। महत्वाकांक्षा से वशीभूत होकर दुविधाग्रस्त, दिशाहीन और दिग्भ्रमित शासक से जनहित व राज्यहित की आशा बेमानी है।

क्या यही तुम्हारा राजधर्म है ओ बिहार के राजा,
त्र्स्त बिहार की जनता का तुमने बजा दिया है बाजा !

नीति और नैतिकता की बातें अपनी वाणी पर मत ला ,
छोड़ प्रजा को मरता तुम बजा रहे रहे हो सियासत का बाजा ?

आलोक कुमार , पटना.

2 COMMENTS

  1. मैं कभी भी नीतीश का समर्थक नहीं रहा क्योंकि वे एक धूर ब्राह्मण या उच्च जाती के विरोधी रहे हैं जो किये भी राजनेता के लिए अच्छा नहीं है की वह किसी जाति या वर्ग विशेष का विरोधी या समर्थक हो —पर आजके उनके अधिकांश विरोधी कल तक उनके समर्थक थे और किशी भी सुशासन या कुशासन का उनके सहयोगियों को भी सहभाग लेना चाहिए वैसे मेरे मिथिला के लिए जितना लालू विरोधी उतना ही नेिश या बिहार का कोई भी बिहारी नेता …

  2. नीतीश बाबू जो कह दे कर दे वह सुशासन , बाकी सब करें तो वह कु शासन.आज देश में समाजवाद झंडाबरदार दो ही व्यक्ति है नीतीश बाबू, और मुलायमसिंह.लगता है समाजवाद का जनज इस देश से ये ही उठवायेंगे.जे पी , लोहिआ का तो नाम अब संकट में पार पाने के लिए जपा जाता है जैसे कांग्रेस गांधीजी को जपती है.या अन्यलोगों को जब उन पर उनके हितों पर संकट आता है तो धरने या अनशन पर बैठने के लिए राजघाट पर धोक लगाने जाना जरुरी समझता है.इसलिए सुशासन बाबू का भी कोई कसूर नहीं.वे भी लालू को बिहार वैसा ही सौंपेंगे जैसा लालू ने उन्हें दिया था.यदि लालू पार्टी जीती तो.?

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