‘जीवात्मा विषयक कुछ रहस्यों पर विचार’

1
408

मनमोहन कुमार आर्य,

मैं कौन हूं और मेरा परिचय क्या है? यह प्रश्न सभी को अपने आप से पूछना चाहिये और इसका युक्तिसंगत व सन्तोषजनक उत्तर जानने का प्रयत्न करना चाहिये। यदि आप इसका उत्तर नहीं जानते तो आपको इसकी खोज करनी चाहिये। विद्वानो से आत्मा विषयक ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश व उपनिषद, दर्शन सहित वेद आदि का स्वाध्याय करना चाहिये तो आपको इसका सत्य व यथार्थ उत्तर मिल सकता है। हम इस लेख में जीवात्मा के निवास संबंधी प्रश्नों पर विचार करते हैं। हम शरीर के रूप में दिखाई देते हैं परन्तु हम शरीर नहीं अपितु इसके भीतर हृदय गुहा में विद्यमान चेतन जीवात्मा है।। हमारा जीवात्मा एक अनादि चेतन सत्ता है जो अल्पज्ञ, सत्-चित्त, आकार रहित, सूक्ष्म, ससीम, एकदेशी, अनुत्पन्न, अविनाशी, जन्म-मरण धर्मा सत्तावान् तत्व वा पदार्थ है। मृत्यु के बाद व गर्भाधान तक इसकी उपस्थिति का अनुभव नहीं होता है। जन्म लेने के बाद यह भली प्रकार से प्रकट होता है व दूसरों के द्वारा कुछ-कुछ जाना जाता है। प्रश्न होता है कि जीवात्मा शरीर में आता कहां से हैं? कहां इसका निवास था जहां से यह मनुष्य व अन्य प्राणियों के शरीरों में आया है वा आता है? यह अपने आप तो आ नहीं सकता तो फिर कौन इसको शरीर में लाता है और कैसे यह माता जिससे इसका जन्म होना होता है, उसके गर्भ में प्रविष्ट कराता है? इन उत्तरों का ज्ञान हो जाने पर हम अपने विषय में परिचित हो सकते हैं और ऐसा होने पर हम अपने जन्म के उद्देश्य व लक्ष्य पर भी विचार कर उसे जानकर उसके अनुरूप कर्म व प्रयत्न करना भी निश्चित कर सकते हैं। मैं कौन हूं, प्रश्न का उत्तर है कि मैं जड़ नहीं अपितु एक सूक्ष्म, अनादि, चेतन पदार्थ हूं जिसका उल्लेख हम पहले कर चुके हैं। मैं जड़ कदापि नहीं हो सकता क्योंकि मुझमें सुख व दुःख की संवेदनायें हैं जो कि निर्जीव व जड़ पदार्थों में नहीं होती हैं। मेरा वा जीवात्मा का कुछ परिचय उपर्युक्त पंक्तियों में आ चुका है। अब जीवात्मा माता के शरीर में कहां से आता है इस पर विचार करते हैं।

जीवात्मा पूर्वजन्म में मृत्यु हो जाने के पश्चात अपने सूक्ष्म शरीर सहित आकाश व वायु में रहता है। यह अजर व अमर है, अतः अग्नि का भी इस पर कुछ प्रभाव नहीं होता। मृत्यु के बाद इसे सुख व दुःख किसी प्रकार की कोई संवेदना व अनुभूति नहीं होती। इसका कारण हैं कि सुख व दुःख शरीर व ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा अनुभव किये जाते हैं। स्थूल शरीर व ज्ञान-कर्म-इन्द्रियों के न होने से मृत्यु के बाद जीवात्मा को किसी प्रकार के सुख व दुःख व पूर्वजन्म की स्मृतियां आदि नहीं रहती। पूर्वजन्म से मृतक जीवात्मा का सम्बन्ध पूर्णतः टूट चुका होता है। अतः इसे एक सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान परमात्मा की आवश्यकता होती है जो इसे इसके पूर्वजन्म वा जन्मों के अवशिष्ट कर्मों जिनका भोग नहीं हुआ है, के अनुरूप मनुष्यादि किसी योनि में जन्म दे। सर्वव्यापक परमात्मा जीवात्मा की इस आवश्यकता की पूर्ति करता है और इसका जन्म इसके पूर्वजन्मों के भोग न किए हुए कर्मों के आधार पर मनुष्यादि किसी प्राणी योनि में देते हैं। अतः जीवात्मा का जन्म से पूर्व निवास स्थान आकाश, आकाशस्थ वायु व अग्नि अथवा जल में होना ही सम्भव है। वहीं से यह ईश्वर की प्रेरणा से पिता के शरीर व उसके बाद माता के शरीर में प्रविष्ट होकर गर्भकाल पूरा करके शिशु शरीर बन जाने पर जन्म धारण कर उत्पन्न होता है। आत्मा क्योंकि एक अत्यन्त सूक्ष्म निरवयव पदार्थ है अतः इसका मनुष्यों के समान एक स्थान पर निवास नहीं होता। यह आकाश में कहीं भी रह सकता है और परमात्मा की प्रेरणा से अपने भावी पिता व माता के शरीर में प्रविष्ट होकर जन्म लेता है। यह हम सबकी एक जैसी कहानी है। हमारे सबके साथ शरीर में आने से पूर्व ऐसी ही प्रक्रिया सम्पन्न हुई है और जब मृत्यु होगी तो पुनः इसी प्रक्रिया से हमारा नया जन्म जिसे पुनर्जन्म कहते हैं, होगा।

जीवात्मा जन्म-मरण धर्मा है ऐसा संसार में हम प्रत्यक्ष देखते हैं। हम प्रतिदिन बच्चों के जन्म लेने व बड़ों की मृत्यु के समाचार सुनते रहते हैं। इससे जीवात्मा का जन्म-मरण धर्मा होना प्रत्यक्ष प्रतीत होता है। जन्म परमात्मा से मिलता है और मृत्यु अर्थात् आत्मा का शरीर त्याग भी परमात्मा की प्रेरणा शक्ति से होता है। जीवात्मा का जन्म क्यों होता है? इसका सरल उत्तर है जीवात्मा का कर्म पूर्वजन्मों के कर्मों के फलों को भोगने अर्थात् उनके अनुसार सुख व दुःख भोगने के लिये होता है जिसे हमें ईश्वर प्रदान करता है। परमात्मा के सभी नियम अटल व अबाध हैं। कोई मनुष्य महापुरुष, अवतार, संदेशवाहक, ईश्वर-पुत्र ईश्वर के नियमों को न तो किंचित बदल सकता है और न उन्हें पूरी तरह समझ ही सकता है। कोई अपने को व अपने मत-पन्थ के आचार्यों को कुछ भी कहे, सृष्टि-क्रम के विरुद्ध उनकी कथा व कहानियां बनाकर प्रचारित करता रहे, परन्तु ज्ञान व विज्ञान विरुद्ध कोई भी बात सत्य नहीं होती। यह भी वास्तविकता है कि मत व पन्थों की नींव ज्ञान व अज्ञान दोनों पर आधारित है। मत व पन्थों के अनुयायी ऐसे लोग अधिक होते हैं जिनकी बुद्धि की शक्ति अत्यन्त दयनीय व न्यून होती है। कुछ समझदार लोग मत-मतान्तरों की मिथ्या मान्यताओं को जानकर भी चुप रहते हैं क्योंकि उनमें मत-मतान्तरों का विरोध करने की शक्ति नहीं होती। आजकल तो मत-मतान्तरों की प्रत्यक्ष व अज्ञानसिद्ध बातों का विरोध करना अत्यन्त दुष्कर कार्य हो गया है। कहने को कोई कुछ भी कहे परन्तु सभी मत-मतान्तरों में सहनशक्ति न के बराबर है और हिंसा की प्रवृत्ति किसी में कुछ कम तो किसी में अधिक प्रत्यक्ष दिखाई देती है। मत-मतान्तरों के आचार्यो व उनके अनुयायियों का कथन व उनके आचरण दोनों में अन्तर दिखाई देता है। ऋषि दयानन्द का सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ पढ़कर मनुष्य के सभी भ्रम दूर हो जाते हैं और यह सिद्ध हो जाता है कि ईश्वर एक है तथा धर्म भी एक है जो जीवात्मा व मनुष्य के सत्य कर्तव्यों को कहते हैं। जो सत्य है वही धर्म है और असत्य है वही अधर्म है। अकर्तव्य व असत्य कर्म पाप की श्रेणी में आते हैं। उसे किसी भी मत का व्यक्ति करता है तो वह पाप ही होगा। सभी मतों के आचार्यों के अनुयायियों के लिये धर्म व पाप समान हैं, इसी कारण सबका धर्म भी एक ही है। सत्य बोलना सभी मत वालों के धर्म है और अकारण, स्वार्थ-पूर्ति व किसी मत-पुस्तक से भ्रमित होकर जो असत्य बोलते व आचरण करते हैं, वह अधर्म व पाप ही होता है जिसका फल मनुष्य को ब्रह्माण्ड के एकमात्र ईश्वर की व्यवस्था से साथ-साथ वा कालान्तर में भोगना ही होता है।

जीवात्मा जन्म व मरण के बन्धन में पड़ा हुआ है। जन्म मरण के बन्धन व दुःखों से छूटने के लिये अपने पूर्व किये पाप कर्मोंं का क्षय करना होगा। यह कर्म क्षय पाप कर्मों के भोग के द्वारा ही सम्भव है। इसका अन्य कोई उपाय नहीं है। पाप कर्मों का क्षय करने के साथ भविष्य में सभी पाप कर्मों को जानना व उन्हें न करना भी जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त करता है। इसके साथ पुण्य कर्मों व सत्य धर्म के पालन के लिये वेद व ऋषियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय भी आवश्यक है। सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय से मनुष्यों को सत्यासत्य का ज्ञान होता है। सत्य कर्मों को करके ही पुण्य में वृद्धि व पूर्व के पाप कर्मों के भोग से उनका क्षय होता है। सत्य कर्मों में एक कर्म ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना व सन्ध्या करना भी है। इससे ईश्वर के हम पर जो अनेक ऋण हैं, उसकी किंचित निवृत्ति होती है। हम कृतघ्नता के दोष से बचते हैं। ईश्वर से हमें दुःख सहन करने की शक्ति व सद्कर्म करने की प्रेरणा व शक्ति दोनों ही सन्ध्या व उपासना से मिलती हैं और इसके साथ ही ईश्वर दुष्टों व असत्य से हमारी रक्षा भी करता है। ईश्वर हमारी रक्षा तभी करेगा जब हम सतपथानुगामी व धर्मपालक होंगे। अतः हमें धर्म का पालन करना ही चाहिये।

जीवात्मा एक शाश्वत, नित्य, सनातन, अनादि, अनुत्पन्न, सत्य-चित्त्, अजर, अमर, सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम, ईश्वर को जानने की क्षमता वाली, ईश्वरोपासना सहित यज्ञ आदि श्रेष्ठ कर्मों को करने वाली एक पवित्र सत्ता है। यह शरीर के भीतर व बाहर के आकाश में रहती है। जन्म व मृत्यु के बन्धनों में आबद्ध है। ज्ञान व तदनुकूल कर्म से ही यह बन्धनों से मुक्त होती है। बन्धनों से मुक्त अर्थात् दुःखों से मुक्त होने के लिये इसे ईश्वरोपासना करते हुए समाधि अवस्था को प्राप्त होकर ईश्वर का साक्षात्कार करना आवश्यक है। समाधि को प्राप्त जीवात्मा ही विवेक ज्ञान से युक्त होकर मोक्षगामी बनती है। मोक्ष अर्थात् जन्म मरण से अवकाश व ईश्वर के सान्निध्य में आनन्द का भोग ही जीवात्मा का लक्ष्य है। मोक्ष पवित्र कर्मों सहित साधना से प्राप्त होता है। ऋषि दयानन्द व उनसे पूर्व के सभी ऋषि-मुनि मोक्ष मार्ग पर ही चले थे। स्वामी दयानन्द के अनुयायियों स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त, पं. लेखराम, महात्मा हंसराज जी आदि ने मोक्ष मार्ग का ही अनुसरण किया था। सभी मनुष्यों को वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन करते हुए ईश्वरोपासना, यज्ञ, दान, परोपकार, दीन-दुखियों की सेवा, योग साधना आदि कार्यों को निरन्तर करना चाहिये। यही मार्ग उन्नति व सुख का मार्ग है। जीवात्मा को यथार्थ सुख व आनन्द ईश्वर भक्ति व स्वाध्याय आदि कार्यों से ही मिलता है। अतः हमें जीवात्मा के स्वरूप को जानकर इसको मोक्षमार्गी बनाना है। वह लोग धन्य हैं जो सत्यार्थप्रकाश व वेद आदि ग्रन्थों को पढ़ते हैं व उनके अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं।

1 COMMENT

  1. बेहतरीन जानकारी प्राप्त करने का अवसर मिला जिसके लिए लेखक को कोटिशः धन्यवाद.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,043 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress