सोवियत रूस में क्रांति का ऐसा हश्र क्यों हुआ?


डॉ. वेदप्रताप वैदिक

रुस में हुई साम्यवादी सोवियत क्रांति को पूरे 100 साल हो गए।  इसे 7 नवंबर को मनाया जाता है लेकिन रुसी भाषा में इसे ‘अक्ताब्रिस्काया रिवलूत्सी’ याने अक्तूबर क्रांति कहते हैं। इस क्रांति को पिछले सौ साल की सबसे बड़ी घटना कहा जा सकता है। दुनिया के कई अन्य देशेां में भी क्रांतियां हुईं, रुस से बड़े देश चीन में भी हुई लेकिन सोवियत क्रांति विश्व इतिहास की एक बेजोड़ घटना थी। यह घटना 1917 में घटी थी, जबकि पूरा यूरोप प्रथम महायुद्ध में उलझा हुआ था। यूरोप के पांचों साम्राज्य- रुस की ज़ारशाही, आस्ट्रो-हंगेरियाई, जर्मन, तुर्क और ब्रिटिश साम्राज्य अंदर से हिल रहे थे। ऐसे में व्लादिमीर इलिच लेनिन के नेतृत्व रुस में जो खूनी क्रांति हुई, वह वैसी नहीं थी, जैसे फौजी तख्ता-पलट हमारे पड़ौसी देशों में होते रहते हैं। वह विचार पर आधारित क्रांति थी। वह कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजिल्स के साम्यवादी विचारों पर आधारित थी। इस अर्थ में वह फ्रांस की राज्यक्रांति (1789) से भी अलग थी।

मार्क्सवादी दर्शन की व्याख्या करना यहां संभव नहीं है लेकिन जैसा कि मार्क्स ने अपने ‘कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र’ (1848) में कहा था, साम्यवादी क्रांति का लक्ष्य उत्पादन के साधनों पर विश्व के मजदूरों का अधिपत्य कायम करना था और पूंजीवाद की कब्र खोद देना था। एक नई समतामूलक संस्कृति को जन्म देना था। समाज को वर्गविहीन बनाना और विश्व विजय करना था। इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए मार्क्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, वर्ग संघर्ष और अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत प्रतिपादित किए और हिंसक क्रांति का समर्थन किया। मार्क्स के जीते-जी तो कुछ नहीं हुआ लेकिन उनके जाने के 30-35 साल बाद रोज़ा लक्समबर्ग, लियोन त्रॉत्सकी और लेनिन जैसे नेताओं ने उनके विचार को आगे बढ़ाया और रुस में क्रांति कर दी।

इस क्रांति का असर विश्व-व्यापी हुआ। पूर्वी यूरोप के कई देश यूगोस्लाविया, चेकोस्लोवाकिया, हंगेरी, पोलैंड, पूर्वी जर्मनी आदि साम्यवादी हो गए। पश्चिम में क्यूबा और पूरब में चीन तक लाल हो गए। भारत, फ्रांस, इंडोनेशिया, ब्रिटेन, वियतनाम, अफगानिस्तान और एराक जैसे कई देशों के नेताओं पर लाल नहीं तो गुलाबी रंग तो चढ़ ही गया। पूंजीवाद की टक्कर में समाजवादी लहर सारी दुनिया में चमकने लगी। साम्यवादी क्रांति के नाम पर खून की नदियां बहीं। लगभग 10 करोड़ लोग मारे गए। कई देशों के परंपरागत सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ढांचे चकनाचूर हो गए। लगभग 50 साल तक सारा विश्व शीतयुद्ध की चपेट में सिहरता रहा।
लेकिन साम्यवादी क्रांति के इस शताब्दि वर्ष में हमें यह सोचने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है कि यह क्रांति सिर्फ 70-80 साल में ही दिवंगत क्यों हो गई ? चीन अपने आप को आज भी साम्यवादी कहता है लेकिन सिर्फ कहने के लिए ! चीन की दुकान पर बोर्ड साम्यवाद का लगा है लेकिन माल अब वहां पूंजीवाद का बिकता है। माओ के बाद तंग श्याओ फिंग और शी चिन फिंग ने चीन की शक्ल ही बदल दी। उन्होंने साम्यवाद के मुंह में पूंजीवाद के डेंचर लगा दिए हैं।

मार्क्स और लेनिन की क्रांति कुछ ही देशों में सिमटकर क्यों रह गई ? यह विश्व धर्म क्यों नहीं बन पाई ? जिन देशों में भी यह हुई, वहां से भी इसे विदा क्यों होना पड़ा? इसका पहला कारण, जो मुझे समझ पड़ता है, वह यह है कि यह क्रांति मानव स्वभाव के विपरीत थी। हिंसा से ज़ार या च्यांग काई शेक का तख्ता पलट दिया गया, यह तो ठीक है लेकिन आम जनता पर भी उसी हिंसा को थोपे रखना बिल्कुल अव्यवहारिक सिद्ध हुआ। लाखों-करोड़ों लोग तानाशाही फरमानों के आगे मजबूरी में सिर टेकते रहे लेकिन उन्होंने साम्यवादी व्यवस्था को दिल से कभी स्वीकार नहीं किया। मानव जीवन में राज्य की भूमिका काफी कम और परिवार व समाज की भूमिका काफी ज्यादा होती है लेकिन राज्य को पूर्णरुपेण खत्म करने का दावा करनेवाले कम्युनिस्टों ने रुस में राज्य को एक महादैत्य का रुप दे दिया। इस महादैत्य ने सोवियत साम्राज्य को ही कच्चा चबा डाला।

दूसरा कारण कम्युनिस्ट पार्टी का सर्वेसर्वा बन जाना रहा। सोवियत और चीनी साम्यवादी व्यवस्था में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की कोई कीमत नहीं होती। सारे तालों की चाबी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव की जेब में रहती है। उसकी उंगलियों पर सबको नाचना पड़ता है। पार्टी के अधिकारियों को मैंने रुस में बड़े-बड़े धन्ना-सेठों की तरह ठाट-बाट से रहते हुए देखा है। उनके बंगले (दाचा) और उनकी कारों (स्कदा) को मैंने सोने से मढ़े हुए देखा है। वे अहंकार में डूबे हुए और आम जनता के सुख-दुख से कटे हुए लोग होते हैं। उनके भ्रष्टाचार पर कोई अंकुश नहीं होता। इन देशों की संसदें और विधानसभाएं रबर के ठप्पे से ज्यादा कुछ नहीं होती। दस दिन के सत्र में सैकड़ों कानूनों के लिए ये लोग हाथ उठा-उठाकर स्वीकृति देते जाते हैं। विपक्ष के नाम पर शून्य होता है। लेनिन और स्तालिन के पोलितब्यूरो के ज्यादातर सदस्यों की हत्या हो गई या वे जेलों में सड़ते रहे। लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों, विद्वानों को पार्टी नेताओं की तारीफ में कसीदे काढ़ने के अलावा क्या काम रहता है। इसीलिए जब सोवियत व्यवस्था के खिलाफ बगावत हुई तो रुसी लोगों ने राहत की सांस ली। मैंने ख्रुश्चौफ और गोर्वाचौफ दोनों का रुस अपनी आखों से देखा है। कम्युनिस्ट पार्टी के कमजोर होते ही रुस भी टुकड़े—टुकड़े हो गया।

इसमें शक नहीं कि रुस में जारशाही, चीन में च्यांग कोई शेक और क्यूबा में बतिस्ता के खात्मे के बाद दबे-पिसे, वंचित, शोषित और पीड़ित लोगों ने राहत की सांस ली थी और उनकी आर्थिक स्थिति सुधरी थी लेकिन उसकी तुलना में पूंजीवादी देशों के इन्हीं वर्गों की स्थिति बेहतर हो गई थी। इसलिए मार्क्स की ‘सर्वहारा’ क्रांति की जड़े जमी़ ही नहीं। संसार के सर्वहारा तो एक क्या होते, किसी एक देश के सर्वहारा ने भी पूंजीवादी व्यवस्था का चक्का जाम नहीं किया। साम्यवादी क्रांति के दम तोड़ने का तीसरा कारण यह था।

मार्क्सवादी क्रांति के परवान नहीं चढ़ने का चौथा कारण यह भी था कि दुनिया में खेमेबाजी शुरु हो गई। शीतयुद्ध छिड़ गया। एक नाटो-समूह बन गया और दूसरा वारसा-समूह। एक का नेता अमेरिका और दूसरे का रुस ! रुस ने शीतयुद्ध में अपनी शक्ति का बड़ा हिस्सा गवां दिया। और फिर चीन ने भी अपनी अलग राह पकड़ ली। यूगोस्लाविया और चेकोस्लावाकिया में भी बगावत हो गई। गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों ने अपना अलग रास्ता पकड़ लिया। साम्यवादी सपना लुट-पिटकर रह गया।
रुस, चीन और क्यूबा की अपनी मजबूरियों के कारण वहां की क्रांतियां विफल हुईं लेकिन भारत, पाकिस्तान, नेपाल, अफगानिस्तान जैसे देशों में कम्युनिस्टों का क्या हाल है ? इन देशों में कुछ दशकों पहले तक कम्युनिस्टों ने अपनी कुछ सरकारें बनाईं, लोकतांत्रिक और तख्ता-पलट तरीकों से लेकिन अब तो हाल यह है कि वे आखिरी सांसे गिन रही हैं। वे सच्चे मार्क्सवादी अर्थों में कम्युनिस्ट कभी रही ही नहीं। वे अपने देश की स्थानीय परिस्थितियों के मुताबिक ढल ही नहीं सकीं। न वे इधर की रहीं और न ही उधर की! जो भी हो, विफल होने के बावजूद इतिहास में मार्क्सवाद और रुसी क्रांति का स्थान अप्रतिम रहेगा, क्योंकि उन्होंने मानव जाति को अनेक नए सपनों और संभावनाओं से ओत-प्रोत किया है।

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