व्यंग्य/हिंदी के श्रद्धेय पंडे

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panditइधर पितृ श्राद्धों का पखवाड़ा खत्म भी नहीं हुआ कि हिंदी श्राद्ध का पखवाड़ा षुरू हो गया। पंडों का फिर अभाव। श्राद्ध पितरों का हो या हिंदी का। भर पखवाड़ा श्रद्धालु पितरों और हिंदी की आवभगत पूरे तन से करते हैं। जिस तरह से पितृ श्राद्धों में कौवे खा खा कर तंग आ जाते हैं वैसे ही हिंदी के श्राद्ध पक्ष में हिंदी के कौवे भी खा खाकर तंग आ जाते हैं। कभी इस विभाग में हिंदी का श्राद्ध तो कभी उस विभाग में। हिंदी के इन श्राद्धों के दिनों में तो कई बार पर्याप्त पंडे ही नहीं जुट पाते। पर करें क्या साहब! हिंदी का श्राद्ध तो हर हाल इन्हीं दिनों होना है। हिंदी के श्राद्ध के लिए रखे फंड को हर हाल में खर्च होना है। साल में केवल इन्हीं दिनों हिंदी के नाम पर रोना है। फिर तो केवल अंग्रेजी को ही हिंदी की पीठ पर ढोना है।

कल उनका फोन आया था, ‘नाइन फोर वन एट जीरो सैवन जीरो जीरो एट नाइन ही न?’

‘जी!’ अड़ोस पड़ोस के पितरों के श्राद्ध खा खाकर खतरे के निशान से ऊपर तक पेट भरा हुआ था, बड़ी मुश्किल से आवाज निकाली। सच कहूं! कई बार अपने को पंडा घोषित करना भी पंगे का काम हो जाता है।

‘ओह! आर यू गौतम ही न?’

‘जी, पर आप महाशया कौन?’

‘वैल, आई एम स्पीकिंग वही हिंदी लवर मिस, सॉरी मैम….. पहचाना….’

‘जी, अच्छा आप बोल रही हैं आप। कहिए कैसे याद किया?’ श्राद्ध खा खाकर पेट तो कम्बख्त इन दिनों भारी हो ही जाता है मुआ दिमाग भी भारी हो जाता है।

‘कल हिंदी का श्राद्ध घर में रखा था, आप आते तो श्राद्ध में चार चांद लग जाते।’ उनकी आवाज में कमल के फूल से भी सौ गुणा अधिक कोमलता। हाय रे श्रद्धेय कौवे!

‘पर आपको तो पता ही है कि मैं पितरों के श्राद्ध खाने में सिद्धहस्त हूं। हिंदी का श्राद्ध खाने का मैं हकदार नहीं मानता खुद को।’

‘पर आपके बारे तो मिस्टर ठाकुर ने बताया था कि आप हिंदी के श्राद्ध की भी अथारिटी हैं। वास्तव में जो अपने को हिंदी का श्राद्ध खाने का हकदार नहीं मानते वही तो असल में हिंदी का श्राद्ध खाने के सही पात्र होते हैं। सरकारी आयोजनों में नहीं जाते?’

‘वो तो यों ही कभी-कभार जा आता हूं। अनाप षनाप कहे चार पैसे बन जाते हैं ।’

‘गुड! तो आप सरकारी कौवे हैं। मतलब सरकारी साहित्यकार। असल में क्या है न कि जो रीतिकाल में दरबारी थे वे देश आजाद होने के बाद सरकारी के रूप में इस देश में पैदा हुए। चुटकुले आदि भी नहीं लिखे आपने आज तक?’

‘जी नहीं। पर चुटकुले साहित्य में आते हैं क्या?’

‘वही तो ठेठ साहित्य हैं।’

‘और चुराए हुए चुटकुले??’

‘चुराने का नाम ही तो विशुद्ध साहित्य है। दिल में कभी दर्द नहीं जागा आपके? कभी कोई प्रेम पत्र- पुत्र लिखे हो?’

‘क्या प्रेम पत्र भी साहित्य की कोटि में आते हैं?’

‘वही तो साहित्य की अनमोल धरोहर होते हैं डियर।’

‘तो वह तो आज भी चार बच्चों का बाप होने के बाद भी बच्चों की कापियों से पेज फाड़कर पूरे जोष खरोष के साथ लिख लेता हूं।’ उच्चकोटि के साहित्यकार की जो यही पहचान हो तो मैं अपने को साहित्यकार कहने से काहे डरूं।

‘देखा न, राइटर की यही तो पहचान होती है कि वह अपने को राइटर नहीं कहता, पर होता है।’ उन्होंने जिस मधुरता से कहा कि दिल में सोया राइटर जाग गया। मैंने पेट से बाहर को आती खीर को दबाते कहा, ‘हिंदी के श्राद्ध में बना क्या रही हो?’

‘जो राइटर लोग कहेंगे। मैं नहीं चाहती की इस मौके पर खाने पीने में कोई कमी रह जाए। यही दिन तो होते हैं राइटर के पेट भर खाने के। अब जब आप भी हिंदी प्रेमी हो तो आपसे छुपाना क्या! हिंदी श्राद्ध तो बस एक बहाना है। हमें तो बस हिंदी का रोना रोकर अखबारों में अपना नाम छपवाना है।’

‘तो रूमाल साथ लेता आऊं कि आपके यहां ही मिल जाएगा?’

‘वहां सबकुछ मिलेगा पर केवल हिंदी नहीं मिलेगी। प्रेस नोट मैंने बना लिया है। आजकल पितृ हिंदी भी तब तक प्रसन्न नहीं होती जब तक अखबार में उसके श्राद्ध की खबर अंग्रेजी में न छपे।’

‘तो ऐसा करेंगे कि प्रेस नोट अपने आप ही दे आएंगे अखबार वालों को। गैर सरकारी श्राद्ध में वे आने से ऐसे भी परहेज ही करते हैं।’

‘तो आपका आना तय समझू??’

‘एक रिक्वेस्ट है।’ मैंने कहा तो वे कुछ डरी सीं।

‘प्लीज़!!’

‘खाने में जरा चटकदार ही बनाइए। इन पितृ श्राद्धों ने कम्बख्त मुंह का जायका बिगाड़ कर रख दिया है।’

‘कहा न। खाने में आपको कोई शिकायत नहीं होगी। पर आइएगा तन से साहित्यिक वेष में ही। मैं हिंदी से उऋण होना चाहती हूं बस।’

-अशोक गौतम

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