-श्रीराम तिवारी-
- यदि ईमानदार पड़ताल की जाए तो स्पष्ट परिलक्षित होगा कि शासन प्रणाली चाहे जो भी हो किन्तु सामूहिक नेतत्व के अभाव में देवता भी मनमानी करने लगते हैं। प्रायः पाया गया है कि किसी भी प्रकार की राज्य सत्ता के व्यक्तिवादी निरंकुश व् वर्चस्ववादी निजाम में तीन प्रकार के ‘स्टेक होल्डर्स ‘ हुआ करते हैं । एक तो वे जो व्यवस्था में समानता -न्याय -स्वतंत्रता का प्रवेश वर्जित मानते हैं। ऐंसे क्रूर शासक प्रायः विज्ञान के पैदायशी शत्रु हुआ करते हैं। इन्हें जनतंत्र, बहुलता ,तार्किकता ,वैज्ञानिकता और सकारात्मक परिवर्तनीयता से घोर चिढ़ है। इस कोटि के शासक – नेता, मंत्री, अफसर इस भूतल के तयशुदा वैज्ञानिक विकाशवादी सिद्धांत का कहकहरा भले ही न जानते हों किन्तु होते महाचालू हैं। ये आधुनिक शासक इस पूँजीवादी लोकतंत्र में अपने आप को जनता का ‘जनसेवक’ भी कहते हैं। उनकी इस कृतिम विनम्रता में अपने देश की जनता को उल्लू बनाने का मनोरथ साफ़ झलकता है। ऐसे ‘जनसेवकों’ की कीर्ति पताका दिग्दिगंत में फहराने और चुनाव में ‘हर किस्म की मदद’ के लिए इस पतनशील व्यवस्था में उन्हें भृष्ठतम् अधिकारी और कर्मचारी भी इफरात से मिल जाते हैं। वर्तमान में जो नेता भारत भाग्य विधाता बन बैठे है वे इसी श्रेणी में आते हैं। इससे पहले वाले भी इसी श्रेणी के थे किन्तु उनका ‘मौन ‘ इन ‘बड़बोलों’ के सामने टिक नहीं सका।
वर्तमान सत्तासीन नेताओं की बीसों अंगुलिया घी में हैं। इस आधुनिक पूँजीवादी संसदीय लोकतंत्र में इन धनबली ,बाहुबली , भीड़ जुटाऊ , ढ़पोरशंखी ,अगम्भीर और चालू क्सिम के खतरनाक तत्वों को सत्ता में पहुँचने के भरपूर अवसर प्राप्त हैं। इसीलिये ऐंसे लोग अक्सर नेता ,सांसद, मंत्री या प्रधानमंत्री बनकर “प्यादे से फर्जी ‘ हो जाया करते हैं। उच्च शिक्षित काइंयाँ किस्म के भृष्ट आला अफसरों- ‘लोकसेवकों’ से कामकाजी ओपचारिक इंटरेक्शन के दरम्यान अल्पशिक्षित नेता अर्थात सत्ताशीन ‘जनसेवक’ को परमुखपेक्षी होना ही पड़ता है। तब स्वाभाविक है कि ये मंत्रियों से ज्यादा पढ़े-लिखे तथा जानंकार अफसर भृष्टाचार करने-कराने में, बदमाशों और नेताओं से ज़रा ज्यादा ही चतुर -चालाक होते हैं। इसीलिये इन भृष्ट अफसरों के बलबूते पर ही यूपीए, एनडीए या किसी अन्य खास नेता या पार्टी की सफलता या असफलता निर्भर हुआ करती है ।
आजादी के बाद इन ६८ सालों में देश का कुछ तो विकास अवश्य हुआ है । लेकिन जो कुछ भी अच्छा -बुरा हुआ उसके भागीदार हम सब है। उसका कुछ श्रेय संघर्षशील जनता को भी है की उसने शासन-प्रशासन पर निरंतर दबाव बनाये रखा। यह जन-दबाव अभी भी जारी है। वर्तमान मोदी सरकार का एक वर्ष केवल विदेश यात्राओं और ‘मन की बातों’ में ही गुजर गया । इस प्रतिगामी स्थति के लिए सिर्फ मोदी जी या एनडीए को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। जब भारत की तुलना दुनिया के तमाम विकसित देशों -यूरोप,अमेरिका, जापान या चीन से होती है तो हर सुधि देशभक्त भारतीय का चिंतित होना स्वाभाविक है। लेकिन यह यक्ष प्रश्न बाजिब है कि आखिर क्या वजह है कि भारत से बाद में आजादी पाने वाले चीन , ताइवान ,सिंगापुर ,मलेशिया और वियतनाम मीलों आगे निकल गए। यदि भारतीय संसदीय लोकतंत्र में कोई खोट नहीं तो फिर इस राष्ट्रीय पिछड़ेपन का जिम्मेदार कौन है ? वेशक मंत्री और सरकारें तो इसके लिए जबाबदेह हैं ही , किन्तु इन अपढ़ , अयोग्य ,भृष्ट नेताओं को सत्ता में चुनने वाली तो जनता ही है ! इसीलिये चाहे मनमोहन सरकार हो चाहे मोदी सरकार हो विकाश नहीं होने की जिम्मेदारी मतदाताओं की भी है !
जिन्हे कांग्रेस की असलियत मालूम है ,उसके शीर्ष नेताओं की शैक्षणिक योग्यता मालूम है ,उनकी भूलें और उनके कदाचरण मालूम हैं वे कांग्रेस से नफरत करने यह जायज है । लेकिन उन्हें मोदी जी के भाषणों पर ताली बजाने का कोई हक नहीं।क्योंकि इस ‘मोदी सरकार’ और उस यूपीए सरकार में फर्क सिर्फ ‘बोतल’ का है वरना शराब तो वही है। भारत के वर्तमान संसदीय लोकतंत्र में नेताओं’ की न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय न होने से कोई भी ऐरा-गैर नथ्थुखेरा चुनाव में खड़ा हो जाता है। चुनाव जीत भी जाता है। मंत्री भी बन जाता है। कुछ तो मुख्य मंत्री और प्रधानमंत्री भी बन जाते हैं। व्यापम काण्ड जैसे अपवित्र साधनों द्वारा, नकली डिग्री जुगाड़ने वाले यदि मंत्री ,अफसर-बाबू , डाक्टर,इंजीनियर जिस देश में होंगे , वहां का विकास सिंगापुर या आस्ट्रलिया जैसा तो दूर की बात चीन जैसा भी कैसे सम्भव होगा ? वेशक विकास सिर्फ उनका होगा जो इस सिस्टम के स्टेक होल्डर्स होंगे । जो अम्बानी, अडानी के कद के होंगे। कभी -कभार कुछ राजनेताओं और अफसरों का भी विकास सम्भव है। कुछ पार्टी कार्यकर्ताओं और बिलडर्स का विकाश भी अपेक्षित है।
हालाँकि नेताओं की भूल-चूक पर तो जनता उन्हें चुनाव में हराकर हिसाब बराबर आकर लेती है। किन्तु ‘सरकारी सेवकों’ अर्थात नौकरशाही का बाल भी बांका नहीं कर सकती। यदि किसी ने कुछ चूँ -चपड़ की भी तो ‘शासकीय कार्य में बाधा’ पहुंचाने के बहाने जेल में डालने का विकल्प खुला है। वर्तमान मोदी सरकार ने भी जब उसी यूपीए वाली सनातन भृष्ट अफसरशाही पर अपने मंत्रियों से ज्यादा भरोसा किया है तो किसका विकास और कैसा विकास ? जब उन्होंने एक भी भृष्ट अधिकारी को जेल नहीं भेजा , किसी भी धूर्त नेता और अफसर पर कोई नकेल नहीं कसी तो कैसा विकास और किसका विकास ?
केवल ताश के पत्ते फेंटकर उनकी पोजीशन बदलने या टाइम पर आओ-टाइम पर जाओ का नारा लगाने से स्किलनेस या कार्यदक्षता में तीब्रगामी बदलाव सम्भव नहीं है । गलत ट्रेक पर कितना भी तेज दौड़ो , परिणाम शून्य ही होगा ! जब आर्थिक नीतियां वही ‘मनमोहनी’ यूपीए वाली हैं और अफ़सरशाही भी वही परम महाभृष्ट है ,तो कैसा विकास -किसका विकास ?
वैसे तो भारतीय नौकरशाही में अंग्रेजी अफसरों के रौबदाब वाली ठसक के सभी ‘गुणसूत्र विद्यमान हैं। किन्तु अंग्रजों का अनुशासन ,अंग्रजों जैसी पब्लिकनिष्ठा ,राष्ट्रनिष्ठा और ईमानदारी का भारत की जड़वत- नौकरशाही में घोर अभाव है। कुछ अपवादों को छोड़कर भारत की नौकरशाही नितात्न्त सत्ता परमुखापेक्षी है।कुछ लोग रिश्वत देकर या आरक्षण की वैशाखी के बलबूते अफसरी पा जाते हैं। वे सिर्फ ‘काम के ना काज के ,दुश्मन अनाज के’ हो कर रह जाते हैं। कोई भी सरकार हो ,कितना ही दवंग और डायनामिक प्रधानमंत्री हो , यदि वह इस अफसरशाही को नाथ भी ले तो भी देश का भला वह कदापि नहीं कर सकता। क्योंकि यह मलिन अफसरशाही देश का भला करने के लिए नहीं बल्कि अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए ‘सेवाओं’ में आयी है।उसकी चमड़ी भले ही भारतीय हो किन्तु मष्तिष्क में ‘अंग्रेजियत’ का करेंट दौड़ रहा है।
दूसरे खतरनाक प्रवृत्तिवाले ‘स्टेक होल्डर्स’ वे हुआ करते हैं जो प्रत्यक्षतः शासक नहीं दीखते । किन्तु शासक बदलवाने या सत्ता परिवर्तन में इनकी परोक्ष भूमिका हुआ करती है। शासन -प्रशासन बदल जाने पर भी वे अपनी सम्पदा और अपने निजी वैभव को अक्षुण रखने के निमित्त अनैतिक उपायों का उपयोग करने में नहीं सकुचाते। हालाँकि ये लक्ष्मीपति स्वयं तो कोई उत्पादक कार्य नहीं करते, किन्तु अपने बुद्धि चातुर्य से अवसर का लाभ उठाकर राष्ट्र की प्राकृतिक सम्पदा का सर्वाधिक दोहन भी यही लोग किया करते हैं। ये लोग सीधे सीधे शासन-प्रशासन नहीं संभालते बल्कि व्यवस्था को खरीदकर अपनी जेब में रखते हैं। ये कार्पोरेट पूँजी के देशी-विदेशी धन्नासेठभी हो सकते हैं। ये शराब माफिया ,ड्रग माफिया ,कॉल माफिया ,निर्माण माफिया और व्यापम माफिया जैसे कुछ भी हो सकते हैं।
तीसरे खतर्नाक प्रवृत्ति वाले ‘स्टेक होल्डर्स’ वे हैं जो धर्म -मजहब रुपी अफीम की खेती करवाते हैं। किन्तु जिन्ना की तरह वे स्वयं उसका सेवन नहीं करते। सुना है कि मुस्लिम लीग के नेता और पाकिस्तान के सह – संस्थापक कायदे आजम मिस्टर जिन्ना न मस्जिद जाते थे और न नमाज पढ़ते थे। वे अंग्रेजी शराब और अंग्रेजी चुरुट पिया करते थे। इसी तरह हिन्दुत्वादी कतारों में जैचंद व् गोडसे जैसे सैकड़ों शख्स होंगे जो मर्यादा पुरषोत्तम नहीं होंगे। जो सत्य हरिश्चंद्र नहीं होंगे। जो “धृति क्षमा दमोअस्तेयं ,शुचतेंद्रिय निग्रह। विद्या बुद्धि च अक्रोधम ‘ का अनुशीलन नहीं करते होंगे। ये तत्व किसी भी शासन प्रणाली में राहु-केतु’ की तरह दुखदायी है। इनकी तादाद सीरिया ,पाकिस्तान ,सूडान ,यमन ,अफ़ग़निस्तान में ही बेहिसाब नहीं है बल्कि इनकी तादाद अमेरिका रूस चीन और भारत में भी बेशुमार है।
उपरोक्त इन तीनों श्रेणियों में जो मनुष्य नहीं आते, वे शेष बचे हुए नर-नारी इस धरती के मूल्यबर्धित असेट्स [सम्पदा ] मात्र है। वे पाने -अपने राष्ट्रों की ‘वेल्थ आफ नेशन’ मात्र हैं। वे सिर्फ रॉ मेटेरियल [कच्चा माल] मात्र हैं। वे सिर्फ आम आदमी भर हैं। वे मतदाता या वोटर मात्र हैं। उन्हें आप पब्लिक भी कह सकते हैं. जिस देश की यह पब्लिंक जाग जाती है तो उपरोक्त शासकों का विकल्प सामने आता है। पब्लिक अर्थात आवाम अर्थात जनता जनार्दन के जागने और नवनिर्माण की हुंकार भरने की क्रिया को ही क्रांति कहते हैं।