ये घोड़ों के टापों की आवाज ? ये हलचल सी और उसके साथ उठती हुई भयानक चीखें? ये गिरती हुई इमारत और उड़ती हुई धूल? ये सब आप क्या कह रहे हैं? मेरी समझ में तो कुछ भी नही आ रहा है?
शाम का धुंधलका अभी पूरी तरह फैला नहीं था, पर पता नहीं आसमान में एक गहरी सी गर्द क्यों छाई हुई थी?वे बता रहे थे कि इस माह में यहाँ अक्सर ऐसा हो जाया करता है.मुझे इसमे थोडा अनोखापन अवश्य लक्षित हो रहा था..आश्विन मास यहाँ ऐसे भी वर्षा ऋतु की विदाई और शरद के स्वागत का महिना है.वर्षा से धुल कर आसमान स्वच्छ हो जाता है.आसमान की थाली तारों से सज जाती है.पर वह तो रात्रि बेला की बात है,पर शाम के धुंधलके में भी जो एक तरह की निर्मलता दिखनी चाहिये थी ,वैसा तो नहीं था,फिर भी अंतर समझने में मैं असमर्थ हो रहा था. वे जोर देकर कह रहे थे कि यह सब स्वाभाविक नहीं है.और उस पर उनका ध्यान? लगता था कि वे कही खो गए हैं और उनकी आवाज बहुत दूर से आ रही हैं अब तो मुझे भी आभास होने लगा कि सचमुच वातावरण में बेचैनी है.लगता है कि उनके आवाज की कसक ने मुझे भी अपने सम्मोहन में बाँध लिया था.
सुदूर प्राची में प्रकृति के प्रांगण में बसे हुए इस गाँव का सौन्दर्य अद्भुत था.चतुर्दिक हरियाली बरबस मन मोह लेती थी पास में ही कल कल निनाद करती हुई नदी इसके सौन्दर्य में चार चाँद लगा देती थी.गाँव भी छोटा था ,नदी भी छोटी थी और गर्मी में इसमे जल का भी अभाव हो जाता था ,पर किनारे के वृक्षं इसके सौन्दर्य को कम नहीं होने देते थे. मुझे तो एक विशेष लगाव सा हो गया था इस हरियाली और सौन्दर्य पूर्ण ग्राम से.सम्बन्ध भी कुछ ऐसा था कि यहाँ अक्सर आना जाना लगा रहता था, पर आश्विन के महीने में मैं पहले कभी यहाँ नहीं आया था.यहाँ का भीषण बरसात भी मैंने देखा था.कलकल निनाद करने वाली छोटी सरिता का प्रवल उफान भी मैंने उन दिनों देखा था.यहाँ धान के लहलहाते खेत और चतुर्दिक हरियाली भी मेरा देखा हुआ था..भयंकर शीत और उसमे ठिठुरते हुए धूप को भी मैंने देखा था भीषण गर्मी में तपते हुए खेत भी मैंने देखे हुए थे.ग्रीष्म की विभीषिका और शीत का प्रकोप इस इलाके में कुछ ज्यादा ही दृष्टि गोचर होता था.सिचाई की समुचित व्यवस्था न होने के कारण यहाँ की कृषि वर्षा पर निर्भर रहती थी.यहाँ तालाब बड़ी संख्या में हैं, पर उनको भी शुष्क अवस्था में देखने का अवसर मुझे मिला था. उस अवस्था में ग्रामवासियों की अवर्णीय दुखदायी पीड़ा भी मेरा जाना पहचाना हुआ था, पर संयोग कुछ ऐसा रहा था कि मैं आश्विन मास में यहाँ कभी नहीं आया था. सुना अवश्य था कि यहाँ के अनेक गाँवों में दुर्गा पूजा बड़े धूमधाम से मनाई जाती है,पर इस गाँव में दुर्गा पूजा मनाने की सार्वजनिक उत्साह का अभाव सा था.यहाँ के वाशिंदे भी दूसरे गांवों की सार्वजनीन पूजा में बढ़ चढ़ कर भाग लेते थे,पर अपने गाँव में ऐसी पूजा के लिए प्रयत्न भी नही करते थे.लगता था कि कोई अभिशाप था ,जो इनको ऐसा करने से रोकता था.ऐसे भी सुदूर प्राची के इन गाँवों में दुर्गा पूजा एक अजीब उत्साह सा भर देता है.उत्साह का अभाव इस गाँव के निवासियों में भी नहीं था,फिर भी यहाँ सार्वजनीन दुर्गा पूजा की व्यवस्था नही थी. ऐसे भी पता नहीं क्यों, इस गाँव और आसपास के इलाके को देखकर मुझे हमेशा आभास होता रहा है कि यह इलाका वैसा है नहीं जैसा ऊपर से दिखता है.मुझे हमेशा ऐसा लगता था कि इन गाँवों में कुछ ऐसा इतिहास छिपा हुआ है,जिसका पता शायद यहाँ के निवासियों को भी नहीं है.मेरा सोचना अकारण नहीं था.सड़क से हटकर खड़े कुछ भग्नावशेषों पर मेरी नजर अटकी थी जो बहुत प्राचीन स्तम्भ लगते थे.गाँव में भी मिट्टी की सतह के नीचे ऐसी ईंटें यदा कदा मिल ही जाती थी जो बहुत प्राचीन लगती थी.ऐसे भी जमीन के नीचे किसी भग्न मंदिर की बात भी यदा कदा सुनने को मिलती थी.पूजा स्थलों पर कुछ मूर्तियाँ भी मैंने देखी थी,जो बहुत प्राचीन लगती थी.
पर यह आश्विन का महीना. मैं पहली बार यहाँ आया था, इस महीने में..सोचा था दुर्गा पूजा में इस बार यहीं का नजारा देखा जाये.पर मौसम यह अनोखापन मुझे बेचैन सा करने लगा ऐसे मेरे लिए तो यह भी एक नया अनुभव था.फिर परेशानी क्यों?ऐसा सोचते सोचते मैंने परेशानियों को परे झटक दिया.
पहले भी किसी से सुन चुका था कि सैकड़ों वर्ष पूर्व यहाँ किसी खूँखार दस्यु का बहुत आतंक था.मुग़लों द्वारा शासित यह इलाका उस समय किसी मुस्लिम मनसबदार के कब्जे में था.वह तो इसके नाम से थर्राता था.यहाँ के जन मानस की जिह्वा पर वर्दी नाम एक आतंक था एक दहशत थी. हाँ यही तो था वह नाम जिससे वह दस्यु संबोधित किया जाता था. वर्दी नाम क्यों पड़ा, इसपर भी लोगों में मतभेद था,पर शायद उसका दल एक खास पोशाक में रहता था,इसीसे ऐसा नामकरण हुआ था.
वर्दी एक ऐसा दस्यु था ,जसके भय और आतंक ने लोगों की नींद उड़ा रखी थी,पर ऐसे लोग भी इस इलाके में थे,जो उसको अपना मसीहा समझते थे.दीन हीनों के लिए वह ईश्वरीय दूत था.उसको इसका पता रहता था कि इस इलाके में कौन कष्ट में है?किसको सताया जा रहा है?परिणाम यह हुआ कि जहां कुछ लोग उससे भयभीत थे वहीं जनता का एक बड़ा हिस्सा उसका प्रशंसक भी बन गया था .लोगों पर जब भी किसी प्रकार का अत्याचार होता था तो उन्हें लगता था कि वह देवदूत सदल बल उनके रक्षार्थ कभी भी उपस्थित हो सकता है.यही कारण था कि जब उसने यहाँ के शासकों के नाकों चन्ने चबवा दिए थे,फिर भी वे उसकी परछाई तक नही पकड़ पाते थे.
वे बता रहे थे बाबूयह उस समय की बात है जब यह इलाका सघन वन से आच्छादित था.यह जो आप देख रहे हैं तब ऐसा नहीं था. तब यह गाँव भी लोग कहते हैं कि इतना छोटा नहीं था.
मैंने बातचीत में थोडा दखल दिया,” जैसा मुझे बताया गया था, आपके पूर्वज तो करीब दो सौ वर्ष पहले यहाँ आये थे और इस गाँव में तो आपलोग बाद में आये थे पहले तो आपलोग इससे कुछ दूरी पर बसे हुए अन्य गाँव में रहते थे,पर शायद जमीदारी की अच्छी तरह देखभाल के लिए परिवार का एक हिस्सा यहाँ आ गया थाऔर तब से आपलोग यहाँ हैं.”
“बाबू ये सब तो बाद की बातें हैंहमारे पूर्वज जब यहाँ आये तो इस इलाके में अंग्रेजो का शासन आरम्भ हो गया था, पर यह कहानी तो उस समय की है जब मुग़लों का राज्य था और यह इलाका सीधे दिल्ली द्वारा शासित था.”
मुझे भी याद आया.सबसे पहले अकबर के शासन काल में शायद मान सिंह ने यह इलाका मुग़लों के लिए जीता था.बाद में भी बहुत दिनों तक यह उनके साम्राज्य का अंग रहा था.फिर मुग़ल शासन का विखराव होने लगा था और यह इलाका उनके हाथों से निकल गया था.
हाँ बाबू यह इलाका सघन वन से आच्छादित था और एक आदिवासी क्षत्रिय यहाँ के स्थानीय शासक थे.होसकता है कि वे मुग़लों के अधीन ही हों, पर यहाँ के निवासियों के लिए तो वही सब कुछ थे. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा की यह गोआई नदी जिसके तट पर हमलोग खड़े हैं,गाँव के पास से बहती थी और उस मंदिर का नित्य पद प्रक्षालन करती थी ,जो गाँव से सटा हुआ था और जिसके भग्नावशेष आज भी यहाँ की मिट्टी के नीचे दबे हुयें हैं. यह सब मुझे बहुत ही आश्चर्य जनक लग रहा था.हाँ एक बात अवश्य मेरे ध्यान में आया था .गाँव से नदी की दूरी करीब एक किलोमीटर के आसपास होगी और गाँव से नदी तक आने में जगह जगह रेत कुछ ऐसे बिखरे दीखते थे जैसे पहले यहाँ से कोई नदी या उसका स्रोत प्रवाहित होता रहा हो.
शाम का धुंधलका भी ख़त्म हो रहा था.यह रात्रि के आगमन की सूचना थी.हमलोग गाँव की तरफ आ गए .वे तो अपने घर चले गए, पर मुझे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर गए.कौन था यह वर्दी? आखिर कहाँ से आया था वह ? कैसे बना वह दस्यु ? क्या वह पहले किसी अन्य रूप में था?क्या परिस्थितियों ने उसे दस्यु बनने को वाध्य किया/?क्या वह अपने पूर्वकाल को भूल नहीं सका ?क्यों वह खूंखार दस्यु होते हुए भी गरीबों का मसीहा बना रहा?इस तरह के बहुत प्रश्न मेरे मन में उमड़ते घुमड़ते रहे?मैं बहुत देर तक विस्तर पर करवटें बदलता रहा.फिर कब नींद ने मुझे अपने आगोश में ले लिया मुझे पता भी नहीं चला.
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प्रात: जब निद्रा भंग हुई तो कुछ बेचैनी सी महसूस हुई.लगता था की संध्या बेला के वार्तालाप का प्रभाव था.मैं सोच में डूबा हुआ था.कार्य तो कोई था नहीं.ऐसे मेरा यहाँ आगमन किसी कार्य के सिलसिले में हुआ नहीं था सुबह उनके दर्शन भी नही हुए.शायद वे कार्य में व्यस्त हो गए थे.
. सांध्य बेला तक बेचैनी कुछ ज्यादा ही हो गईथी और मैं कल के समय से पहले ही नदी किनारे पहुँच चुका था.मन को थोड़ी शान्ति मिली क्योंकि वे भी वहीं थे.
मैंने उन्हें नमस्कार किया और बात को आगे बढाते हुए बोला,”कल जो आप वर्दी नामक दस्यु की कहानी व्यान कर रहेथे, उसने एक तरह से कल मेरी नींद छीन ली.सच पूछिए तो मैं अभी भी बेचैनी मह्सूस का रहा हूँ.”
वे बोले,”बाबू यह वर्दी दस्यु वाली कहानी तो बाद में आरम्भ होती है.उससे भी वर्षों पहले की बात है.मैंने जिस मंदिर के भग्नावशेष का जिक्र किया था, वह उस जमाने में एक भव्य मंदिर था,पर वह मंदिर हमेशा से ही वैसा भव्य नहीं था.”
“आप तो पहेलियाँ बुझा रहे हैं.मंदिर का भग्नावशेष उसकी भव्यता और फिर उसके पहले की कहानी,क्या था यह सब?”
मैंने उनके चहरे की ओर नजर उठाई तो अचानक चौंक सा पडा.लगा कि वे तो वहां हैं हीं.नहीं. ऐसा लगा कि वे कहीं दूर किन्ही यादों में खो गए हैं.
फिर उनकी आवाज आयी.ऐसा लगा वे कही दूर चले गएहैं और वहीं से उनकी आवाज आ रही है जो धीरे धीरे मेरे कानो तक पहुँच रही है.
उस गाँव के निवासी भी अन्य गाँवों के निवासियों की तरह तडके ही जग जाते थे और अपने काम धंधों में लग जाते थे.बहुतों का कार्य मंदिर में प्रार्थना से आरम्भ होता था.गाँव का वह प्राचीन मंदिर अपनी प्राचीनता के साथ साथ अपनी दुरावस्था का भी स्वयं प्रतीक बन गया था.आज वहां पहुंचने वाले लोगों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब मंदिर से आती हुई मन्त्रों की ध्वनि उनके कानों में पड़ी. मंदिर में कोई अनवरत मंत्रोचारण कर रहा था. ऐसा मंत्रोचारण तो मंदिर के वृद्ध पुजारी भी नहीं कर सकते थे.फिर अपनी वृद्धावस्था के कारण वे मंदिर में इतना सबेरे आ कहाँ पाते थे?मंदिर में विधिवत पूजा भी बहुत देर के बाद आरम्भ होता था.आखिर कौन था यह जो इस प्रात: वेला में अपने मंत्रोचारण से मंदिर के वातावरण को पूर्ण गरीमामय बना रहा था.लोगों की उत्सुक्तता तब आश्चर्य में बदल गयी ,जब मंदिर के प्रांगण में पैर रखते ही उन्होंने देखा कि एक युवक मंदिर और उसकी मूर्तियों की तन्मयता से सफाई कर रहा है और अनवरत मंत्रोजाप किये जा रहा है.उसे तो शायद वहां खड़े लोगों की उपस्थिति का भी ज्ञान नहीं था.लोग एक टक यह दृश्य देखते रहे.कुछ देर के बाद वह युवक एक पात्र हाथ में लिए उठा .शायद वह नदी से जल लाकर उन मूर्तियों को धोना चाहता था.
वहां खड़े लोगों को देखकर पहले वह थोडा झिझका.फिर बात उसकी समझ में आगई कि वे लोग वहां प्रात: कालीन पूजा के लिए उपस्थित हुयें हैं.उसने लोगों को थोड़ी प्रतीक्षा करने के लिए कहा और मूर्तियों को धो पोंछ कर पूजा के लिए तैयार कर दिया.लोग चकित थे,पर उनको पता नहीं चल रहा था कि इससे वार्तालाप कैसे आरम्भ किया जाये .उनके आश्चर्य का सबसे बड़ा कारण यह था कि वह अजनवी युवक इस तरह व्यवहार कर रहा था जैसे वह इस मंदिर में बहुत दिनों से रह रहा है और यहाँ का कुछ भी उसके नया नही है.उसके वस्त्र अवश्य फटे पुराने लग रहे थे,पर चेहरे पर एक अजीब सी चमक थी. उनलोगों के लिए यह ज्ञात होना तो आवश्यक था कि आखिर वह युवक कौन है और इतने सबेरे मंदिर में कैसे पहुंचा. अंतत: उनमे से एक वृद्ध ने प्रश्न किया,”आप कौन हैं?कहाँ से आये हैं? यहाँ इतने सबेरे इस मंदिर में कैसे पहुंचे?”
युवक ने बहुत ही मधुर स्वर में उत्तर देना आरम्भ किया.उसके आवाज की मधुरता और उसके स्पष्टं वादन ने लोगों का मन जीत लिया.
युवक कह रहा था,”मेरा नाम ब्रह्मदत है.एक दीन हीन ब्राहमण माता पिता की संतान हूँ,जो मेरे वचपन में ही स्वर्ग सिधार गए.चूंकि वे गुरुकुल की सेवा में थे,अतः मुझे भी वहां पनाह मिल गयी.गुरुकुल के प्रधान ने जाने मुझमें क्या देखा कि मेरी पढाई लिखाई पर बहुत ध्यान देने लगे और मुझे पुत्र तुल्य मानने लगे.इससे एक तो मुझे माता पिता की कमी नहीं महसूस हुई ,दूसरे मै अपनी पढाई में भी तन मन से लीन हो गया.समय बीतने के साथ साथ मेरा ज्ञान भी बढ़ता गया और मैं धर्म शास्त्रों के अध्ययन के साथ संस्कृत का भी अच्छा ज्ञाता बन गया .”
युवक के संस्कृत ज्ञान का साक्षात्कार तो वे लोग कर ही चुके थे.उसका वह अनवरत मंत्रोचार उनके कानों अभी भी गूंज रहा था, पर युवक की बातों ने उनकी जिज्ञासा को और बढ़ा दिया था.वे अभी भी नही समझ पा रहे थे की आखिर इन सब के बीच यह युवक यहाँ तक कैसे पहुँच गया?
युवक को भी इन बातों का आभास हो रहा था.उसको लग रहा था की लोगों की जिज्ञासा अभी खत्म नहीं हुई है.उसने बात आगे बढ़ाई.
वह कहने लगा ,”यहाँ तक तो सबकुछ ठीक था पर अचानक सबकुछ उलट पलट गया.आचार्य अकाल मृत्यु के शिकार हुए और उनकी मृत्यु के साथ ही मेरी तो तो दुनिया ही बदल गयी.जन्म दात्रि माता और पिता की तो अब याद भी नहीं रही थी.मेरे लिए तो सब कुछ आचार्य जी ही थे.उनके देहावशान ने तो मुझे विच्छिप्त कर दिया..गुरुकुल और आश्रम में भी अब मेरे लिए स्थान नहीं रह गया था.आचार्य जी के साथ मेरी निकटता ने बहुतों के दिल में मेरे प्रति ईर्ष्या का भाव जागृत कर दिया था,अब वह खुल कर सामने आने लगा. दिल इतना उचाट हो गया कि एक दिन तडके ही मैं किसी को बिना बताये आश्रम से निकल पड़ा. ऐसे भी ऐसा तो कोई था भी नहीं ,जिसको बताना अनिवार्य होता.कुछ दिनों तक योंही भटकता रहा.जहां शाम हुई ,वहीं रूक गया सबेरा होते ही फिर निकल पड़ता.पता ही नहीं चल रहा था कि आखिर मेरी मंजिल कहाँ है.कल तो ऐसे भी बहुत देर तक भटकते भटकते रात्रि का पहला पहर बीतने के बाद ही इस मंदिर में पहुंचा था.दरवाजे पर हाथ रखा तो कुण्डी योही खट्काई हुयी दिखी .अँधेरे में ही टटोल कर एक जगह सो गया .सबेरे जब नींद खुली तब से नित्य क्रिया से निवृत होकर मंदिर की सफाई में लग गया .पता नहीं क्यों ऐसा लग रहाहै कि जिस मंजिल की तलाश में मैं निकला था वह मुझे मिल गयी है.आगे तो जैसी ईश्वरेक्षा.”
लोग तो उससे अत्यंत प्रभावित थे.उसकी दुःख भरीकहानी उनके दिल को छू गयी थी,फिर भी वे उस युवक की कोई सहायता नहीं कर सकते थे.जब तक उस मंदिर के वयोवृद्ध पुजारी और गाँव के जमींदार की आज्ञा नहीं मिले तब तक उसके लिए इस मंदिर में आश्रय पाना कठिन था.
अब ब्रह्मदत्त वृद्ध पुजारी के चरणों में झुका हुआ था .ग्रामवासी तो पुजारी जी की सेवा में उसे हाजिर करके वहां से विदा हो चुके थे.एक दो हीं लोग वहां रह गए थे आगे का दृश्य देखने के लिए .उनके दिल की धडकने भी तेज हो गयी थी.उनलोगों केदिलों में इन बीते हुए कुछ क्षणों ही में ब्रह्मदत्त ने ऐसी जगह बना ली थी की वे मन ही मन उसके लिए भगवान से वरदान मांग रहे थे. पर आगे का दृश्य जब उन्होंने देखा तो उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास ही नही हुआ.वे लोग तो चकित रह गए यह दृश्य देखकर .पुजारी जी ने ब्रह्मत को उठाकर गले लगा लिया था एक ही झलक तो देखी थी पुजारी जी ने उस युवक के चेहरे की, अपने चरणों पर झुकने के पहले ,पर उन अनुभवी पारखी आँखों के लिए उतना ही काफी था. वे समझ गए कि जिस हीरे की वे तलाश में थे वह आज उनके सामने उपस्थित हो गया है और अब अपना बोझ उस को सौंप कर कभी भी भगवती के चरणों में लीन हो सकते थे.उनको लगा की साक्षात् माँ दुर्गा ने इस तेजस्वी युवक को उनके पास भेजा है.उन्होंने कुछ प्रश्न अवश्य किये पर ऐसा लगता था कि उन्हें विश्वास था कि ब्रम्ह्दत्त के लिए किसी भी प्रश्न का उत्तर देना कठिन नहीं था और वे मात्र औपचारिकता निभा रहे थे.पुजारी ने उसे वहां के शासक जमींदार साहब से भी मिलवाया.जमींदार के दिल में पुजारी के लिए अगाध श्रद्धा थी ,उनके लिए पुजारी जी की बात टालने का तो प्रश्न हीं नहीं उठता था.इस तरह से एक ही दिन में इस प्रतिभाशाली युवक ने,जिसने अपना ब्रह्मदत्त बताया था,अपना ठौर प्राप्त कर लिया.उसके प्रार्थनानुसार पहले तो उसे उसी मंदिर में रहने दिया गया,पर शीघ्र ही उसके लिए मंदिर के बगल में एक कुटीर का निर्माण कर दिया गया.
कुटीर में पड़ा हुआ ब्रह्मदत आज बहुत विचार मग्न था .वह सोच रहा था,भाग्य भी क्या करवट बदलता है.कहाँ वह गुरुकुल और आश्रम, फिर पिता तुल्य आचार्य की मौत .उसके बाद भटकता जीवन?पर उसे लग रहा था ,अगर जीवन में वह मोड़ नही आता तो मैं इन श्रद्धालुओं के बीच कैसे पहुंचता .प्रकृति प्रदत सौन्दर्य के बीच यहाँ के लोगों का निश्च्छल स्वभाव.,उस पर बुजुर्ग पुजारी का उसपर स्नेह.लगता है दुर्गा माता ने प्रसन्न होकर उसे सब कुछ दे दिया. बनों और हरियाली के बीच यह गाँव और यहाँ का मंदिर,उसे तो ऐसा लग रहा था की वह स्वप्न लोक में पहुँच गया है.उसने आज मन ही मन एक प्रतिज्ञा भी कर डाली की वह माँ दुर्गा के इस मंदिर को भव्य से भव्य रूप देने का प्रयत्न करेगा. काम कठिन था,क्योंकि एक तो मंदिर प्राचीन था और ऐसा लगता था कि कभी भी खँडहर में परिणित हो सकता है.
ब्रह्मदत्त को तो यह भी पता नही था कि इस काम को अंजाम देने में उसे लोगों का सहयोग भी मिलेगा कि नहीं.मंदिर के वयो वृद्ध पुजारी ने यद्यपि मंदिर के दैनिक कार्यों की पूर्ण जिम्मेवारी उसके कन्धों पर डाल रक्खी थी,पर अभी भी वह बिना उनकी अनुमति के कोई कार्य नहीं करता था.इन सबके ऊपर गाँव के जमींदार भी थे ,जो यहाँ के निवासियों के लिए यहाँ के राजा थे .उन भोले भाले लोगों को तो शायद भी पता नहीं था कि इनके ऊपर भी कोई है.पर जहां चाह वहां राह. पुजारी जी से जब उसने इसकी चर्चा की तो वे अति प्रसन्न हो गए. जमींदारसे भी उन्होंने अनुमति दिलवा दी.जमींदार ने तो आनन फानन काम आरम्भ करने का भी आदेश दे डाला.
फिर भी मंदिर के पुनर्निर्माण में करीब दो वर्ष लग गए.प्रधान पुजारी का स्वास्थ्य धीरे धीरे खराब होने लगा,फिर भी उनके चेहरे चिंता कोई रेखा नहीं दिखाई देती थी.लगता था कि ब्रह्मदत्त को पाकर वे सारी चिंताओं से मुक्त हो गए है .विधि का विधान कि इधर मंदिर निर्माण का कार्यसमाप्त करके धूम धाम से माँ केमूर्ति की स्थापना हुई ,उधर पुजारी ने संसार से विदा लेली.ब्रह्मदत्त एक बार फिर अनाथ हो गया था,पर इस बार उसे लगा कि पुजारी जी ने जो कार्य उसे सौंपा है,उसको सुचारू रूप में चलाने में ही पुजारी जी की आत्मा को शांति मिलेगी.मंदिर के सारे कार्य का भार ऐसे भी उसी के कन्धों पर पहले से था,अतः वृद्ध पुजारी की कमी का केवलउसको अनुभव हुआ.अन्य लोग तो उसी तरह पूजा और प्रार्थना में लगे रहे.
दिन महीनों में बदले और महीने वर्ष में .देखते देखते दस वर्ष बीत गए ब्रहंम्दत्त की विद्वता और उसकी सज्जनता सबके दिलों में घर कर गयी.अब तो मंदिर की भव्यता के साथ साथ,मंदिर के पुजारी का नाम भी दूर दूर तक फ़ैल गया.
यह शायद वह काल था जब मुग़ल सम्राट औरंगजेब का शासन आरम्भ हो गया था.औरंगजेब अकबर ,जहांगीर और शाहजहाँ से भिन्न था.जहां उन्होंने कभी भी ऐसा काम नहीं किया था,जिससे उनकी प्रजा की भावनाओं को ठेस पहुंचे वहीं औरंगजेब के शासन का भार संभालते हीं मस्जिदों के निर्माण और मंदिरों के ध्वंस का कार्यक्रम आरम्भ हो गया.फिर भी यह स्थान उन लोगों के नज़रों से दूर था. घने जंगलों के बीच बसा हुआ होने कारण ऐसे भी इस दुर्गम स्थल तकपहुंचना आसान नही था. मंदिर की प्रसिद्धि दिनों दिन बढ़ रही थी और उसीके साथ बढ़ रहा था जमींदार का दबदबा.
पर अंततः वही हुआ ,जिसका लोगों को गुमान तक न था.यही आश्विन का महीना था.नवरात्रि का आरम्भ हो चुका था. माँ दुर्गा की नवरात्रि पूजा का प्रबंध बड़े धूम धाम से हो रहा था.लोगों के दिलों में इस बार कुछ ज्यादा ही उल्लास था.पिछले वर्ष बहुत अच्छी फसल हुई थी .इसबार भी समय पर वर्षा होने के कारण लोगों को विश्वास था कि भरपूर फसल होगी.ऐसे भी जैसे जैसे माँ दुर्गा के मंदिर का प्रताप बढ़ रहा था,वैसे वैसे वहाँ के लोगों की खुशहाली भी बढ़ रही थी. वहाँ के निवासी इन सबका श्रेय माँ दुर्गा को देते थे. इसबार बहुत भव्य मूर्ति का निर्माण हुआ था.षष्ठी को जब मूर्ति की स्थापना हुई तो लोगों का उल्लास आसमान छूने लगा.ऐसे समाचार मिला था कि मुग़ल सेना की कोई टुकडी इधर भी आरही है, पर लोगों को लग रहा था कि सघन बनों से आच्छादित इस विहड़ में कौन आने साहस करेगा.उनको जमींदार पर भी भरोसा था कि अगर ऐसा हुआ भी तो वे उनकी और मंदिर दोनों की रक्षा कर लेंगे.फिर चार दिनों की तो बात थी.दुर्गा माँ की पूजा में विघ्न पडेगा,ऐसा तो वहाँ कोई सोच ही नही सकता था.
सप्तमी भी बिना किसी बाधा के बीत गया.लोगों के दिलों में आशंका और दिमाग में हलचल तो थी,पर उनको लगता था कि माँ दुर्गा कल्याण करेंगी.पर ब्रह्मत की परेशानियां बढ़ गयी थी.विश्वास तो उसको भी था कि माँ की पूजा में विघ्न नहीं पड़ेगा,पर इस मौके पर उसका विश्वास कभी कभी डग मगा जा रहा था.बेचारा पुजारी अपने मन की व्यथा और चिंता किसी के सामने प्रकट भी नहीं कर सकता था.वह तो इस मंदिर के साथ तन,मन,धन से समर्पित था.यह मंदिर तो उसके स्वप्नों का साकार रूप था.यह तो उसी को पता था कि इस मंदिर को यह रूप देने और उसको इस प्रसिद्धि तक लाने में उसे कितना परिश्रम करना पड़ा था. ब्रह्मत पर बहुत संकट पहले भी आचुके थे, पर आज जैसी विवशता का अनुभव उसे पहले कभी नहीं हुआ था. उसे ज्ञात था कि जमींदार साहब अपनी जान देकर भी मंदिर की रक्षा का पर्यत्न करेंगे, पर उसको मालूम था कि उनकी शक्ति सीमित है.फिर वे भी तो मुग़लों के अधीन हैं.
सप्तमी तो बिना किसी बाधा के पार हो गया पर अष्टमी को सबेरे से ही बहुत हलचल थी प्रातः कालीन पूजा तो किसी तरह समाप्त हुई पर पुजारी ब्रह्मत को ज्ञात हो गया था कि आज ही शायद आक्रमण हो जाये.जमींदार साहब अपनी प्रतिज्ञानुसार मंदिर के लिए अपने प्राणों की आहुति देने के लिए सदल बल आगे बढ़ चुके थे,पर ब्रह्मदत को मालूम था कि इस बाढ़ को रोकना उनके लिए असम्भव है और संध्या बेला या रात्रि के प्रथम प्रहर तक मंदिर का ध्वंश होना तय है.उसको जो करना था ,वह तुरत करना था.आज ,उसको अपने आश्रय दाता वृद्ध पुजारी की बहुत याद आरही थी.
अंततः उसने निर्णय ले ही लिया .उसने जब लोगों को बताया कि उन्हें तुरत नदीं में प्रतिमा विसर्जित करनी है तो उन्हें लगा कि पुजारी पागल हो गया है.कहीं अष्टमी को माँ की प्रतिमा का विसर्जन होता है? यह तो माँ का अपमान होगा और माँ हमें इस अपराध केलिए कभी क्षमा नहीं करेगी, पर जब पुजारी ने उन्हें समझाया कि क्या वे चाहते हैं कि माँ की मूर्ति मलेच्छों के हाथ लगे. माँ की मर्यादा भंग हो .उनकी प्रतिष्ठा को आंच आये, अगर नहीं तो आगे आओं और माँ की प्रतिमा को गोआई नदी में विसर्जित कर दो.लोगों को पुजारी पर अगाध विश्वास तो था ही.उसके कथन में भी सत्यता की झलक थी.आनन फानन में प्रतिमा विसर्जन का प्रवंध हो गया और लोग माँ की प्रतिमा को जल प्रवाह के लिए ले चले.उधर सूर्य का अवसान हुआ और इधर माँ की प्रतिमा ने असमय ही जल समाधि लेली. लोग तो अपने घर चले गए पर ब्रह्मदत्त कहाँ जाता? वह भी सर झुकाए भारी कदमों से मंदिर की और बढ़ा. इस धुंधलके में भी कुछ लोगों ने उसे मंदिर के द्वार तक देखा था, पर यह क्या ? मंदिर से अचानक भयंकर गडगडाहट की आवाज आयी और वह इस तरह धराशाई हो गया जैसे उसका निर्माण ताश के पत्तों से हुआ हो. लोग तो भयभीत हो गए.उन्हें तो यह भी लगा कि पुजारी तो मंदिर के अन्दर गया था, उसका क्या हुआ? अधिकतर लोगों को यही लगा कि मंदिर के साथ ही पुजारी की भी इह लीला समाप्त हो गयी.उन्हें मंदिर के ढहने के साथ साथ पुजारी के जाने से अपार कष्ट हुआ.विध्वंसक टोली रात्रि वेला में वहां पहुँची अवश्य,पर वे लोग वहां का दृश्य देख कर अवाक रह गए.उनका सेनापति भी शायद यह दृश्य देख कर भयभीत हो गया था और उन्होंने वहाँ से लौटने में ही कुशल समझी.जमींदार तो लगता है,उनको रोकने के पर्यत्न में शहीद हो चुके थे.उनका परिवार भी रातों रात न जाने कहाँ चला गया था.सबेरा होने पर लोगों ने देखा कि महल भी वीरान पडा हुआ है.
उसके बाद तो लगा कि सब कुछ ठहर सा गया है. चारो ओर एक भयानक सन्नाटा व्याप्त हो गया था.लोग इतने भयभीत हो गए थे कि एक दूसरे की साया से भी डरने लगे थे.पर यह शान्ति स्मशान की शान्ति थी. पता नहीं चल रहा था कि कब क्या हो जाएगा?
चन्द महीने बीत गए थे और सब कुछ सामान्य होने लगा था.सर्वत्र एक शान्ति भी छाई रहती थी .लगता था कि अभी भी लोग उस दुःख को भूल नहीं पाए थे. एक अजीब सन्नाटा था. लगता था कि कोई तूफ़ान आने वाला है. वहाँ के ज़मींदार की जगह एक मनसब दार ने ली थी.
तभी उसका आगमन एक तूफ़ान की तरह हुआ.पता नहीं, इतना भयंकर दस्युं कहाँ से उत्पन्न हो गया था.वह तो एक झंझावात था.एक तूफान था.अपने दल के साथ जिधर से गुजरता, लोग दहल जाते.उसके उसके दल के घोड़ों के टापों की आवाज, उसके दल के चलने के साथ उठता हुआ बवंडर! लोग सोच भी नहीं पाते थे और उसका आक्रमण हो जाता था.शासक वर्ग के लिए वह दस्यु था, एक दुर्दांत दस्यु, पर निरीह निरा श्रित प्रजा के लिए वह देवदूत था.किसी असहाय के लिए तो वह ईश्वर तुल्य था.लगता था कि वह उनलोगों से प्रतिशोध ले रहा है,जो मंदिरों के विध्वंश के कारण थे. कब और किसको वह मौत के घाट उतार देगा, यह कहना बहुत कठिन था.पहले तो उसे स्थानीय तौर पर दबाने का पर्यत्न किया गया,पर जब वह काबू में नहीं आया और उसके कारनामे बढ़ते ही गए तो सेना से सहायता की गुहार लगाई गयी.
ऐसे तो वह हमेशा नकाबपोश रहता था और दल के लोग वर्दीधारी थे, पर कुछ लोगों ने उसके चेहरे की झलक देखी थी.उनको बहुत आश्चर्य हुआ था,क्योंकि उन्हें लगा था कि यह वर्दी वही गाँव के दुर्गा मंदिर का पुजारी ब्रह्मदत्त है उसीने नया रूप धारण किया है और अब प्रतिशोध ले रहा है अत्याचारियों के कुकर्मों का.उनको तो विश्वास भी नहीं हुआ था कि वैसा प्रकांड पंडित ऐसा कुकर्म कैसे कर सकता है?
बाद में तो सेना ने उसको पकड़ने के लिए व्यापक कार्रवाई प्रारंभ कर दी.जगह जगह स्तंभ बनाए गए .उन स्तंभों पर प्रकाश का भी प्रबंध किया गया और सैनिकों ने वहाँ दिन रात पहरा देना आरम्भ किया.सैनिकों ने अब पूरे वन प्रांत को अपने घेरे में ले लिया. कुछ दिनों तक तो वह फिर भी बचता रहा, पर घेरे के कसने के साथ ही उसकी गति विधियों पर भी अंकुश लगने लगा और वह पिंजड़े में बंद शेर की तरह अपने आप में सिमटता गया.उसके दल के लोगों के भी मृत्यु के समाचार आने लगे और फिर ऐसा लगा कि वह भी पकड़ में आने ही वाला है. पर वह अचानक लापता हो गया.उसका घोड़ा तो मिल गया पर अंतिम क्षणों में सेना उसकी झलक भी नहीं पा सकी.आखिरी समय वह मंदिर के आसपास के जंगलों में देखा गया था, वह घायल था और इस अवस्था में दूर तक जा भी नहीं सकता था, पर पता नहीं उसके बाद उसे धरती निगल गयी या आसमान खा गया.
लोग अंत तक यह भी नहीं समझ पाए कि वर्दी पुजारी ब्रह्मदत्त ही था जो चुन चुन कर प्रतिशोध ले रहा था या वह कोई अन्य व्यक्ति था.अधिकाँश लोगों को विश्वास हो चला था कि वह ब्रह्मदत्त ही था,पर इसका भी कोई प्रमाण उनके पास नही था.बहुत से लोग ऐसे भी थे जिनकी निगाह में ब्रहमदत्त मंदिर के साथ ही शहीद हो गया था.आश्चर्य की बात तो यह थी कि वर्दी को भी अंतिम क्षणों में मंदिर के निकट ही देखा गया था.अतः यह रहस्य ही रहा कि पुजारी ब्रह्मदत्त और वर्दी अलग अलग थे या दोनों एक ही व्यक्ति का अलग अलग रूप था.
उपसंहार
इस कहानी को सुने हुए पच्च्चीस वर्ष से ज्यादा हो गए थे..जैसे जैसे उम्र बढ़ती गयी,मेरा उस गाँव से संपर्क टूटता गया. वृद्धावस्था के कारण इधर अनेक वर्षों से वहाँ गया ही नहीं.कहानी और कहानी कहने वाले की एक धुंधली याद ही रह गयी थी, पर जब कल समाचार पत्र में प्रकाशित एक समाचार पर दृष्टि पडी ,तो मैं चौंक सा गया.
अंतत: पुरातत्व विभाग को देवल ग्राम और उसके आसपास के इलाकों के प्राचीनता और उनसे जुडी दंतकथाओं का पता चल ही गया .फिर तो उन्होंने भू अन्वेषण और खुदाई के कार्य का प्रारम्भ कर दिया.गावं के सुप्रसिद्ध मंदिर के भग्नावशेष की खुदाई करते समय उन्हें तब आश्चर्य हुआ ,जब उसके गर्भ गृह में एक नर कंकाल मिला.मिट्टी के तह में दबे हुए एक संकरे सुरंग का अस्तित्व भी सामने आया.किम्वदंतियों के अनुसार तो वहाँ दो नर कंकाल होने चाहिए थे. आसपास बिखरे हुए चंद स्वर्ण सिक्कों को देख कर तो ऐसा लगता है कि यह जिसका भी कंकाल है, वह शायद अपने अंतिम क्षणों में इन सिक्कों के साथ यहाँ आया था.
यह सब देखकर ऐसा लगता है ,कि यह उसी कुख्यात दस्यु का कंकाल है,जो घायलावस्था में अंतिम क्षणों में इस मंदिर के आसपास देखा गया था.लोगों की मान्यतानुसार मंदिर के अंतिम पुजारी का कंकाल भी यहीं होना चाहिए,क्योंकि लोगों ने उसे भी मंदिर ध्वस्त होते समय यही विलीन होते हुए देखा था.यह देख कर तो ऐसा लगता हैकि जिनका यह कहना है कि पुजारी और दस्यु एक ही व्यक्ति के दो रूप थे,वे ही ठीक लगते हैं.चूंकि पुजारी मंदिर के चप्पे चप्पे से परिचित था,वह शायद उस संकरे सुरंग के रास्ते निकल गया था . दस्यु के रूप में भी अपने लिए सबसे सुरक्षित स्थान उसी को समझा और अपने जख्मों के कारण वहीं अंतिम साँस ली.
अब मैं सोच में डूब गया हूँ.त्रेता युग की कहानी है कि रत्नाकर नामक भयंकर दस्यु ज्ञान प्राप्त कर बाल्मीकि ऋषि बन गया था.यहाँ तो परिस्थतियों ने बाल्मीकि को रत्नाकर बना दिया था.
माननीय आर सिंह जी मेरे टिप्पणी करने का मकसद सायद आप जैसे पारखी से छुपा नहीं रहा होगा .
शत प्रतिशत यही है भारत का सच्चा इतिहास किन्त दुर्भाग्य है इस देश का कि इसे इतिहाश में कोई स्थान प्राप्त नहीं है बल्कि इसे एक किवदंती बना दिया क्या कहेंगे ऐसे चाटुकार स्वार्थी गद्दार इतिहाश्कारो को जिन्होंने अपने अतीत को सामने न लाके विदेशियों कि चरण वंदना को देश का सौभग्य कह कर प्रचारित एवं प्रसारित किया /करते है ?
फिर भी हिन्दू समाज ने कोई सबक ना ले कर नैतिकता की अंधी दौड़ में सभी प्रतिभागी बनकर शामिल हो गए है .
लानत है ऐसे नैतिक महापुरुषों पर और मंदबुद्धि हिन्दुओ पर जिन्हें अपने लोगो के मान सम्मान पर कोई ऐतराज नहीं भले ही कोई इनके स्म्मानानियो को जूतों से पीटे इन पर कोई फर्क नहीं पड़ता क्योकि –
हम है हिंगलिश मीडियम से पड़े लिखे आधुनिक सेक्युलर हिन्दू .
आपके लेख कि जितनी भी सराहना कि जाय कम है क्योकि यही है हमारे अतीत का गौरव जिसकी वजह से आज हिन्दू धर्म मृतप्राय जीवित है
विमलेश जी ,आपको इस कहानी पर किसी भी तरह की टिप्पणी का अधिकार है .पर सच पूछिए तो यह कहानी है भी नहीं .यह को किम्वदंतियों(दन्त कथाओं ) में छिपा हुआ भारत का इतिहास है,जिसको मैंने अपने ढंग से पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है.
आर सिंह जी आपकी इस कहानी को यदि कहानी के तुओर पर देखा जय तो एक बोरिंग थकाऊ चीज है अन्यथा इसके पड़ने में जितना समय लगा उतने समय में शीला की जवानी और मुन्नी बदनाम हुयी दोनों सुमधुर गीत सुन लेता !
किन्तु
मेरा मन नहीं मानता ऐसी अनेक कहानियो के कारण आज हिदू धर्म जीवित है अन्यथा आपकी कहानी ही सबकुछ सिद्ध भी करती है .
धन्यवाद