कहानी सुनने-सुनाने की परम्परा

         
                 *केवल कृष्ण पनगोत्रा

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी महोदय 27 सितंबर 2020 को मन की बात के माध्यम से अपने विचार साझा कर रहे थे. हालांकि मन की बात के इस भाग में उन्होंने कृषि और शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह पर भी विस्तार से चर्चा की लेकिन कथा-कहानी की परंपरा को जिंदा रखने को लेकर उनका चिंतन बहुत अच्छा लगा. वह किस्सा गोई के विषय में चर्चा कर रहे थे. वह बता रहे थे कि परिवार में हर सप्ताह प्रत्येक सदस्य एक कथा सुनाने की परम्परा बनाए. जब हम शहीद भगत सिंह की बात करते हैं तो विचारों और वस्तुओं को तर्क और विज्ञान के पहलू से अछूता नहीं छोड़ सकते. यदि शहीदे आजम को कोई नास्तिक के बजाए आस्तिक बताए तो यह उनके विचारों से अन्याय होगा. इस संदर्भ में उनकी पुस्तक ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ एक जिंदा नजीर के रूप में प्रतिस्थापित है. .  और जब हम कृषि की बात करें तो बाबा जित्तो जैसे उन क्रांतिकारी किसानों के संघर्ष को विस्मृत नहीं कर सकते जिन्होंने कृषक अधिकारों को लेकर जीवन का बलिदान दिया. 
नि:संदेह किस्सा गोई एक अच्छी परम्परा है.  कहानियों का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी कि मानव सभ्यता मगर वर्तमान समय में यह प्रथा लुप्त प्राय: हो चुकी है. मेरी आयु इस समय 58 वर्ष है. आप हैरान हो सकते हैं कि करीब तीस साल तक मैं अपने दादा जी से कहानियां सुनता रहा. मेरी इस रुचि ने मुझे पढ़ाई के साथ अतिरिक्त पठन का शौकीन बना दिया और तदोपरान्त एक तुच्छ सा लेखक भी.
दादा जी स्वतंत्रता से पूर्व कराची में ऊंट गाड़ी चलाने का काम करते थे. वह मुझे पौराणिक प्रसंगों के अलावा कराची में अंग्रेजी राज की जमीनी सच्चाई और अनुभवों के बारे में बताते थे. इतिहास में परास्नातक होने के बावजूद भी मुझे इतिहास की पुस्तकों में वो बुनियादी जानकारी नहीं मिली जो दादाजी की बातों से मिलती थी. दादाजी बताते थे कि गोरे लोग उसूलों के बड़े पक्के होते थे. वे चालाक जरूर थे लेकिन सामान्य जीवन में मानवीय मूल्यों में भी विश्वास रखते थे. यही वजह थी कि अंग्रेजी राज में महिलाएं सुरक्षित थी और अंग्रेजी राज में ही राजा राममोहन राय और लार्ड डलहोजी के प्रशासन काल में सती प्रथा पर पाबंदी लगाई गई.
इतिहास पढ़ने का उद्देश्य मात्र तिथियां और तथ्य याद रखना नहीं होता बल्कि घटनाओं का सामाजिक और मानवीय विश्लेषण भी होता है.
हम देखते हैं कि आज बच्चों में बुजुर्गों या बड़ों के पास बैठने की रुचि खत्म होती जा रही है. बुजुर्ग वास्तविक और स्थानीय इतिहास की एक ऐसी पुस्तक होते हैं जो शायद ही किसी पुस्तकालय में मिलती है. उपभोक्तावाद और स्वार्थपरक मानसिकता के चलते बुजुर्गों से कहानी सुनने की प्रथा खत्म होती जा रही है. आजकल अगर परिवार के सदस्य कहीं मिल कर बैठ भी जाएं तो विषय सामाजिक या नैतिक मूल्यों पर केंद्रित होने के बजाए पैसे की मारामारी पर आधारित रहता है. माँ-बाप की बातों का केंद्र बिन्दु बच्चों को पैसा कमाने वाली मशीन बनाने का होता है. बेटा डॉक्टर,  इंजिनीयर या प्रशासनिक अधिकारी बने तो..?
जब हम स्कूल में प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर थे तो जादू का घोड़ा और जादू की परी पढ़ा करते थे. पंचतंत्र की कहानियों का समय था. यह कहानियां तिलिस्मी हुआ करती थीं. वैज्ञानिक दृष्टि से कोसों दूर. मगर उद्देश्य मानवीय और सामाजिक हुआ करते थे. बचपन में दादा जी कहानी सुनाते थे जबकि पिता जी ने किशोरावस्था में समय निकाल कर या उचित समय में बातें सुनाने को बेहतर समझा. पिता जी की कहानियों का केन्द्र बिन्दु तिलिस्म के बजाए तर्क प्रधान हुआ करता था. पिता जी डुग्गर प्रदेश जम्मू सूबा के एक किसान बाबा जित्तो की कहानी जब सुनाते तो तिलिस्म के बजाए तर्क को प्राथमिकता देते थे. वह जित्तो बाबा को अपने जायज अधिकार के लिए लड़ने और जान देने वाले क्रांतिकारी किसान के रूप में देखते थे.
बाबा जित्तो को लेकर डोगरी बोली में एक (कारक) शंद है:
रुक्खी कनक नईं खांणी मैह्तेया,
दिन्ना मांस रलाई!
मैहत्ता एक जमींदार था जो जित्तो बाबा की सारी उपज हड़प्प कर लेना चाहता था. तब बाबा जित्तो किसान ने गेहूँ के ढेर पर कटार से अपना गला काट दिया, यह कहते हुए कि मैहत्ता रूखा गेहूँ नहीं, मांस भी मिलाकर देता हूँ. यह कहकर बाबा ने गेहूँ के ढेर को अपने खून से रंग दिया और किसानों को जमीदारी प्रथा के विरुद्ध संघर्ष का कालजयी संदेश दे गए.
पिता जी जम्मू सूबा, पंजाब आदि प्रदेशों में कई जातियों-उपजातियों के कुलदेव कहलाने वाले देवता कालीवीर को भी एक तार्किक के रूप में देखते थे. जब राजा मंडलीक को बंगाल में कैद कर लिया गया तो राजा की माता ने कालीवीर को तलाश करने के लिए भेजा. मंडलीक की माता का मत था कि उनके बेटे को बंगाल में डायन औरतों ने जादू से कैद किया है. पिता जी एक शंद सुनाकर बताते थे कि :
डैण-भूत नीं होंदा माता,
होंदी अक्ख बटाई!
यानि हे माता! डायन या भूत-पिशाच कुछ भी नहीं होते, मात्र आंख का धोखा है.
मसला यह है कि कहानी सुनने-सुनाने की प्रथा को बनाए रखना बच्चों में सुसंस्कृति, तर्कशीलता और सामाजिकता का बीज बोने का काम करती है, शर्त कि कथा-कहानी सुनाने का दृष्टिकोण तार्किक और वैज्ञानिक हो. हमारा संविधान भी वैज्ञानिक शिक्षा पर बल देता है.
इसलिए प्रधानमंत्री जी के इस विचार से मैं सहमत हूं कि परिवार में प्रत्येक सदस्य बच्चों को कहानी सुनाने की प्रथा पैदा करे. मगर मेरा यह मत है कि कथा-कहानी का उद्देश्य वैज्ञानिकता और तार्किकता पर आधारित हो.
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