देश का नेता कैसा हो? फलां जी के जैसा हो। इस तरह के नारे चुनाव के समय बहुतायत रूप में सुनाई देते हैं। तब लगता है कि जिस नेता को हम अपने देश की सत्ता देने जा रहे हैं वह हमारे लिए कुछ विशेष करेगा। चुनाव के बाद एकाएक तस्वीर बदल जाती है। सत्तासीन होने के बाद सत्ता से दूर नेता और उसके दल का एक सूत्रीय कार्यक्रम होता है सत्ताधारी दल को सत्ता से हटाना।
हमें भी याद नहीं रहता कि हमने नारे किस नेता के लिए लगाये थे? किस नेता को देश का प्रतिनिधि बनाने को वोट डाला था। नेता भी सब कुछ भूल भुला कर अपने आपको विकसित करने में लग जाता है। देश की समस्या क्या है, आम आदमी का हाल क्या है, लोगों के जीवन यापन के लिए क्या प्रयास हो रहे हैं आदि आदि पर उसका ध्यान ही नहीं जाता है।
हाल फिलहाल में देश में मँहगाई और मंदी का एकसाथ आगमन हुआ। आम आदमी की कमर ही टूट गई पर सरकारी स्तर पर आश्वासन के अलावा कुछ नहीं हुआ। सोचा जा सकता है कि एक आम आदमी जो नित काम धंधे के बाद एक वक्त की रोटी का जुगाड़ करता है वह इस मँहगाई में कैसे जिन्दा रहेगा? यह अपने आपमें बड़े आश्चर्य की बात है कि एक तरफ देश मंदी की मार से बेहाल रहा और दूसरी ओर मँहगाई भी छाई रही। हमारे लिए तो यह अर्थशास्त्रीय समीकरण समझ से बाहर ही रहा। बहरहाल……….आम आदमी को अभी भी इस बात से सरोकार नहीं कि परमाणु समझौता होने के बाद देश ज्यादा शक्तिशाली होगा या फिर अमेरिका के ऊपर आश्रित हो जायेगा?
आम आदमी को इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि सुखोई की खरीद में सरकार को फायदा है या मिग की खरीद में।
आम आदमी के लिए इस बात का भी महत्व नहीं रहता कि अन्तरराष्ट्रीय कूटनीति में किस देश के साथ सम्बन्ध किस स्तर से बनाये जाने चाहिए। उसके लिए तो परमाणु संधि है उसके लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़। उसके लिए अन्तरराष्ट्रीय संधि है अपने बीवी बच्चों का पेट पालना। उसके लिए सुखोई और मिग का सम्बन्ध बस इतना है कि उसके सिर पर भी एक छत हो जिसक नीचे वह रात का सो सके।
सरकारों का, राजनैतिक दलों का इन सब पर ध्यान नहीं है। ध्यान है तो भारत पाक बँटवारे के दोषियों की पहचान करने में। राजनेताओं का ध्यान है तो इस बात में कि किस दल की सरकार में कितने और कौन से दंगे हुए। राजनेता चाहता है कि तुष्टिकरण की नीति के चलते उसको सत्ता मिल जाये भले ही करोड़ों की धनराशि किसी भी पत्थर, इमारत, मूर्ति पर खर्च हो जाये। नेताओं का काम इस ओर केन्द्रित रहता है कि कब किस दल में जाकर उच्च पद को प्राप्त करना है, किस दल की तारीफ करना है और किसकी बुराई।
किसी भी दल का ध्यान इस पर नहीं है कि आम आदमी खा क्या रहा है, पी क्या रहा है। उसे मतलब नहीं कि आम आदमी अपनी मौत मर रहा है कि उसे नकली खून दिया जा रहा है। नेता को इस बात से भी कोई लेना देना नहीं कि देश में गरीबों की संख्या लगातार बढ़ रही है और नेताओं की सम्पत्ति करोड़ों में कैसे पहुँच रही है। नेता को अपने आपको मालामाल करने में ज्यादा आनन्द आ रहा है बजाय इस बात के कि उसके क्षेत्र का कितना विकास हुआ है।
आपने अभी गौर किया होगा कि देश के अन्दर ही देश के पूर्व राष्ट्रपति की तलाशी ली गई मगर एक खबर बनने के अलावा इस घटना पर कुछ भी नहीं हुआ। अपनी औपचारिकता दिखाने के लिए दो चार राजनेताओं के बयान आ गये, समाचार पत्रों में छप गये, टीवी पर आ गये, बस। इसके अलावा क्या हुआ?
प्रोफेसर सभ्भरबाल की मारपीट के कारण मृत्यु हो जाती है। न्याय के आधार पर दोषियों को मुक्ति मिल जाती है कि उनके खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं हैं। चलिए मान लिया गया कि उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं है पर क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि प्रोफेसर सभ्भरबाल की मौत मारपीट के कारण नहीं हुई? इससे इंकार नहीं है कि उनकी मौत हुई वो भी पिटाई से तो पीटने वाले कहाँ हैं? चलिए जो छूट गये वो दोषी नहीं थे पर कोई तो दोषी रहा होगा। ऐसा तो सम्भव नहीं कि कोई अदृश्य ताकत आकर सभ्भरबाल को पीटने लगी हो और उनकी मौत के बाद वह गायब हो गई हो। अब सवाल उठता है कि क्या इस पर कानून, न्यायालय सख्त नहीं हो सकता है? आखिर एक व्यक्ति की जान का सवाल है, एक शिक्षाविद की मारपीट के बाद हुई मौत का सवाल है। सब खामोश हैं कोई कुछ बोलता ही नहीं। न नेता, न शिक्षक नेता, न शिक्षण संस्थान और न नही सरकारें।
नकली खाद्य सामग्री खुलआम बिकती रही, बिकती है पर क्या हो रहा है? इन पर कार्यवाही तो हो न सकी इधर नकली खून भी बाजार में आ गया। इसके बाद भी किसी भी नेता के बयान सुनने को नहीं मिले। कारण सब हिन्दुस्तान विभाजन के गुनाहगार को खोजने में लगे हैं।
देश कैसे और किसके भरोसे चल रहा है, कभी कभी यह सोच कर ही हैरानी तो होती ही है साथ ही परेशानी भी होती है।
सोचिए कि सब इतने खामोश क्यों हैं? साचिए कि हम भी इतने खामोश क्यों हैं?
सचमुच पथ सॆ भटक चुकी है भारतीय राजनीति |आम आदमी आज ज़िन्दा लाश की तरह जीवित है| गरीब और गरीब तॊ अमीर् और अमीर हॊतॆ जा रहॆ है|सन्सद मॆ सशक्त विपक्ष का अभाव है|महगाई,बिजली , पानी जैसी सुविधाओ कॆ नाम पर वॊट मागनॆ वालॆ नॆताऒ नॆ जनता की सुध लॆना छॊड् दिया है| सरकार का तानाशाही रुप सामने आना शुरु हो चुका है| जनता के ज़ज़्बातो से कब तक खेला जाता रहेगा?