मुसलमानों का सशक्तिकरण क्यों ?

‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ को नये शब्दों में ढाल कर “मुस्लिम सशक्तिकरण” का नामकरण करके मोदी सरकार के अल्पसंख्यक मंत्रालय के मुस्लिम मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी दृढ़ता पूर्वक अनेक योजनायें स्थापित कर रहें है | केंद्र की पूर्व सरकारों द्वारा मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियों को “अफीम” बताने वाले नकवी जी ने क्या बहुसंख्यक समाज को अज्ञानी व मुर्ख समझ लिया है । क्या बहुसंख्यकों के साथ भेदभाव बढ़ा कर केवल मुसलमानों को सशक्त करके वे किस प्रकार  ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ से अपने को पृथक रख सकते है | निसंदेह यह वास्तविकता है कि ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ हेतु ही “मुस्लिम सशक्तिकरण” किया जा रहा है | राजनीति में अनेक कार्य सत्ता पाने के लिए किए जाते है, उसी हेतु ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ को बढ़ावा दिए जाने की दशको पुरानी परम्परा चली आ रही है | जोकि वर्तमान वातावरण में एक मृगमरीचिका से अधिक कुछ नहीं |  क्योंकि जब भा.ज.पा. “राष्ट्र्वाद” और “सबका साथ व सबका विकास” के नाम पर सत्ता पाने में सफ़ल हुई है तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह मुसलमानों को अलग से लाभान्वित करने की परम्परा को बनायें रखें ? ध्यान रहें ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ की बढ़ती हुई योजनाओं से आहत व तिरस्कृत होने वाले बहुसंख्यक हिन्दू समाज ने ही गुजरात के राष्ट्रवादी नायक श्रीमान नरेंद मोदी को 2014 के आम चुनावों में सत्ता के शीर्ष पद पर बैठाया था ।
इसमें कोई संदेह नही कि ‘तुष्टिकरण’ हो या ‘सशक्तिकरण’ दोनों का ध्येय तो एक ही है कि अल्पसंख्यक कहे जाने वाले मुसलमानों के मताधिकारों की फसल काट कर उसके सहारे चुनावों में विजय प्राप्त करके सत्ता का सुख भोगा जाये।राष्ट्रवादी समाज को साधे रहने के लिये शब्दों के संजाल से भ्रमित करके मुस्लिम पोषित राजनीति को बल देना सर्वथा बहुसंख्यकों के स्वाभिमान को ठेंगा दिखाने के समान है। क्या बहुसंख्यकों को चुनावों में विभिन्न प्रकार के लुभावने नारे जैसे “तुष्टिकरण किसी का नही”  आदि द्वारा ठगा जाना उचित था ? क्या चुनावों में जनता को भ्रमित करने के लिए नेताओं को कुछ भी कहने का अधिकार है ? यह अतिनिन्दनीय है कि बहुसंख्यको के मतों से जीतने वाली सरकार भी अल्पसंख्यको के पोषण में निरंतर सक्रिय है ? अनेक समस्याओं से घिरे हिंदू समाज को क्या साधन नहीं चाहिए ? क्या वIह निर्धन व पिछड़ा हुआ नहीं है ? अगर निष्पक्ष निरीक्षण किया जाए तो ज्ञात होगा कि मुसलमानों की जनसँख्या से अधिक अभी भी हिन्दू दलित व पिछडे हुए है | उस पर भी कैसा विरोधाभास है कि जिस सच्चर कमेटी द्वारा 2007 में मुस्लिमो की स्थिति पर प्रस्तुत की गयी सुनियोजित रिपोर्ट का भारतीय जनता पार्टी ने सदा विरोध किया , वहीं आज सत्ता में आने के बाद उसी रिपोर्ट को आधार मान कर मुस्लिमों के सशक्तिकरण में लगी हुई है | अगर सरकार चलाने के लिए मुसलमानों के तुष्टिकरण की राजनैतिक विवशता को नकारना संभव नहीं तो फिर मोदी जी के कथन कि “वे सरकार नहीं देश चलाने आये है” का  क्या तात्पर्य है ?
पूर्व में भी सोनियानीत सप्रंग सरकार ने अपने कार्यकाल के दस वर्षो में बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक के बीच अनेक षड्यंत्रों द्वारा देश में परस्पर समाजिक भाईचारा कम करके वैमनस्य को बढ़ावा दिया था | पहली बार 2006 में अल्पसंख्यक मंत्रालय का गठन करके संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरुप का स्पष्ट उल्लंघन हुआ | उस समय के प्रधानमंत्री श्री मनमोहनसिंह ने राष्ट्रीय एकता परिषद में 17 दिसम्बर 2006 में सहर्ष घोषणा की थी कि भारत के संसाधनों पर पहला अधिकार (अल्पसंख्यक) मुसलमानों  का है। लोकतांत्रिक सरकार का यह भी एक अधिनायकवादी चेहरा था | उस अवधि (2004-2014) में उच्च सरकारी पदों पर जहाँ जहाँ संभव हुआ वहां वहां अल्पसंख्यकों की नियुक्ति की जाती रही | यह कहना भी अनुचित नहीं की सच्चर समिति की रिपोर्ट भी अल्पसंख्यको को लाभान्वित करने की मानसिकता से ही बनवाई गयी थी | सोनिया/कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के समय अल्पसंख्यक पोषित योजनाओं को विस्तार से समझने के लिए भारतीय पुलिस सेवा के अवकाश प्राप्त अधिकारियों श्री रामकुमार ओहरी व श्री जयप्रकाश शर्मा द्वारा अंग्रेजी में लिखित पुस्तक “द मेजोरिटी रिपोर्ट” जो 2013 में प्रकाशित हुई थी का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि धर्मनिरपेक्षता का प्रवचन करने वाले अनेक असंवैधानिक उपायों से अल्पसंख्यको को सशक्त करते जा रहें हैं ।
भारतीय विदेश सेवा के अवकाश प्राप्त राजदूत श्री ओमप्रकाश गुप्ता ने भी अपनी व्यक्तिगत वेबसाइट  (www.opgupta.org) में हिन्दुओं के साथ किये जाने वाले बृहत शोषणकारी भेदभाव के विस्तृत आंकडें दिए है | अल्पसंख्यको को लाभ पहचानें की समस्त सरकारी योजनाओं का विस्तृत विवरण सरकारी वेबसाइट (www.minorityaffairs.gov.in) में देख कर अगर कुछ निर्धन हिन्दू धर्मपरिवर्तन को उत्सुक हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होगा | क्योंकि गावों और दूरस्थ क्षेत्रो में रहने वाले पिछड़ी जाति, अनुसूचित जनजाति व जातियों के हिन्दुओं की आर्थिक व समाजिक स्थिति मुसलमानों से भी अधिक दयनीय है। स्वतंत्रता के 70 वर्ष बाद भी अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रो में आधारभूत सरंचना का विकास भी अभी तक नही हो पाया है।
यह भी समझना होगा कि कुल मुसलमानों की संख्या की तुलना में भी हिंदुओं की संख्या अधिक है जो पिछड़ी हुई है और संसाधनों की कमियों को झेल रही है।सुरेश तेंदुलकर समिति की संभवतः 2012-13 में आई एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या का लगभग 37.2 % भाग गरीबी रेखा (बीपीएल) से नीचे रहता है। अतः इसके अनुसार बीपीएल के नीचे रहने वाले हिंदुओं की संख्या उस समय लगभग 35-36 करोड़ थी जोकि अधिकांशतः ग्रामीण क्षेत्रो व नगरों में झुग्गी – झोपड़ियों में रहने को विवश है।निर्धनतम हिंदुओं का शर्मनाक शोषण और उनसे किये जाने वाला निर्लज्ज भेदभाव किसी भी हिन्दू राजनेता, मानवाधिकारवादियों व समाजिक कार्यकर्ता एवं धर्माचार्यों को क्यों नही पीड़ा देता ? क्या ये सब भौतिक सुविधाओं में इतने अधिक जकड़े जा चुके है कि उपेक्षित हिंदू समाज के दर्द से दूर रहने में ही अपना भला समझते है ?
इस सबके अतिरिक्त हमें सत्ता के लोभी राजनेताओं की उस घिनौनी मानसिकता को भी नही भूलना चाहिये जिसके अनुसार  ‘2011’ में  “साम्प्रदायिक हिंसा निरोधक विधेयक” का प्रस्ताव किया गया था । जिसके 9 अध्यायों में लिखी 138 धाराओं की भाषा को ही समझना बहुत कठिन था। जिसमें बहुसंख्यक हिंदुओं को ही अपराधी बनाये जाने के प्रावधान किये गये थे, जबकि अल्पसंख्यक मुस्लिम व ईसाई आदि को कभी भी दोषी नही माना था। वास्तव में इस षड्यंत्रकारी विधेयक की भूमिका में सोनिया गाँधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद सक्रिय थी। जिसमें मुसलमान, ईसाई व कुछ अन्य हिन्दू विरोधी सम्मलित थे। इस विधेयक का मुझ जैसे अनेक राष्ट्रवादियों ने देश के अनेक भागों में सैकड़ो गोष्ठियां व सेमिनार करके एवं लाखों पत्रक वितरित करके बड़े स्तर पर विरोध किया और इसको रुकवाने में सफल हुए थे। मै यहां एक विशेष बिंदू यह भी बताना चाहता हूं कि उस समय अधिकांश राजनैतिक दलो में इस असंवैधानिक विधेयक का विरोध करने के लिये कोई आक्रोश नहीं था।साथ ही इस गुपचुप तरीके से लाये जाने वाला विधेयक कुछ राष्ट्रवादी राजनेताओं के संज्ञान में भी बाद में आया था।
क्या भारत को जो अपनी धर्मभूमि, मातृभूमि, पितृभूमि व कर्मभूमि मानते है उनको अनेक प्रकार से उत्पीड़ित करके आक्रांताओं के वंशजो को प्रोत्साहित किया जाता रहें और उनके द्वारा दिये गये राजस्व से ही मुसलमानो का सशक्तिकरण करके उन बहुसंख्यक हिंदुओं से यह भी आशा रखी जाये कि वह  विभिन्न जिहादी अत्याचारों को सह कर भी सांप्रदायिक सोहार्द बनायें रखे ?  क्या धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में संविधान की मूल भावना के विरुद्ध जाकर अल्पसंख्यक आयोग व अल्पसंख्यक मंत्रालय आदि संस्थानों का गठन केवल इसलिए किया गया है कि अनेक योजनाओं से मुस्लिम समाज को मालामाल किया जाता रहें ? क्या इन अल्पसंख्यक संस्थाओं का देश में बढ़ती हुई जिहादी गतिविधियों के कारण बढ़ते सांप्रदायिक सौहार्द को नियंत्रित करने का कोई दायित्व नही ? क्यों नही वह उन धार्मिक शिक्षाओं व विद्याओं पर अंकुश लगाने का प्रयास करके जिहादी विचारधारा के प्रचार व प्रसार को नियंत्रित करते ? आज अल्पसंख्यक मंत्रालय व उनसे जुड़ी सभी संस्थाओं को देश में बढते अपराध व अलगाववाद एवं आतंकवाद को ध्यान में रखकर कुछ सकारात्मक ठोस कार्य ऐसे भी करने चाहिये जिससे समाजिक भाईचारा बढें और सदियों पुरानी हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक कटुता नष्ट हो सकें।

 

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