सूर तुलसी विद्यापति की बोली अब मानक हिन्दी के अनुकूल नहीं

—विनय कुमार विनायक
सूर तुलसी और विद्यापति की आंचलिक बोली
अब मानक हिन्दी राष्ट्र भाषा के अनुकूल नहीं,
विद्यापति सूरदास तुलसीदास जब लिख रहे थे,
तब हिन्दी भाषा नहीं जन्मी, ना फूली फली थी,
बिल्कुल गर्भस्थ शिशुवत,कलियां नहीं खिली थी!

उत्तर भारत में संस्कृत पाली प्राकृत और अपभ्रंश,
विदेशी अरबी तुर्की फारसी भाषाई आक्रांताओं की
असि मसि के प्रहार से टूट बिखर,अपभ्रंशित होके,
मागधी अर्धमागधी शौरसेनी आदि क्षेत्रीय बोलियां
स्थानीय भाषाओं के रुप में विकसित हो रही थी!

कोशी गंगा गंडक नदी के तट मैदान कछार में
मैथिल कोकिल विद्यापति पदावली सुना रहे थे
‘कि करब जप-तप जोग धेआने जनम कॄतारथ
एकहि सनाने’ के बहाने काल्पनिक सद्यस्नाता,
परकीया युवती राधा से बालकृष्ण को कामकेलि
कराके भगवान कृष्ण की कर रहे थे मानहानि!

विद्यापति काल की मैथिली हिन्दी नहीं, अंगिका
बंगला उड़िया की काफी करीबी थी बोली हमजोली,
विद्यापति अंगिका मैथिली बंगला उड़िया के कवि,
तब अंग बंग मिथिला कलिंग असम था समभाषी,
ये सारी भाषाएँ मागधी अपभ्रंश से संग संग चली!

विद्यापति थे नव जयदेव आधुनिक बंगला भाषा के
निर्माता, प्रेरणास्रोत बंकिम चंद्र रवीन्द्रनाथ टैगोर के,
आसामी भी मागधी से, ब्रज मैथिली से प्रभावित थी,
लिपि भेद से मैथिली बंगला उड़िया आसामी दूर हुई,
बंगला उड़िया आसामी एक ही आर्य भाषा परिवार की
समझने योग्य भाषाएँ,अलग लिपी से अहिन्दी हो गई!

उड़ीसा के अपभ्रंश कवि जयदेव की मांसल अभिव्यक्ति
गीत गोविंद को विद्यापति ने आश्रयदाता राजा रानी के
प्रेम को, कृष्ण राधा के रुप साम्य में आरोपित कर के,
देसिल बैयना में गा के बहला-फुसला लुभा-रिझा रहे थे!

उड़ीसा के जयदेव बंगाल शासक लक्ष्मण सेन के दरबारी,
विद्यापति तक मैथिली बंगला उड़िया की लिपि थी नागरी,
फिर मैथिली से बंगला, उड़िया, आसामी की लिपी बदली,
जयदेव विद्यापति कृष्णभक्त नहीं, थे शुद्ध श्रृगारिक कवि,
इन्होंने गीताज्ञानी कृष्ण की योगी छवि को भोगी बना दी!

काशी असी गंग तीर और चित्रकूट घाट पर तुलसी विप्र वेश में
चंदन घिसकर अवध के रघुवीर से वैष्णव छाप तिलक लगवाके,
अवध के वीर पर अवधी भाषा में, दोहा चौपाई छंद बना रहे थे,
शैव शाक्त निर्गुण साधु संतों को शापत ताड़त परुष वचन कहके
ढोल गवाँर सूद्र (शूद्र) पसू(पशु) नारी को ताड़ित प्रताड़ित कर के!

वाल्मीकि राम के समकालीन थे, तबतक जातियां नहीं बनी थी,
वाल्मीकि रामायण में वर्ण जाति व नारी के विरूद्ध दुर्भाव नहीं,
मगर तुलसी ने उन तमाम जातियों के खिलाफ दुर्भावना परोसी,
जिसकी जानकारी हिन्दुओं के आराध्य भगवान राम को भी नहीं!

यथा ‘आभीर जवन किरात खस स्वपचादि अति अघ रुप जे’
और जे बरनाधम तेलि कुम्हारा स्वपच किरात कोल कलवारा’
और’अधम जाति मैं विद्या पाएँ भयऊँ जथा अहि दूध पिआएँ’!

अर्थ आभीर(अहीर) यवन(विदेशी यूनानी)किरात(वनवासी) खस
स्वपच आदि(दलित) ये जातियां पाप रुप हैं, और तेली कुम्हार
कलवार(वर्णाश्रमी जाति) स्वपच(दलित) किरात कोल (वनवासी),
ये सब वर्णों में अधम हैं, अधम जाति का शूद्र मैं विद्या पाकर
ठीक वैसा ही हो गया जैसा कि दूध पिलाने पर सांप हो जाता।

आभीर यवन खस सुपच किरात कोल कलवार तेली कुम्हार आदि को
एक घटनी में घाटनेवाले तुलसी की मानसिकता कैसी ऊँची या ओछी?
क्या ये सारी जातियां वर्णाश्रमी थी, या वनवासी फिर वर्णाधम कैसी?
वैसे जन्म आधारित वर्णश्रेष्ठता व जातिवाद है,घृणित अमानवीय रीति,
फिर ये ‘रामबोला’ कैसे थे?सारे दुर्वचन खुद बोले,राम ने बोला कह दिए
राम के नाम सारी स्मृतियाँ लिख गए तुलसी,राम को बदनाम कर गए!

भगवान राम के प्रति सभी धर्म जाति के नर नारी को है पूर्ण आस्था,
पर उस जातिवादी से क्या हो वास्ता जो निज जाति को पूज्य कहता?
पराई जाति हेतु अकारण घृणा द्वेष अपमान राम नाम से लिख जाता!

राम उवाच ‘सुनु गंधर्व कहउं मैं तोही,मोही न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही’
भगवान राम कहते हैं ‘मन क्रम वचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव,
मोही समेत बिरंची सिव बस ताके सब देव’ आगे ‘सापत ताड़त परुष
कहंता बिप्र पूज्य अस गावहिं संता,पूजिय बिप्र सील गुन हीना,सूद्र न
गुन गन ग्यान प्रबीना’ ‘पुन्य एक जग महुँ नहीं दूजा,मन क्रम वचन
बिप्र पद पूजा,सानुकूल तेहि पर मुनि देवा,जो तजि कपट द्विज सेवा’

वाल्मीकि रामायण में नारी शूद्र वनवासी खिलाफ बुराई बखान नहीं,
वाल्मीकि की कृति मादा क्रौंच पक्षी के करुण विलाप से निकली थी,
पर तुलसी ने वाल्मीकीय रामायण का अनुवाद किया था मनमाफिक,
मानस की नारी चाहे वनवासी दासी रानी देवी क्यों नहीं सब पातकी,
मंथरा शबरी कैकेयी भवानी सबके मुख से अधम कहला गए तुलसी,
विप्र छोड़ मानस में सारी जातियां नीच कपटी कुमति कुजाति होती!

शबरी कहे ‘केहि विधि अस्तुति करौं तुम्हारी,अधम जाति मैं जड़मति
भारी,अधम ते अधम अधम अति नारी,तिन्ह मंह मैं मतिमंद अघारी’
‘काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि, तिय बिसेषि पुनि चेरी कहि
भरत मातु मुसुकानि’ ये कथन मंथरा सहित सभी विकलांगों के लिए,
कैकई;‘सत्य कहहिं कबि नारी सुभाऊ,सब विधि अगहु अगाध दुराऊ’,
‘बिधिहु न नारि हृदय गति जानी, सकल कपट अघ अवगुण खानी’,
उमा;‘अब मोहि आपनी किंकरि जानी,जदपि सहज जड़ नारि अज्ञानी’

निषाद राज गुह कहते ‘कपटी कायर कुमति कुजाति लोक वेद बाहर
सब भांति, लोक वेद सब भांतिहि नीचा, जासु छांह छुइ लेइ सींचा’
हनुमान कहे‘प्रात लेइ जो नाम हमारा,तेहि दिन ताहि न मिले अहारा’
अस्तु तुलसी वाणी में शाब्दिक अशुद्धि मानसिक विकृति विप्र स्तुति
सर्व धर्म जाति के विरुद्ध अभिव्यक्ति से राम की छवि आहत होती!

सूर शौरसेनी भाषा भूमि मथुरा ब्रज की गलियों में
कृष्ण की बाल लीला और राधा संग रास लीला का
आनंद लेकर सूरसागर भ्रमरगीत राग आलाप रहे थे!

इधर लहरतारा काशी मगहर में निर्गुणवादी एक संत
अक्खड़ कवि कबीर खड़ी बोली को खड़ी घिसा रहे थे,
अमीर खुसरो की हिन्दवी को हिन्दी भाषा बना रहे थे,
‘वही राम दशरथ घर डोले वही राम घट घट में बोले
वही राम त्रिभुवन में न्यारा वही राम ये जगत पसारा’
कबीर खड़ी बोली के कवि, वाणीगुरु गुरुग्रंथ साहिब के!

मगर अभी भी हिन्दी की राह बहुत कठिन थी
मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद ‘कलाधर’ ब्रजभाषा में तल्लीन,
यद्यपि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र अपनी बहुमुखी प्रतिभा से
हिन्दी गद्य पद संवारकर असमय कालमुख में हो गए थे विलीन!

आधुनिक हिन्दी वैयाकरण पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने
मैथिलीशरण गुप्त को प्रेरणा दी, हिन्दी में लेखनी करने की,
मैथिलीशरण गुप्त ने ब्रजभाषा छोड़के हिन्दी में रामकथा पर
साकेत,मेघनाद वध और नहुष,जयद्रथ वध,यशोधरा समेत ढेर
सारे काव्य,खण्डकाव्य, मिथकीय महाकाव्य सृजन कर डाले!

जयशंकर प्रसाद ने ब्रजभाषा से हटके कामायनी महाकाव्य और
प्रचुर ऐतिहासिक काव्य, नाटक, कथा, उपन्यास रचनाएं रच दी,
चित्राहार, प्रेमपथिक,कानन-कुसुम, झरना, आंसू,लहर,अजातशत्रु,
ध्रुवस्वामिनी,चन्द्रगुप्त, स्कंदगुप्त,तितली,कंकाल इरावती कृति!

अब तो अंग भूमि चम्पा नगरी के कर्ण टीले से सटे
भागलपुर विश्वविद्यालय के प्रांगण से अंगिका भाषी
अंगवासी दिनकर खड़ीबोली हिन्दी में हुंकार भर रहे थे,
मिथकीय महाकाव्य उर्वशी, कुरुक्षेत्र,रश्मिरथी लिख के
वर्णाश्रमी ब्राह्मणी वर्ण-जातिवाद को ललकार रहे थे!

मगर हिन्दी साहित्य के संक्रमण दौर में
हिन्दी साहित्य के इतिहासकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने
हिन्दी की खाली झोली में मैथिली के विद्यापति
ब्रज के सूर, अवधी के जायसी, तुलसी को डाल दिए थे,
हिन्दी के रहनुमाओं ने इन्हें बड़े प्रेम से संभाल लिए थे!

पर अब तो ये हिन्दी की उपभाषाएँ मैथिली, ब्रजभाषा और अवधी
हिन्दी में व्याकरणीय अशुद्धि बनके हिन्दी पथ में रोड़ा अटकाने लगी,
यद्यपि इन कवियों की देशज वाणी सुनने में सबको बड़ी मीठी लगती,
पर लेखन में ‘ढोल गवाँर सूद्र पसू नारी’ सी भाषाई त्रुटि पिटाई जैसी!

अब हिन्दी को नहीं चाहिए ये क्षेत्रीय ग्राम्य भाषाई अशुद्धि,
ये आधुनिक मानक हिन्दी व्याकरण की भटकाने लगी बुद्धि,
अब अर्थ का अनर्थ हो जाता, इनके पीछे लग गए सारे नेता!

अब तो कथावाचक ही भाषा की सारी गुत्थी को समझाने लगे,
हिन्दी के छात्र व्याख्याता कवि को आस्था के नाम धमकाने लगे,
दूरदर्शन के चैनल टीआरपी के खातिर दूर की कौड़ी उड़ाने लगे,
राम कृष्ण के झूठे अपमान के बहाने जन भावना भड़काने लगे,
सूर सूर तुलसी शशि को राम कृष्ण से भी बड़े महान बताने लगे!

अब तो ले लो अपनी लकुटी कमरिया; हिन्दी की बीमारी,
बहुत दिनों से नाच नचाए, हिन्दी भाषा और साहित्य को,
ये अंधे कवि सूर बड़े प्रज्ञा चक्षु थे, नारी सौंदर्य नहीं दिखे,
इस हेतु आंख में सुई चुभो ली, फिर भी आराध्य बालकृष्ण
औ’ युवती राधा की रासलीला गोपी-सखा बनके देखे छुपके!

अब तो विद्यापति मिथिला की मीठी देशी बैयना में वापस हो,
सूर ब्रज की कुंज गली में विचरण करे,तुलसी मानस का देश के
मठ-मन्दिर व कथावाचक की व्यासगद्दी से धार्मिक प्रवचन हो,
अगर सूर तुलसी विद्यापति की रचना आलोचना से परे चाहते
तो आकादमिक कक्षाओं से हटाकर धार्मिक ग्रंथ घोषित कर दो!

तुलसी ने वसुधा के राम को ‘बिप्र धेनु सुर संत हित’ काम में लगा दिए,
विप्र द्रोहियों को राम से धमकी दिला दिए ‘मोही न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही’,
तुलसी ने विप्रद्रोही को शिव से काक योनि पाने का अभिशाप दिला दिए!

अब तो हिन्दी की शुद्धि करो,अशुद्धि से बचा लो, आस्था पर युद्ध नहीं हो,
हिन्दी के छात्रों को साकेत,यशोधरा,कामायनी, उर्वशी,कुरुक्षेत्र,रश्मिरथी,चिदम्बरा,
परिमल,राम की शक्ति पूजा, यामा, मधुशाला,अंधेर नगरी,अंधायुग पढ़ाई हो!

सचमुच में ये युग है अंधा,
राम कृष्ण बुद्ध का नहीं है कोई बंदा,
सब कोई चला रहा है अपना गोरख धंधा,
सबका सब अंधेर नगरी का बाशिंदा!

राम राम जपते-जपते,जय जय परशुराम कहने लगते,
बंधी गाय मर जाए तो, गोहत्या का प्रायश्चित कराते,
मगर जगत के प्रथम मातृहत्यारा को उचित ठहराते!

राम कृष्ण बुद्ध जिन क्षत्रियों के पूर्वजों को बार-बार,
जिसने संहार कर चार वर्ण से हजार जातियां कर दी,
उनको विप्र स्वजाति अभिमान समझकर पूजा करते!

जय भीमवादी में भी बुद्ध की करुणा दया अहिंसा नहीं,
जय बुद्धाय नमो के नाम पर राम कृष्ण की निंदा करते,
जय भीम जय भीम कहकर अहिंसक बुद्ध को भूल जाते,
भीमसेन बलवान जैसा युद्ध का अखाड़ा मोर्चा खोल देते!

अब तो ‘गर्व से कहो हम शूद्र हैं’ का नारा भी वही लगाने लगे,
जो कभी डंडी, कभी डंडा चलाते,जिसकी लाठी उसकी भैंस कहते,
कभी ‘रामो जी राम’ ‘ठेल मंझियाईन तेरह’ तक गिन निर्धन का
‘सब धन बाईस पसेरी’ में नाप करके अपना महल अटारी भरते!

गर्व से कहो हम शूद्र कहनेवाले बड़े परवाले पक्षी,
छोटे-छोटे पक्षियों में स्वजाति भावना को भड़काते,
मौका पाते ही ये जरदगव गिद्ध बनके खा जाते!

बचो इन सत्ताकामी छद्मवेशधारी इन्द्र धनोष्मित जनों से
कि ये राम कृष्ण बुद्ध महावीर अवतार पैगंबर के नाम पर
जातिवादी साम्प्रदायिक भावना उभारकर अपना हित साधते!
—विनय कुमार विनायक

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