अरविंद केजरीवाल का ‘स्वराज’

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आर. सिंह

अन्ना हज़ारे ने इस पुस्तक के मुख्य आवरण पृष्ठ पर लिखा है, “यह किताब व्यवस्था-परिवर्तन और भ्रष्टाचार के खिलाफ हमारे आंदोलन का घोषणा -पत्र है और देश में असली स्वराज लाने का प्रभावशाली मॉडल भी”

इसके पीछे वाले आवरण पृष्ठ पर महात्मा गाँधी का विचार उद्धृत है.जो यों है, “सच्ची लोकशाही केंद्र में बैठे हुए दस बीस लोग नही चला सकते.सत्ता के केन्द्र बिंदु दिल्ली, बंबई और कलकत्ता जैसी राजधानियों में हैं.मैं उसे भारत के सात लाख गाँवों में बाँटना चाहूँगा.”

इसी आवरण पृष्ठ पर आगे लिखा है, “वर्ष २०११ अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार -विरोधी आंदोलन से परिभाषित हुआ. सालेगन सिद्धि के फकीर ने सत्ता के गलियारों में खलबली मचा दी. और इस बार तो मध्यवर्गीय भारत और यहाँ तक क़ि ‘इलीट’भी–जो क़ि सदा ही अपनी बैठक में राजनीति पर बहस करते नज़र आते थे–सड़कों पर निकल पड़े. अरविंद केजरीवाल की इस आंदोलन में महत्व पूर्ण भूमिका रही है. टीम अन्ना की मुख्य माँग थी, लोकपाल क़ानून का क्रियान्वयन. केंद्रिय शक्तियों ने वादे तो बहुत किए,लेकिन बिल अब तक संसद में पास नहीं हुआ.

यह किताब हमें इस मुकाम से आगे का रास्ता बताती है. लोकपाल पर चर्चा के अलावा, ये उपयोगी सुझाव देती है कि सच्चे स्वराज्य के लिए भारत की जनता और राजनीतिक पार्टियों को क्या करना चाहिए और क्या नहीं. सरकारी नीतियों की खामियों से लेकर ग्राम पंचायत के स्तर पर व्याप्त कमियाँ, बि.पि.एल. राजनीति,नरेगा का भ्रम,कृषि,शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी ज़रूरी सेवा में सुधार पर लेखक की विशेष टिप्पणियाँ हैं. एक जनतंत्र होने के नाते किस प्रकार इस देश की बागडोर उसके लोगों के हाथ दी जाए न कि नेताओं के कदमों तले, उस लक्ष्य की ओर अरविंद केजरीवाल की के किताब हमे अग्रसर करती है.”

महात्मा गाँधी ने कहा था, “सबसे गरीब और सबसे कमजोर आदमी के चेहरे को याद करो. और अपने आप से पूछो कि जो कदम तुम उठाने जा रहे हो,वह क्या उसके किसी काम आयेगा?क्या उसको इससे कोई लाभ होगा?क्या यह उसके जिन्दगी और उसकी तकदीर पर उसका अधिकार वापस दिलाएगा? दूसरे शब्दों में ,क्या इससे लाखों भूखे और मानसिक रूप से पीड़ित व्यक्तियों को स्वराज मिल पायेगा/”

इन्ही कुछ प्रश्नों का उत्तर यह पुस्तक तलाशता है.यह पुस्तक स्वराज की राह देख रही आम जनता को समर्पित है.

अन्ना हजारे ने इस पुस्तक की भूमिका में दो शब्द कहते हुए लिखा है, ” आज देश भर में बदलाव की एक लहर दिख रही है.हर धर्म, हरेक जाति,हरेक उम्र के लोग,अमीर हों या गरीब,शहरी हों या ग्रामीण ,सबकी आँखे बदलाव का सपना देख रही है.अगर यह जोश कायम रहा तो आजाद भारत के इतिहास में जो काम ६४ साल के इतिहास में नहीं हुआ,वह १० साल में हो सकता है.महंगाई और भ्रष्टाचार के चलते आम आदमी का जीना मुश्किल हो रहा है..आजादी के ६४ साल बाद भी न हर हाथ को काम है और न हर पेट को रोटी.

अगर देश की अर्थ नीति को बदलना है तो गाँव की अर्थ नीति को बदलना होगा.और यह अर्थ नीति दिल्ली में बैठ कर बन रही योजनाओं या इनके तहत बाँटें जा रहे पैसे से नहीं बदलेगी.यह काम होगा, लोगों को मजबूत बनाने से.आज हमारे तंत्र लोग पर हावी हैं.कभी तो लगता है कि तंत्र ही लोक का मालिक बन कर बैठ गया है. हमें सच्ची लोकशाही का मतलब समझना होगा.हमें यह समझना होगा कि लोक तंत्र में लोगों की भूमिका पांच साल में एक बार वोट देकर सरकार चुनने की ही नहीं होती..इसके लिए आम लोगों की सत्ता में भागीदारी जरूरी है.सता के केंद्र बिंदु को दिल्ली और राजधानियों से निकाल कर गाँव और कस्बों तक लाना होगा ”

अन्ना हजारे यह भी कहते हैं कि इस तरह के छिट पुट प्रयोग जहाँ भी हुए हैं हैं वहां खुश हाली भी बढी है और भ्रष्टाचार भी कम हुआ है.फिर क्यों न इस तरह के प्रयोगों की एक आम रूप रेखा बनाई जाए और पूरे देश में इसको व्यवहार में लाया जाए?

अरविन्द केजरीवाल की इस पुस्तक में व्यवस्था के बदलाव और सम्पूर्ण क्रांति की विस्तार से चर्चा की गयी है.इस पुस्तक से यह भी उम्मीद जगती है कि बेरोजगारी ,महंगाई, भ्रष्टाचार, आर्थिक विषमता, ऊँच-नीच, हिंसा, नक्‍सलवाद जैसी जटिल समस्याओं के समाधान खोज रही दुनिया इस पुस्तकं के माधाम से इन समस्याओं के सरल समाधान खोज सकेगी.

करीब दो सौ पृष्ठों की यह पुस्तक जन लोक पाल से बहुत आगे बढ़ कर सोचने की दिशा तैयार करने का प्रयत्न करती है. लगता है इस पुस्तक को मूर्तरूप देने के पहले अरविन्द केजरीवाल ने देश के विभिन्न भागों का दौरा किया है और वहां जो नए प्रयोग हुए हैं ,उससे प्रभावित भी हुआ है, न केवल रालेगण सिद्धि ,बल्कि केरल के भी गांवों में इस तरह के प्रयोग चल रहे हैं.इससे न केवल ग्रामीणों का जीवन सुधरा है,बल्कि उन्हें अपनी जिम्मेवारियों का भी ज्ञान हुआ है.पहले तो विद्वान लेखक ने तर्क द्वारा और विभिन्न उदाहरणों से यह सिद्ध करने का प्रयत्न कियI है कि वर्तमान व्यवस्था में विकास के नाम पर दिल्ली से भेजा हुआ धन किस तरह गांवों की कोई भलाई नहीं कर पाता,बल्कि कुछ ख़ास लोगोंकी जेब भरने का काम करता है, फिर वह बताता है कि इसका विकल्प क्या है? उसने यह भी प्रश्न उठाया है की आखिर क़ानून बनाने का हक़ किसे है?जनता का या जनता के विचारों की अवहेलना करके संसद का? जनता की भलाई के लिए बनने वाले कानूनों में जनता की भागीदारी आवश्यक है,पर यह हो कैसे इसका भी विस्तृत विवरण इस पुस्तक में है.

ग्राम पंचायतों के वर्तमान में सीमित अधिकारों और उनके अधिकारों में वृद्धि से आगे बढ़ कर ग्राम सभाओं द्वारा लिए गए निर्णयों को इसमे सर्वोपरी माना गया है

वास्तविक लोक तंत्र के उस इतिहास पर भी प्रकाश डाला गया है,जो वास्तव में भारत की देन थी.

लेखक शहरों की वर्तमान हालत से भी खुश नहीं है. यद्यपि पुस्तक का अधिकांश भाग में गांवों के विकास पर जोर दिया गया है,पर शहरों के विकास के लिए भी उपाय सुझाए गए हैं.

गाँधी के उस कथन पर ख़ास जोर दिया गया है कि सच्चा स्वराज तभी आएगा जब हर हाथ को काम और हर पेट को रोटी मिलेगा.

वर्तमान व्यवस्था में सरकारी कर्मचारियों का स्थान सर्वोच्च हो जाता है.लेखक ने इस व्यवस्था में आमूल परिवर्तन के लिए दिशा निर्देश दिया है.उसका यह मानना है कि वर्तमान व्यवस्था पग पग पर भ्रष्टाचार को जन्म देती है और उसे प्रश्रय भी देती है.इसमे आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है.बहुत से बदलाव संविधान की वर्तमान रूप रेखा के अंतर्गत ही सम्भव हैं हैं पर कही कही संविधान में संशोधन की भी आवश्यकता पड़ सकती है.विद्वान लेखक ने यह माना है कि सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन या सम्पूर्ण क्रांति के लिए हमें जन लोकपाल से आगे सोचने की आवश्कता है,तभी देश को वास्तविक आजादी और जनता को स्वराज मिलेगा.

ऐसे इस पुस्तक में कुछ कमियां भी हैं.सबसे बड़ी कमी दिखती है कि लेखक बिजली के उत्पादन और वितरण के मामले में एक दम चुप है,जब कि मेरे विचारानुसार भारत के सर्वांगीण विकास के लिए वहन करने यौग्य मूल्य पर हर घर और हर छोटे बड़े उद्योग के लिए बिना बाधा के अनवरत बिजली की उपलब्धता अति आवश्यक है.

25 COMMENTS

  1. अच्युतानंद मिश्र की पक्तिया है –
    “सभ्यता की शिलाओं पर
    बहती नदी की लकीरों की तरह
    हम तलाश रहे थे रास्ते
    एक बेहद सँकरे समय में “!

  2. श्री सिंह साहेब पूछते हैं कि

    “मैंने कहा है कि वे सब जो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आरक्षण का लाभ उठाते रहें हैं,वे अन्य दलितों के उन्नति को अवरुद्ध करने के सबसे बड़े कारण हैं,क्योंकिं यह तो एक बच्चा भी समझ सकता है कि अगर भोजन सामग्री सिमित है(२२,५%,)….तो अगर उस भोजन पर कुछ लोग अपनी शास्वत अधिकार जमाये रखेंगे तो दूसरों को भूखा रहना ही पडेगा.वही हाल पिछड़े वर्गों के आरक्षण का है.मेरे विचार से दलितों और पिछड़े वर्गों के सर्वांगीं विकास में सबसे बड़ी बाधा वे लोग उपस्थित कर रहें हैं.”

    श्री सिंह साहेब आप और आपके सवाल पूरी तरह से गलत, गैर कानूनी और असंवैधानिक हैं!

    आपसे विनम्र निवेदन है कि यदि आप “आरक्षण” जैसे विषय पर कुछ भी लिखें या टिप्पणी करें तो बेहतर होगा कि पहले देश के संविधान को, आरक्षण के इतिहास को और इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के कुछ प्रमुख निर्णयों को पढ़ लें! आपके विचार पूर्वाग्रहों और अधूरे बल्कि अधकचरे ज्ञान के प्रतीक हैं! इसलिए कुछ बातें स्पष्ट करना जरूरी लग रहा है, बेशक आपको अप्रिय लगेगा :_

    1-”आरक्षण” के बजाय “सेपरेट इलेक्ट्रोल” प्रदान करने की दमित वर्गों की जायज मांग को तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के समक्ष मानकर भी मोहनदास गांधी नामक धोखेबाज ने आरक्षण, को आरक्षित वर्गों पर जबरन थोपा था! जिसे अनंत कल तक हम सबको ढोना पड़ेगा! इसमें सीधे तौर पर आरक्षित वर्गों का या वर्तमान राजनेताओं का कोई दोष नहीं है!

    2-वर्तमान आरक्षण व्यवस्था का मकसद “गरीबी मिटाओ प्रोग्राम” नहीं जैसा कि आपका आशय है, और जो आप जैसों के द्वारा अक्सर समझा जाता है! बल्कि आरक्षण का संवैधानिक मकसद “सत्ता और प्रशासन” में दमित वर्गों को “समान और सशक्त प्रतिनिधित्व” प्रदान करना है, जो तब ही संभव है, जबकि “पीढी-दर-पीढी कुछेक आरक्षित परिवारों के लोग ही आरक्षण का लाभ अनंत काल तक उठाते रहें और आरक्षण पाकर आरक्षित वर्ग में नव ब्राह्मणों का उदय होता रहे!” मैं ये भी मानता हूँ की बेशक ये सच्चा “सामाजिक न्याय” नहीं है, लेकिन मोहनदास गांधी ने यही चाहा था, क्योंकि वो सच्चा न्याय चाहता ही नहीं था और आजादी के बाद से किसी ने इस गलती को ठीक करने के बारे में नहीं सोचा और हम इसे ढो रहे हैं! आपस में लड़ने को बेताब हैं! सच और झूठ का अंतर जरूरी है! आरक्षित वर्गों में न कोई किसी का हक़ छीन रहा है और न ही छीन सकता है! छीनने वाले तो बाहरी लोग हैं!

    3-यदि आप जैसे अनारक्षित लोगों को इस बात से पीड़ा होती है कि कुछ लोग ही आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं तो, ये पीड़ा आपके पूर्वाग्रहों और अज्ञानता के कारण है, जिसके लिए मैं जिम्मेदार नहीं हूँ! अन्यथा आपको इससे सीधे तौर पर कोई नुकसान नहीं हो रहा है, फिर भी यदि किसी बाजिब कारण से पीड़ा या परेशानी है तो दमित (दलित, आदिवासी) वर्गों को गांधी के धोखे से मुक्त करवाने में योगदान करें और “सेपरेट इलेक्ट्रोल” के हक़ को वापस दिलाने में मदद करें! अन्यथा इस निराधार विलाप से कुछ हासिल नहीं होगा!

    बहुत बहुत शुभ कामनाएँ!
    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
    9828502666

    • डाक्टर मीणा.आपका उत्तर पढ़ कर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ ,क्योंकि मैं इस उत्तर के लिए तैयार था.संविधान का हवाला मत दीजिये,संविधान में आवश्यकता पड़ने पर या कभी कभी कुछ ख़ास मुखर वर्गों को संतुष्ट करने के लिए अनेकों संशोधन किये जा चुके हैं.बात प्राकृतिक न्याय की है.जो किसी संविधान और शासन द्वारा बनाए गए क़ानून से ऊपर होता है.मैंने पहले भी लिखा है और आज भी इसको दुहरा रहा हूँ कि अनिसुचित जातियों पर बहुत अत्याचार हुए हैं.शायद उतने अत्याचार अनुसूचित जन जातियों पर नहीं हुए हैं.अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों के लिए अलग से निर्वाचन व्यवस्था से क्या लाभ होता,,यह मेरी तरह साधारण बुद्धि वाले की समझ से बाहर है.आप अपने आप में और अपनी स्वयंभू विचार धारा में इतने उलझे हुए हैं कि आपको वास्तविकता के दर्शन ही नहीं होते या आप उसको देखना नहीं चाहते.आप माने या न माने आरक्षण की इस पद्धति ने जिसमे रोटेसन नहीं है,दलितों का कितना अकल्याण किया है आप इसे समझ नहीं पा रहे हैं. जो मैं आज दुहरा रहा हूँ वह आवाज अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति के नेताओं द्वारा भी उठाईं गयी है. यह आवाज एक आदिवासी नेता ने साठ के दशक में सबसे पहले उठाई थी.उनका नाम था कार्तिक उरांव अनुसूचित जाति के एक नेता का भी नाम याद आ रहा है.शायद श्री मौर्य.पर ये आवाजें नकार खाने में तूती की आवाजें सिद्ध हुई,क्योंकि तब तक एक शक्तिशाली तबका उन लोगों का बन चूका था जो इसका लाभ उस समय उठाते आ रहे थे.डाक्टर मीणा ,मैं तो उस वातावरण में बड़ा हुआ है जहां छात्रावास के राजपूत अध्यक्ष ने एक छात्र का अपमान होने पर छात्रावस बंद करने का आदेश दे डाला था,और सब छात्रों द्वारा उस छात्र से माफी मांगे जाने के बाद ही उन्होंने अपना आदेश वापस लिया था.आप वे दिन कहानी पढ़िए,शायद आपको मेरी मनोवृति का अंदाजा हो जाए.यहाँ मैं यह भी बता दूं कि अगर मैंने उस दिन अन्य छात्रों का साथ दिया होता तो हमारे शिक्षक क्रुद्ध होने के बदले रो पड़े होते. मेरे विचारानुसार संविधान के माखौल का सबसे बड़ा उदाहरण राजीव गांधी के समय का वह संशोधन था जिसमे मुस्लिम औरतों को तलाक के बाद पति की सम्पतिसे वंचित किया गया था.अतः मुझसे विवाद करते समय एक बात का ध्यान रखा कीजिए.किसीने यह बात लिख दी है या कहीं किसी क़ानून में इसका जिक्र है,इसको मैं प्रमाणिक नहीं मानता .किसी की लिखी हुई बात गलत हो सकती है.कोई क़ानून भी हो सकता है कि समय की कसौटी पर खरा नहीं उतरे,पर मेरे विचार से नेचुरल जस्टिस सर्वोपरी है.

      • “………………अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन जातियों के लिए अलग से निर्वाचन व्यवस्था से क्या लाभ होता,,यह मेरी तरह साधारण बुद्धि वाले की समझ से बाहर है……….”

        कोई बात समझ में नहीं आती इसलिए उसको आप विचार योग्य नहीं समझें क्या ये प्राकृतिक न्याय है?

        • डाक्टर मीणा,तो आप ही समझाइए,शायद समझ में आ जाए.अन्य मुद्दे जो मैंने उठाये थे,उनका क्या हुआ?

  3. प्रिय श्री मीना,
    स्पस्त्ता से लिखी बात को समझने में अधिक समय नहीं लगत.

    स्तर का आधार भी अपनी अपनी समझ होती है !
    हर व्यक्ति का विचार उसके शैक्षिक एवं वैचारिक स्तर और आपके समाजीकरण के परिवेश को दर्शाता है!

    आप अपना विचार जरूर बनाबे और लिखें पर आपको 95 फीसदी लोगों का प्रतिनिधी मैं कैसे मानु?
    स्वयम आंबेडकर और गांधी ने भी यह दवा नाहे एकिया था?
    मैं केजरीवाल का प्रतिनिधी हूँ ही नहीं और चूँकि आप सार्वजनिक और देश हित के विषयों पर हर एक को अपने विचार रखने का संवैधानिक हक़ मानते हैं मैंने भी लिखा
    .अर्थ नीति ,विदेश नीति , जम्मू और कश्मीर विवाद, राज ठाकरे यानी प्रांत वाद की बात करें पर कश्मीर के ही अल्पसंख्यकों नहीं ? खैर यह शायद किताब पढने से होगा जो ना आपने पढी है ना मैंने ही.
    सही है की ‘ इस देश में ऐसा कोई कानून नहीं है कि डॉ. ठाकुर साहेब जिसे कहें वो ही असली या नकली आतंकी है!’
    आतंक का जन्म पकिस्तान या किसी देश में नहीं उस सिद्धांत से होता आया है जो अपनों को दुसरे से श्रेष्ठ समझाने का दवा apane hin bal के aadhar पर करते हैं?
    मैं क्यों व्यक्तिगत आक्षेप करूंगा/
    आपका नाम, उप नाम न तो प्रसंगुकनाहे एहेन पर ववे जिस भगवान् को दर्शाते हैं वे किसी में विवेद नहीं करते हैं और उसका सम्मान होना चाहिए और यही अपेक्षा मैं करता हूँ की ५ क्या किसी के प्रति भी आप विवेश न रख समाज को एक समझें – हमें भी ऐसा ही मना चाहिए और इस बिंदु पर हम मिलते हैं !

  4. डाक्टर मीणा,मैं दूसरों की बाबत तो नहीं जानता,पर मैं जल्दी किसी का अनुयाई नहीं बनता.पुस्तकं में लिखी बातों से मैं अवश्य प्रभावित हुआ हूं.मैंने उस लिंक को फिर से देखा.उसमे महत्त्व पूर्ण बातों का उल्लेख अवश्य है,पर आपको तो आम जनता केलिए महत्त्व पूर्ण बातों से कोई मतलब है नहीं .तो मैं आपको पुस्तक के हिंदी संस्करण के ११९ वें पृष्ठ पर ले जाना चाहूंगा,दलितों पर अत्याचार शीर्षक के अंतर्गत एक अलग अनुच्छेद है.वहाँ लेखक ने लिखा है,”कुछ लोगों को शंका है कि अगर ग्राम सभाओंको ताकत दी गयी तो दलीतों पर अत्याचार बढेगा.इसका जवाब ढूँढने के लिए हम बिहार के कुछ दलितों की वस्तियों में गए..उन्हें स्वराज के बारे में समझाया और उनसे पूछा कि उन्हें क्या लगता है?” आगे इसका बहुत विस्तृत वर्णन है.
    यहाँ एक बात मैं साफ़ कर देना चाहता हूँकि मेरे विचार से ग़रीबों की समस्याएं एक हैं,चाहे वह दलित हो या अदलित ,फिर भी अगर इसका अलग से जिक्र ‘स्वराज’ पुस्तक में नहीं होता तो मैं वैसा कभी नहीं लिखता.

    • आप चाहे कितने ही बढे विद्वान हों, लेकिन आपको बिना वजह दूसरों को हकालने, ललकारने और अपमानित करने वाली भाषा का उपयोग करने का कतई भी हक़ नहीं है? आप लिखते हैं की-“आपको तो आम जनता केलिए महत्त्व पूर्ण बातों से कोई मतलब है नहीं ” इसका क्या मतलब है?

      आप ऐसा इकतरफा निर्णय किस आधार पर सुना सकते? आम जनता आपकी राय में कौन हैं, आप जाने, लेकिन मेरे को आम जनता से कोई मतलब नहीं है ये बात लिखने से पहले आपको मेरे बारे में अपनी इस राय को सार्वजानिक करने का कारण और आधार भी बताना/लिखना चाहिए था! जो आपने जरूरी नहीं समझा?

      मैं देश की 95 फीसदी शोषित तथा वंचित आबादी की बात लिख रहा हूँ, इससे अलग आप कौनसी आम जनता की बात कर रहे हैं, ये आप जानें? लेकिन कृपया अपनी बुजुर्गियत या कथित विद्वता का इस प्रकार से मनमाना उपयोग न करें! केवल आपका ही नहीं दूसरों को भी सम्मान पाने का है! दूसरों को भी सोचने, समझने और लिखने की आजादी है!

      जितना मैंने अभी तक आपको पढ़ा है, आप अनेक बार लिखते रहें हैं कि “कोई भी बात तर्क और तथ्यों के आधार पर कही जानी चाहिए!”

      आज आपकी उक्त टिप्पणी में ये दोनों बातें नदारद हैं और आप “आपको तो आम जनता केलिए महत्त्व पूर्ण बातों से कोई मतलब है नहीं ” लिखकर मुझे अनुचित तरीके से चुप करने का अनैतिक प्रयास कर रहे हैं! जिसमें आप इस प्रकार से कभी भी सफल नहीं हो सकते हैं!

      आप अपनी बात तरीके से कहें, मुझे अपनी बात को वापस लेने में कोई एतराज नहीं होगा, यदि मुझे आप सच का आईना दिखा सकें, लेकिन ये तरीका ठीक नहीं है! ये तो बोद्धिक व्यभिचार है!

      यदि आपको दलित, आदिवासी, पिछड़े, नि:शक्त और स्त्रियों की पीड़ा का अहसास अभी इस उम्र तक भी नहीं कचोट रहा है और आप इनको आम जनता मानने को तैयार नहीं हैं तो फिर आप किस आम व्यक्ति की, किस आधार पर बात कर रहे हैं, ये आप जाने, लेकिन सच यही है कि आज भी आप जैसे लोग जाने अनजाने अपने अवचेतन मन की पूर्वाग्रही अव्धार्नाओं के चलते देश की असल समस्याओं को दबाने के लिए अपनी उन धारणाओं को लोगों पर थोपते नज़र आते हैं! – – – – – – -“जो सच में इस देश की दुर्दशा का एक बढ़ा कारण हैं, निवारण नहीं है, जैसा कि आप सोचते हैं!”

      आपको एक बार फिर से साफ कर दूँ कि कृपया किसी के भी सम्मान को चोट पहुंचाने से पूर्व अपने आपके सम्मान के बारे में जरूर सोचें! क्योंकि “मानव व्यवहार शास्त्र” का सर्वमान्य सिद्धांत है कि “जिसे अपने सम्मान की चिंता होती है, वो दूसरों का अपमान नहीं किया करता है!”

      आपसे निवेदन है कि-“आप चर्चा करें, विचार विमर्श करें! दूसरों से असहमत हों, दूसरों को बेशक गलत ठहराएँ, लेकिन एक लेखक की तरह से, एक तानाशाह की तरह नहीं!”

      शुभाकांक्षी
      डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

          • जनाब मैं गणित का विध्यार्थी रहा हूँ ओर विश्वास कीजिएगा बहुत प्रतिभावन भी अत: हिसाब में गलती नहीं करता हूँ 4 % आपके बामन 3 % बनिए 3 % राजपूत 3 % दुसरे 13तो यो ही हो जाते है जनाब??फिर ये 95 % कहा से लाये ??फिर चाहे 35 मानो या 50 ओबीसी पुछलीजिएगा की वो 95 मे है या 13 मे ……………वैसे ये सब भी एक वाइल्ड गेस ही है ………………….

      • मुझे अफ़सोस है किइस टिप्पणी को पढने और समझने में मैंने देर कर दी.आपकी इस टिप्पणी का मैं बुरा नहीं मानता और न व्यक्तिगत टिप्पणियों पर मुझे कोई एतराज है,क्योंकि मेरी बेवाक विचारधारा के चलते कहीं न कहीं कभी न कभी किसी की कोई कमजोर नस दब ही जाती है आप को भी मेरे किस सत्यता ने ठेस पहुंचाया यह मुझे अच्छी तरह ज्ञात है,,पर सच्छाई यही है कि वे दलित जो आज भी स्वतंत्रता के बाद मिले लाभों से वंचित हैं,उसके लिए उनके लाभान्वित भाई बन्धु अन्य जाति वालों से कम जिम्मेवार नहीं हैं.

    • “मेरे विचार से ग़रीबों की समस्याएं एक हैं,चाहे वह दलित हो या अदलित”

      आपकी उक्त निष्कर्ष पंक्ति से ऐसा लगता है कि आप ऐसा इस कारण से आसानी से लिख सकते हैं, क्योंकि आप न तो दलित है और न ही दलितों की जातिगत पीड़ा के बारे में आपको अहसास है! सामान्य गरीबों और दलित गरीबों में बहुत बड़ा अंतर है, लेकिन ये आपको दिख नहीं सकता, क्योंकि shayad आप देखना नहीं चाहते! केवल यही नहीं आप ये भी चाहते हैं कि आपका ऐसा manna है कि “ग़रीबों की समस्याएं एक हैं,चाहे वह दलित हो या अदलित” इसलिए आपकी इस धारणा का समर्थन भी किया जाये! केजरीवाल अपनी पुस्तक में आपके इसी विचार को आगे बढ़ाते प्रतीत हो रहे हैं, सो आपको वे प्रिय हैं! लेकिन आपको इस बात से कोई सरोकार नहीं कि यह विचार “संविधान” और “सामाजिक न्याय” के विरुद्ध है! हो तो हो! आपको इससे क्या? शायद आपको ऐसे संविधान से ही परहेज हो?
      श्री सिंह साहेब हजारों पीढ़ियों से अन्याय सहने वालों के लिए कभी तो लीक से हटकर सोचिये! आप जैसे लोगों से “इंसाफ का साथ” देने की उम्मीद की जाती है!

      • डाक्टर मीणा,मुझे यह कहते हुए अफ़सोस हो रहा है कि आप वही देखते हैं,जो आप देखना चाहते हैं.अन्य किसी बात पर आपकी नजर नहीं पड़ती यह तो इतिफाक है कि किसने कहाँ जन्म लिया.?उसी बात को लेकर अगर आप हर उस आदमी को गाली देते रहेंगे,जिसने दलित होकर जन्म नहीं लिया तो इस मानसिकता का कोई इलाज संभव नहीं है.अरविन्द केजरीवाल ने अपनी पुस्तकं में दलितों की समस्याओं को अलग से उठाया है,पर मेरी टिप्पणी के इस हिस्से पर आपकी नजर नही पडी,पर आपने मेरी विचार धारा में उसको भी लपेट दिया.मैंने बार बार लिखा है कि भ्रष्टाचार कम होगा तो सबसे अधिक लाभ समाज के उस अंग को होगा,जहां तक विकास अभी पहुंचा ही नहीं.पर यह बात आपजैसे दलितों के दिमाग में जगह बनाए तो भी आप इसे जाहिर नहीं करेंगे ,क्योंकि आम दलितों का विकास आप जैसे स्वय्म्भुओं के लिए विनाश सिद्ध होगा,क्योंकि तब वे यह समझने योग्य हो जायेंगे कि आप जैसे लोग उनका दूसरों से अधिक शोषण कर रहे थे.मैंने पहले एक बार लिखा था कि मेरे अनुज ने जो नक्शल प्रभावित इलाके में रहता है,एक बार कहा था कि यह कब तक चलेगा कि जो गंदा करे वह ऊँच और सफाई करे वह नीच.यह सही है कि ऐसा बहुत दिनोंन तक नहीं चलेगा,पर जब तक आप जैसे लोग किसी अन्य तबके द्वारा किये गए अच्छे कार्यों की भी आलोचना करते रहेंगे तब तक यह चलता रहेगा.जैसा कि मैं लाल चश्मा धारियों को कहता हूँ कि वह चश्मा उतार कर देखिये दुनिया बदली नजर आयेगी.उसी तरह मैं आपको सलाह दूंगा कि इस शास्वत घृणा से थोडा तो ऊपर उठिए.मैं मानता हूँकि युग युग की पीड़ा झेलने वालों की मनोवृति अलग अवश्य होगी,वहभी राजस्थान ऐसे राज्य में जहां आज भी भी शायद यह्चक्र कोई ख़ास ढीला नहीं हुआ है,पर मैं तो उस वातावरण में बड़ा हुआ हूँ ,जिसकी झलक मेरी संस्मरणात्मक कहानी( वे दिन)में दिखती है. यह कहानी प्रवक्ता पर उपलब्ध है.

        • “यह बात आपजैसे दलितों के दिमाग में जगह बनाए तो भी आप इसे जाहिर नहीं करेंगे…”
          श्री सिंह साहेब आपके पास मेरे सवालों के उत्तर नहीं हैं! कोई बात नहीं, लेकिन बोखलाने की जरूरत नहीं है! दुसरे ये बात हमेशा याद रखें कि मैं दलित नहीं हूँ! आप जैसे कुछ तथाकथित विद्वान आदिवासियों को भी दलित मानकर आदिवासियों के विकास को अवरुद्ध कर रहे हैं!

          • डाक्टर मीणा,मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आप अपने को दलित नहीं मानते,पर अभी भी मेरे प्रश्न अनुतरित हैं.अगर आप उन प्रश्नों क उत्तर दे सकें तो आपके सभी प्रश्नों का उत्तर अपने आप मिल जाएगा.मैंने कहा है कि वे सब जो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आरक्षण का लाभ उठाते रहें हैं,वे अन्य दलितों के उन्नति को अवरुद्ध करने के सबसे बड़े कारण हैं,क्योंकिं यह तो एक बच्चा भी समझ सकता है कि अगर भोजन सामग्री सिमित है(२२,५%,)पहले मैं शायद २७.५% लिख गया था तो अगर उस भोजन पर कुछ लोग अपनी शास्वत अधिकार जमाये रखेंगे तो दूसरों को भूखा रहना ही पडेगा.वही हाल पिछड़े वर्गों के आरक्षण का है.मेरे विचार से दलितों और पिछड़े वर्गों के सर्वांगीं विकास में सबसे बड़ी बाधा वे लोग उपस्थित कर रहें हैं.रह गयी बात भ्रष्टाचार उन्मूलन और अरविन्द केजरीवाल के पुस्तक की ,तो मैं इतना हीं कह सकता हूँ कि अच्छा हो अगर आप उस पुस्तक को पढ़ लें

  5. “सबसे गरीब और सबसे कमजोर आदमी के चेहरे को याद करो.” के बाद मीना जी को यदि वर्ग संघर्ष की खोज हर चीज में करने की जरूरत पड़ती है तो उन्हें अपने को पहले बदलना चाहिए और प्राम्भ अपने नाम के परिवर्त्तन से करना चाहिए जो की उनके परिजनों ने भगवान् के नाम पर रख डाला
    उसमे “निरंकुश’ जोड़ आपने अपन एपरिजनों की अपेलाषाओं का ही दमन कर डाला
    आपकी निर्कुश्ता किनके खिलाफ है यह तो स्पस्ट नहीं है भगवान् पुरुषोत्तम इतने निरंकुश नहीं रहे
    देश की 95 फीसदी शोषित तथा वंचित आबादी की सत्ता में के सभी केन्द्रों में सम्मानजनक और समानुपातिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए जरूरी “सामाजिक न्याय” और “धर्म निरपेक्षता” की संवैधानिक अवधारणा के बारे में केजरीवाल की किताब कुछ कहती हो या नहीं मैं आपको तो उन सबों का प्रतिनिधि मान नहीं सकता नाहे एतो आप ही होते गाँधी या नन्ना की जगह

    आलोचना क एलिए केवल आलोचना स्वयम ही ‘ वैचारिक जहर फ़ैलाने वाला’ माना जाना चाहिए और आतंकी तथा सांप्रदायिक नागों को पैदा जिसने किया देश को बनता उसेक बारे में आपके क्या ख्याल हैं? क्या अप भर-पाकिस्तान-बाग्लादेश को हे इनही बर्मा अदि को मिलाका रेक करने का ख्याल रखत इ हैं?
    नहीं रखेंगे क्योकि इससे आपको राजनीतिक फायदा नहीं होगा.

    अर्थ नीति ,विदेश नीति , जम्मू और कश्मीर विवाद, राज ठाकरे मंदिरों तक में प्रवेश से वंचित करने वाले आतंकियों के बारे में आप जानना चाहते हैं पर असली आतंकियों के बारे में नहीं क्योकि इससे आपके वोते बैंक पर ख़तरा होगा?
    यह भी बात नहीं है- आप के अलावे कोई भी लेखक और टिप्पणीकार मुर्ख हे है तब फिर आयर क्या?
    कृपया समीक्षक की समीक्षा से पहले आप को उस किताब को मांगा पढ़ना चाहिए था या फिर सीधे सपाट शब्दों में प्रश्न रखने थे विशेषणों से बचते हुए जो आपकी मानसिकता के प्रतिबिम्ब हैं जिनमे समानता की बात नहीं भले ही ५ % के विरुद्ध निरंकुशता दर्शाती है.

    • आदरणीय ठाकुर साहेब, खेद के साथ लिख रहा हूँ कि मुझे ऐसा लग रहा है कि आपने मेरी टिप्पणी को जल्बाजी में पढ़कर, बिना उसका भाव समझे ही अपनी उक्त टिप्पणी लिख डाली है!

      अन्यथा मुझे विश्वास है कि आप इस प्रकार की स्तरहीन टिप्पणी नहीं लिखते! आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपा करके फिर से मेरी टिप्पणी पढ़ें!

      दूसरा आप लिखते है कि “………केजरीवाल की किताब कुछ कहती हो या नहीं मैं आपको तो उन सबों का प्रतिनिधि मान नहीं सकता नाहे एतो आप ही होते गाँधी या नन्ना की जगह…….”

      आपका इस प्रकार के विचार व्यक्त करना, आपके शैक्षिक एवं वैचारिक स्तर और आपके समाजीकरण के परिवेश को दर्शाता है! ये पंक्ति किसी भी तरह से लेखकीय अवधारणा/धर्म से मेल नहीं खाती है!

      वैसे भी मैंने आपसे कोई सवाल नहीं किया है! और जिस प्रकार से आप मुझे 95 फीसदी लोगों का प्रतिनिधी नहीं मानते उसी प्रकार से आपको भी मैं लेखक या केजरीवाल का प्रतिनिधी मानने से इंकार करके आपकी टिप्पणी की अनदेखी कर सकता था, या आपको उसी प्रकार का जवाब लिख सकता था, जैसा आपने लिख डाला, लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया! क्योंकि मेरा मानना है कि सार्वजनिक और देश हित के विषयों पर हर एक को अपने विचार रखने का संवैधानिक हक़ है! आपको भी उतना ही हक़ है! हाँ हमें अपनी भाषा का जरूर ध्यान रखना चाहिए!

      तीसरे आप लिखते हैं कि “…….अर्थ नीति ,विदेश नीति , जम्मू और कश्मीर विवाद, राज ठाकरे मंदिरों तक में प्रवेश से वंचित करने वाले आतंकियों के बारे में आप जानना चाहते हैं पर असली आतंकियों के बारे में नहीं” यहाँ असली आतंकी से आपका आशय जो भी हो! इस देश में ऐसा कोई कानून नहीं है कि डॉ. ठाकुर साहेब जिसे कहें वो ही असली या नकली आतंकी है!

      मैं तो ये ही जानता और समझता हूँ कि तो अपने आतंक से आम लोगों को भयभीत करे, मारे, जीने नहीं दे और मर मर कर जीने को विवाह करे वही आतंकी है! इस कार्य को करने वाले असली आतंकी क्यों नहीं ये तो आप ही बेहतर जन सकते हैं? हाँ यहाँ फिर दुहरा हूँ कि मैं उन आतंकियों के बारे में भी लिखा है, जिन्हें ही शायद आप आतंकी मानते हैं! लेकिन आपने मेरी टिप्पणी को केवल पढ़ा है, समझान नहीं!

      अंत में एक आग्रह यदि स्वस्थ चर्चा चाहते है तो कृपया व्यक्तिगत आक्षेप नहीं करें! सभी सभ्य और समझदार लोगों से यही आशा है! आप से भी! मेरा नाम, उप नाम ये यहाँ पर न तो प्रसंगुक हैं आयर न हीं सामयिक! कृपया अपनी उच्च हैसियत और मर्यादा के साथ-साथ दूसरों के बारे में ध्यान रखें!

      शुभाकांक्षी

      डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
      राष्ट्रीय अध्यक्ष-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स वेलफेयर एसोसिएशन
      98285-02666

      • मोडरेटर महोदय मेरी उक्त टिप्पणी की नीचे से दूसरी टिप्पणी के स्थान पर निम्न टिप्पणी को स्थापित करने का कष्ट करे! क्योंकि इसमें कुछ टायपिंग भूल रह गयी हैं!

        “मैं तो ये ही जानता और समझता हूँ कि जो अपने आतंक से आम लोगों को भयभीत करे, मारे, जीने नहीं दे और मर-मर कर जीने को विवश करे वही असली आतंकी है! इस कार्य को करने वाले असली आतंकी क्यों नहीं, ये तो आप ही बेहतर जान सकते हैं? हाँ यहाँ फिर से दुहरा हूँ कि मैंने उन आतंकियों के बारे में भी लिखा है, जिन्हें ही शायद आप असली आतंकी मानते हैं! लेकिन आपने मेरी टिप्पणी को केवल पढ़ा है, समझा नहीं!”

    • निम्न कुकृत्य को अंजाम देने वालों को और ऐसी अम्न्वीय विचारधारा को जन्म देने तथा बढ़ावा देने वालों को आतंकी कहने में क्यों परहेज किया जाये? ऐसे लोगों को फांसी पर चढाने की कानूनी व्यवस्था क्यों न हो?

      “मंदिर में दलित को प्रवेश से रोका, तनाव
      From Dainik Jagran (Updated on: Tue, 24 Jul 2012 11:47 PM (IST)

      जागरण संवाददाता, भुवनेश्वर : सावन के तीसरे सोमवार को केन्द्रापाड़ा जिले के गोपेई गांव स्थित शिव मंदिर में जलाभिषेक करने जा रहे दलित कांवरियों को प्रवेश करने से रोकने को लेकर विवाद हो गया। इससे स्थिति तनावपूर्ण बन गई। हालांकि किसी अप्रिय घटना का समाचार नहीं है। बहरहाल, मामला केन्द्रापाड़ा के जिलाधीश तक पहुंचा। कांवरियों ने जिलाधीश से मिलकर सवर्णो द्वारा जल चढ़ाने से रोकने की शिकायत की।

      प्राप्त खबरों के अनुसार केन्द्रापाड़ा जिले के गोपेई गांव स्थित शिव मंदिर में केवट समाज के कुछ युवक जब जल लेकर पहुंचे तो पूर्व विवाद के कारण कुछ सवर्णों ने उन्हें जल चढ़ाने से रोक दिया। इससे स्थिति तनावपूर्ण हो गई। गांव के सवर्ण जल चढ़ाने से उन्हें रोकने पर आमादा थे, तो कांवर लेकर आए 30 से अधिक दलित युवक जलाभिषेक की जिद पर अड़े रहे। दलित कांवरियों का आरोप था कि वर्षों से उन्हें शिव मंदिर में दर्शन तथा पूजा-अर्चना के अधिकार के बावजूद जातिगत भेदभाव के मद्देनजर उन्हें जलाभिषेक से रोका गया। शाम तक समस्या का समाधान नहीं होने पर कांवरियों ने भगवान शिव के वाहन नंदी पर ही जल चढ़ा कर संतोष किया। बहरहाल, दलित कांवरियों में इसको लेकर गहरी नाराजगी है।

      याद है कि केन्द्रापाड़ा जिले के ही केरड़ागड़ गांव में बीते साल भगवान जगन्नाथ के दर्शन को लेकर दलित और सवर्णों के मध्य संघर्ष की स्थिति बन गई थी। यह मामला राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुआ था। इधर, ताजा मामले को लेकर असामाजिक तत्व इलाके में सवर्ण-असवर्ण के बीच संघर्ष भड़काने की जुगाड़ में हैं।”

  6. श्री सिंह साहेब आपने जिस पुस्तक का जिक्र किया है, मैंने उसे नहीं पढ़ा है, सो आपसे आग्रह की कृपया बताने का कष्ट करें की देश के पांच फीसदी लोगों द्वारा सत्ता पर आजादी के बाद से लगातार काबिज होकर, देश को बरबाद कर दिया है! ऐसे में देश की 95 फीसदी शोषित तथा वंचित आबादी की सत्ता में के सभी केन्द्रों में सम्मानजनक और समानुपातिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए जरूरी “सामाजिक न्याय” और “धर्म निरपेक्षता” की संवैधानिक अवधारणा के बारे में केजरीवाल की किताब क्या कहती है? जिसमें दलित, आदिवासी, पिछड़े, स्त्री, निशक्त, अल्पसंख्यक वर्ग शामिल हैं!

    इसके अलावा देश में वैचारिक जहर फ़ैलाने वाले और आतंकी तथा सांप्रदायिक नागों को पैदा करने वालों से निपटने तथा इनसे मानवता को बचाने के लिए भी इसमें कुछ लिखा गया है या नहीं?

    इस पुस्तक में देश की अर्थ नीति की दिशा और दशा तय करने! विदेश नीति के बारे में, जम्मू और कश्मीर विवाद के बारे में-समाधानकारी नीति अपनाने के बारे में, राज ठाकरे जैसे स्वंभू लोगों और राज ठाकरे को आशीर्वाद देने वालों के बारे में, लोगों को अपने ही देश में सम्मान से नहीं जीने देने और मंदिरों तक में प्रवेश से वंचित करने वाले खूंखार सफेदपोश धार्मिकता का लबादा ओढ़े जहर बाँटने वाले आतंकियों के बारे में भी कुछ लिखा गया है या नहीं?

    • डाक्टर मीणा,आप उस पुस्तक को पढ़िए.आपको शायद सभी शंकाओं का समाधान मिल जाये.पूरी पुस्तक तो प्रस्तुत करने मैं असमर्थ हूँ,पर कुछ शंकाओं का समाधान तो उसकी समीक्षा में ही है. उस पुस्तकं में दलित वर्ग की शंकाओं का समाधान अलग से किया गया हैं और उदाहरण के रूप में गावों में उनके द्वारा बताये हुए सुझाओं को रखा गया है.

      • डाक्टर मीणा द्वारा उठाई गयी शंका के समाधान हेतु मैंने अंतर्जाल पर कुछ ढूँढने का प्रयत्न किया तो मुझे श्री केजरीवाल द्वारा लिखित पुस्तक का कुछ अंश वहाँ मिला.उसका लिंक यों है, https://www.box.com/shared/v0rzmojlc4ungpgprlek
        शायद इससे डाक्टर मीणा तथा अन्य लोगों की जिज्ञासा शांत करने में मदद मिले.

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