स्वार्थ, अज्ञान और अन्धविश्वास से जीवन की बर्बादी

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असत्य का त्याग और सत्य का ग्रहण ही जीवन कल्याण का मुख्य मंत्र

मनमोहन कुमार आर्य

स्वार्थ शब्द पर विचार करें तो स्व और अर्थ दो शब्दों से बना हुआ यह शब्द प्रतीत होता है। ‘स्व’ अपने को कहते हैं और अर्थ के अनेक अर्थ हो सकते हैं जिसमें धन, सम्पत्ति व अन्य प्रयोजन की सिद्धि भी मानी जा सकती है। स्वार्थ शब्द  अपने आप में बुरा नहीं है परन्तु स्वार्थी मनुष्य अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए अनेक बार दूसरों के हितों को हानि पहुंचा कर अपना हित अनुचित साधनों से व अधर्म पूर्वक करता है, यह बुरा होता है। स्वार्थ के नाम पर बुरा कार्य करने वाला यदि ज्ञानी है तो वह अपनी बुद्धि से ज्ञान का दुरुपयोग करता है। यदि ज्ञानी भी धार्मिक हो तो वह धर्म को हानि पहुंचाता है। धर्म की हानि का अर्थ है कि वह नाना प्रकार के मिथ्या विश्वासों से युक्त ग्रन्थ लिख दें और उस पर उसके लेखक व रचयिता के रूप में किसी प्रतिष्ठि विद्वान या ऋषि का नाम लिख दे जिससे लोग उन ऋषियों वा विद्वानों पर अपनी श्रद्धा के कारण उन ग्रन्थों की मिथ्या व अन्धविश्वास युक्त बातों पर भी विश्वास कर लें। एक बार किसी ने कर लिया तो यह फिर धीरे धीरे परम्परा बन जाती है जिससे लोग सत्य व ज्ञान से दूर होकर मिथ्या विश्वासों में फंस जाते हैं। इतिहास में ऐसा ही हुआ है जिसका दिग्दर्शन सबसे पहले वेदर्षि दयानन्द सरस्वती ने सन् 1869 में विद्या की नगरी काशी में कराया था।

 

होना तो यह चाहिये कि सभी धार्मिक लोग किसी भी बात को स्वीकार करने के लिए उस मान्यता व सिद्धान्त का सन्दर्भ अपने पुरोहित, विद्वान व ब्राह्मणों से पूछें जो उन्हें उस मिथ्या सिद्धान्त को मानने को कहता है। फिर उससे उस ग्रन्थ को लेकर उस पर चिन्तन मनन करें। यदि वह संस्कृत में है और आप संस्कृत नहीं जानते तो उससे उस भाषा में अनुवाद कराने को कहें जो भाषा आप जानते हैं। अनुवाद मिलने पर उस पर गम्भीरता से विचार करें। हो सके तो उस मत के विपरीत निष्पक्ष विद्वानों की शरण ले और उनसे उस पर शंका समाधान व भ्रम निवारण करें। जब आप पूरी तरह से सन्तुष्ट हों जायें तब ही उसको स्वीकार करें वा व्यवहार में लायें। यदि ऐसा नहीं करते तो आपकी मान्यता व आचरण अधर्म, पाप व मिथ्या विश्वास हो सकता है।

 

महाभारत काल के बाद देश में ही नहीं अपितु विदेशों में भी अनेक ग्रन्थों का लेखन हुआ। मध्यकाल में ज्ञान पराभव की स्थिति में था। यदि ऐसा न होता तो इन ग्रन्थकारों को अपने अपने सत्यासत्य युक्त ग्रन्थों को लिखने की आवश्यकता ही नहीं थी। तब लिखने वाले भी और पढ़ने वाले व उसका आचरण करने वाले भी पूर्ण ज्ञानी नहीं थे अतः तब अन्धविश्वास प्रचलित हो गये। आज का आधुनिक युग ज्ञान विज्ञान का युग है। आज के युग में न तो लिंग भेद चल सकता है, यदि कहीं चल रहा है तो आने वाले समय में अवश्य समाप्त होगा। इसका एक उदाहरण देश के माननीय उच्चतम न्यायालय में एक धार्मिक मामले में निर्णय करके किया है। यह तो एक शुरूआत है। आने वाले समय में हम अनुमान करते हैं कि इसी प्रकार से ऐसे सभी विवादित प्रकरणों में परिवर्तन आ सकता है और आना भी चाहिये।

 

हमारे देश में मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जातिवाद, लिंगभेद, असमानता एवं ऊंच-नीच आदि विगत सैकड़ों वर्षों से चल रहे हैं। इनके मानने वाले व इनका समर्थन करने वाले इन मान्यताओं के पोषक प्रमाण प्रस्तुत नहीं करते। ऋषि दयानन्द को इन पर शंका हुई थी तो उन्होंने गृह त्याग कर दिया था। उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का धारण किया। अपना सारा जीवन उन्होंने ईश्वर के सच्चे स्वरूप की खोज, उसको जानने व समझने तथा प्राप्त ज्ञान की साधना द्वारा परीक्षा करने में व्यतीत किया। उन्हें सिद्ध योगगुरू मिले जिससे उन्होंने योग विद्या प्राप्त की और वह उसके सफल हुए। विद्या गुरू के रूप में ज्ञान व संस्कृत व्याकरण के सूर्य स्वामी विरजानन्द सरस्वती उन्हें मिले थे जिनसे उनकी सभी शंकाओं व जिज्ञासाओं का निवारण हुआ था तथा आर्ष ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। उन्होंने योगाभ्यास से ईश्वर की सिद्धि व साक्षात्कार भी किया था। एक मनुष्य अपने जीवन में अधिक से अधिक जितना शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त कर सकता है, वह सब उन्होंने किया था। उनको धर्म और सामाहिजक विषयों आदि के अनुसंधान करने पर जो उत्तर मिले थे उनसे मूर्तिपूजा, अवतारवाद का सिद्धान्त, मृतक श्राद्ध व फलित ज्योतिष, जन्मना जाति के आधार पर भेदभाव अन्धविश्वास व अविद्या सिद्ध हुए थे। इन अन्धविश्वासों के कारण संसार की श्रेष्ठतम आर्यजाति का पतन होकर वह हिन्दू जाति बनी थी। यह हिन्दू नाम भी आर्यों को मुसलमानों द्वारा दिया गया है, जिसके अर्थ अत्यन्त निन्दनीय है जैसे काला, चोर व काफिर आदि। विदेशी विधर्मियों ने इन पर भीषण व जघन्य अत्याचार किये। इन्हीं कारणों से देश व जाति गुलाम हुई परन्तु आश्चर्य है कि इस जाति ने इतिहास से सबक नहीं सीखा और आज भी अन्धविश्वासों में फंसे हुए हैं। अन्धविश्वासों को मानने वाले उतने दोषी नहीं हैं जितना वो स्वार्थी लोग जो इनको इन अन्धविश्वासों का समर्थन कर इन्हें अपना अनुयायी बने हुए हैं। यह अन्धविश्वासी ऐसे हैं कि जिन्होंने स्त्री व शूद्रों का शिक्षा का अधिकार ही छीन लिया था। नारियों को वर्षों तक पर्दें में रखा और स्वयं स्वच्छन्दता का जीवन व्यतीत करते थे। अपने लिये मांसाहार, सुरापान, नृत्य व रास आदि का जीवन और नारियों को बाल विवाह में जकड़कर उनका पतन व नाना प्रकार से हानि की। विधवाओं पर अनेक धर्म बन्धन लगाकर उनका जीवन बर्बाद किया।

 

इन सब अन्धविश्वासों को दूर करने के लिए आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द ने अपना सारा जीवन इन्हें दूर करने में लगाया। बस फिर क्या था उनके सभी विरोधी, स्वार्थी धार्मिक लोग उनके विरूद्ध हो गये और विषपान व अन्य षडयन्त्र करके उनके जीवन का अन्त कर दिया। ऋषि दयानन्द के अनुयायियों ने विगत 134 वर्षों में अन्धविश्वास निवारण व समाज सुधार के अनेक कार्य किये हैं। सभी मतों के अन्धविश्वासी आचार्य उनके विरोधी बन गये जिससे मानव जाति के कल्याण का लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सका। जानते सभी हैं परन्तु उनका स्वार्थ सत्य को स्वीकार करने में बाधक बनता है।

 

आज आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की नवमी का दिवस व पर्व है। आज के दिन हिन्दू समाज में नाना प्रकार के धार्मिक कृत्य किए जाते हैं परन्तु उन कृत्यों को करने व कराने वाले कभी विचार नहीं करते कि यह क्यों किया जाता है, किसने, कब व क्यों आरम्भ किया था, इससे क्या कोई लाभ होगा, देश, समाज और व्यक्ति की क्या क्या हानि हो सकती है? आदि आदि। हमें तो लगता है कि किसी भी कार्य को करने से पहले उसे सर्वांगरूप में जानना चाहिये। बिना जाने किया गया गया कार्य कल्याणकारी अपवाद स्वरूप ही होता है अन्यथा प्रायः हानि ही हुआ करती है। आज के दिन हमें संकल्प लेना चाहिये कि हम धर्म का अनुसंधान करेंगे, मिथ्या का त्याग करेंगे और सत्य को ही अपनायेंगे। हम यह भी अनुशंसा करते हैं कि सत्य को जानने के लिए सभी मतों के लोग सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करें। मनुष्य के पास अल्पज्ञता के कारण इतनी शक्ति नहीं की वह सत्य का स्वयं निर्धारण कर सके। उसकी सहायता के लिए ही ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में वेदों का ज्ञान दिया था। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश लिख कर ईश्वर वा वेद की सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों से परिचय कराया है। साथ ही उन्होंने मत-मतान्तरों की मिथ्या मान्यताओं का प्रकाश भी किया है। आईये, जीवन को सत्यमय बनायें और असत्य को जीवन से पृथक कर वेदों के धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष मार्ग का अनुसरण करें। ओ३म् शम्।

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