हादसों की शक्ल में बदलती भगदड़

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सन्दर्भ:-मुंबई रेल पुल हादसा

प्रमोद भार्गव

देश की व्यावसायिक राजधानी मुंबई के एलफिंस्टन रेलवे स्टेशन के पैदल पुल पर मची भगदड़ में 22 यात्रियों की मौत हो गई और 30 घायल हो गए। हादसे के वक्त 103 साल पुराने संकरे पुल पर हजारों यात्री मौजूद थे। मुंबई में बारिश होने और एक साथ चार सवारी गाड़ियों के आ जाने की बजह से बड़ी संख्या में यात्री पुल पर ही अटके गए थे। इसी दौरान पुल टूटने व करंट फैलने जैसी अफवाहें फैली और लोग एक-दूसरे को रौदतें हुए निकलने की कोशिश करने लगे। देखते-देखते अफवाह ने बड़े हादसे की शक्ल ले ली। जिस पुल पर भगदड़ मची वह एलफिंस्टन रोड और परेल स्टेशन को जोड़ता है। इन इलाकों में बड़ी संख्या में कार्पोंरेट व मीडिया आॅफिस हैं, इसलिए हर एक मिनट में 300 व रोजाना लाखों यात्री इस पुल से गुजरते हैं। पुल के नीचे खड़े लोगों ने हादसे के वीडियों बनाए। सोशल मीडिया में जारी इन वीडियों में लोग रैलिंग में फंसकर जान बचाने की गुहार लगाते दिखाई दे रहे थे। रेल पुल पर हुई यह दुर्घटना साफ तौर से प्रशासनिक व्यवस्था में गहरे पैठी लापरवाही और कुप्रबंधन का नतीजा है। केंद्र में जब से नरेंद्र मोदी की सरकार है, तब से रेलवे में बड़े-बड़े सुधार के दावे किए जा रहे हैं, लेकिन नतीजे ढांक के तीन पात ही हैं। दरअसल मोदी से लेकर पूर्व रेल मंत्री सुरेश प्रभु और वर्तमान रेल मंत्री ने रेलों की रफ्तार बढ़ाने, बुलेट, मेट्रो एवं टेल्गो टेªन लाने के साथ रेलवे में बढ़े पैमाने पर निजीकरण, तकनीकीकरण और सुरक्षा के हवाई दावे तो बहुत किए हैं, लेकिन हकीकत यह है कि न तो रेल दुर्घटनाएं टल रही हैं और न ही कोई खास बुनियादी सुधार हुए हैं। यहां तक की गुणवत्तापूर्ण भोजन भी यात्रियों को उपलब्ध कराना मुश्किल हो रहा है।

इस रेल दुर्घटना के ठीक एक दिन पहले रेल मंत्री पियूष गोयल ने 700 रेलों की रफ्तार बढाने और 48 मेल एक्सप्रेस रेलों को सुपरफास्ट रेलों में बदलने का दावा किया था। सुरक्षा के लिए स्टेशनों पर सीसीटीवी कैमरे और वाई-फाई लगाने के दावे किए थे दरअसल मोदी की यह सरकार  जिस तरह से तकनीक पर धन खर्च कर रही है, उसके अनुकूल परिणाम अब तक रेलवे में नहीं आए हैं। रेलवे के जो पुल, भवन और पटरियां 100 साल से भी ज्यादा पुराने हैं, उन्हें संचार संबंधी तकनीक से दुरुस्त नहीं किया जा सकता है। इस पुल को चौड़ा करने और इसके समानांतर एक नया पुल बनाने की मांग शिव सेना के सांसदों ने पत्र लेख कर सुरेश प्रभु से की थी, लेकिन उन्होंने अर्थ की कमी जता कर इस मांग को टाल दिया था। लेकिन यही दलील वाई-फाई जैसे व्यर्थ की तकनीकों और बेहद खर्चीली बुलेट व टेल्गो ट्रेनें जमीन पर उतारने में बाधा नहीं बन रही है। देश में करीब 8500 रेलवे स्टेशन हैं। रेलवे सुरक्षा मैन्युअल के हिसाब से 75 फीसदी स्टेशनो पर पैदल पुल बनाए जाने के लिए मानक तय कर दिए गए हैं। जिसमें यात्रियों की क्षमता, ट्रैक से गुजरने वाली रेलों के कारण होने वाले कंपन शामिल है। लेकिन पुराने हो चुके पुल अभी भी मानक के हिसाब से विकसित नहीं किए जा सके हैं। यह सीधे-सीधे आपराधिक अनदेखी है, जिसकी जवाबदेही तय होनी चाहिए।

रेलवे स्टेशनो पर हुए हादसों की यह कोई पहली घटना नहीं है। बाबजूद हम हैं कि इतिहास से सबक नहीं लेते हैं। इसी साल की शुरूआत में बडोदरा स्टेशन पर फिल्म अभिनेता शाहरूख खान को देखने पहुंची भीड़ के सामने पूरा प्रबंधन लाचार हो गया था। इसी तरह पिछले दिनों नई दिल्ली स्टेशन पर भगदड़ मचने से एक महिला और बच्चे की मौत हो गई थी। यह भगदड़ दो रेलों के ऐन वक्त पर प्लेटफार्म बदले जाने के कारण हुई थी। फरवरी 2013 में इलाहाबाद कुंभ मेले में रेलवे स्टेशन के ओबरब्रिज पर भगदड़ मच जाने के कारण 36 लोग मारे गए थे। स्टेशनो पर सुरक्षा के लिहाज से कई मर्तबा दिशा-निर्देश तय किए गए हैं, लेकिन इनके लिए तकनीकी संसाधनों पर खर्च तो करोड़ों रुपए कर दिए गए, लेकिन न तो इन पर पैनी नजर रखी जाती है और न ही अधिकारी समीक्षा करते है। सीसीटीवी कैमरों पर जमा हो रही भीड़ पर नजर रखने के निर्देश हैं। यदि भीड़ ज्यादा हो जाए तो उसे रोकने की कोशिश होनी चाहिए। लेकिन अकसर ऐसा किया नहीं जाता है। नियमों के मुताबिक प्लेटफार्म पर यात्रा कर रहे यात्री के साथ एक ही व्यक्ति को साथ में जाने की अनुमति है। बाबजूद एक यात्री को कई-कई व्यक्ति छोड़ने जाते हैं। देश के किसी भी भीड़-भाड़ वाले स्टेशन पर इन नियमों का पालन नहीं किया जाता है। हमारा जब कोई नेता रेल से आता या जाता है, तब उसके प्रशंसकों का रेला ही स्टेशन पर आ धमकता  है। इसी तरह देश में धर्म-लाभ कमाने की प्रकृति से जुड़े हादसे भी लगातार देखने में आ रहे हैं।

इस दुर्घटना ने इस सच्चाई से पर्दा उठाया है कि रेलवे का बुनियादी ढांचा एक तो चरमरा रहा है, दूसरे वह बढ़ते यात्रियों के कारण कम भी पड़ रहा है। एलफिंस्टन स्टेशन के जिस पैदल-पथ पर यह हादसा हुआ, वह अंग्रेजों के जमाने में 1911 में बना था। आजादी के समय मुंबई की आबादी लगभग 40 लाख थी, जो आज सवा 2 करोड़ के करीब है। यदि मामूली सोच से ही समझा जाए तो हम अनुभव कर सकते है कि जनसंख्या वृद्धि और स्टेशनो पर रेलों व यात्रियों की आवाजाही बढ़ जाने के कारण उपरोक्त ढांचा हर स्टेशन पर छोटा पड़ने लगा है। सोशल मीडिया पर इस पुल का मुद्दा उठाया गया और इसके जर्जर हो जाने का हवाला भी दिया गया। अब सवाल उठता है कि जब दुरावस्था की इस स्थिति को आम आदमी समझ सकता है, तो वे अधिकारी क्यों नहीं समझ पाते जो उच्च शिक्षित होने का दंभ भरते हैं।

भारत में पिछले डेढ़ दशक के दौरान मंदिरों और अन्य धार्मिक आयोजनों में प्रचार-प्रसार के कारण उम्मीद से कई गुना ज्यादा भीड़ उमड़ रही ह्रै। जिसके चलते दर्शनलाभ की जल्दबाजी व कुप्रबंधन से उपजने वाले भगदड़ों का सिलसिला जारी है। धर्म स्थल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम कम से कम शालीनता और आत्मानुशासन का परिचय दें। किंतु इस बात की परवाह आयोजकों और प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं होती। इसलिए उनकी जो सजगता घटना के पूर्व सामने आनी चाहिए, वह अकसर देखने में नहीं आती ? लिहाजा आजादी के बाद से ही राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र उस अनियंत्रित स्थिति को काबू करने की कोशिश में लगा रहता है, जिसे वह समय पर नियंत्रित करने की कोशिश करता तो हालात कमोबेश बेकाबू ही नहीं हुए होते ? इसलिए अब ऐसी जरूरत महसूस होने लगी है कि भीड़-भाड़ वाली जगहों पर व्यवस्था की जिम्मेदारी जिन आयोजकों, संबंधित विभागों और अधिकारियों पर होती है, उन्हें भी ऐसी घटनाओं के लिए जिम्मेबार ठहराया जाए।

हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक आयोजन विराट रुप लेते जा रहे हैं।  कुंभ मेलों में तो विशेष पर्वों के अवसर पर एक साथ तीन-तीन करोड़ तक लोग एक निश्चित  समय के बीच स्नान करते हैं। किंतु इस अनुपात में यातायात और सुरक्षा के इंतजाम देखने में नहीं आते। जबकि शासन-प्रशासन के पास पिछले पर्वों के आंकड़े हाते है। बावजूद लापरवाही बरतना हैरान करने वाली बात है। दरअसल, कुंभ या अन्य मेलों में जितनी भीड़ पहुंचती है और उसके प्रबंधन के लिए जिस प्रबंध कौशल की जरुरत होती है, उसकी दूसरे देशों के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते ? इसलिए हमारे यहां लगने वाले मेलों के प्रबंधन की सीख हम विदेशी साहित्य और प्रशिक्षण से नहीं ले सकते ? क्योंकि दुनिया के किसी अन्य देश में किसी एक दिन और विशेष मुहूर्त के समय लाखों-करोडों़ की भीड़ जुटने की उम्मीद ही नहीं की जा सकती है ? यह भीड़ रेलों और बसों से ही यात्रा करती है। बावजूद हमारे नौकरशाह भीड़ प्रबंधन का प्रशिक्षण लेने खासतौर से योरुपीय देशों में जाते हैं। प्रबंधन के ऐसे प्रशिक्षण विदेशी सैर-सपाटे के बहाने हैं, इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। ऐसे प्रबंधनों के पाठ हमें खुद अपने देशज ज्ञान और अनुभव से लिखने होंगे। साथ ही हादसे के वक्त आम नागरिकों को भी इस दृश्टि से जागरूक किया जाना जरूरी है कि वे यह ख्याल रखें की जब कहीं अचानक भगदड़ की स्थिति निर्मित हो तो धीरज खोने की बजाय विवेक से काम लें और उचित-अनुचित का ध्यान रखें। यदि यह सोच आम लोगों की विकसित कर दी जाती है तो इस तरह की दुर्घटनाओं में कम से कम जनहानि होगी।

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