स्वतंत्रता साधन नहीं साध्य

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स्वतंत्रता दिवस पर हम प्रायः यह विचार करते हैं कि स्वतंत्रता से पहले हमारी क्या स्थिति थी और स्वतंत्रता के बाद इसमें क्या परिवर्तन आया। देश के स्वतंत्र होने के बाद जन्म लेने वाली पीढ़ी के लिए स्वतंत्रता दिवस इतिहास के दो कालखंडों को पृथक करने वाला एक विभाजक मात्र है – एक ऐसा दिन जिस दिन सत्ता विदेशी शासकों से हमें हस्तांतरित हुई थी। हम परिचर्चा करते हैं कि स्वतंत्रता हासिल कर आखिर हमें क्या मिला? जब हम ऐसा करते हैं तो स्वतंत्रता को एक साधन मान लेते हैं। स्वतंत्रता साधन से अधिक साध्य है। स्वतंत्रता अपने आप में एक ऐसी उपलब्धि है जिसका उत्सव मनाया जाना चाहिए। अंग्रेजी के दो शब्द हैं freedom और liberty, जहाँ freedom का अर्थ होता है- to be free from something वहाँ liberty का अर्थ होता है- to be free to do something. जब हम स्वतंत्रता को अंग्रेजों की गुलामी से मिली आजादी तक सीमित कर देते हैं तो हम उसके महत्व को कम कर रहे होते हैं। हमें अपने राष्ट्र पुरुषों का दो बातों हेतु ऋणी होना चाहिए प्रथम तो इस हेतु कि उन्होंने अनथक संघर्ष और अतुलनीय बलिदान से हमें पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त किया और शायद इससे से भी अधिक इस बात के लिए कि उन्होंने जटिल सामाजिक धार्मिक संरचना वाले हमारे देश को एक स्थायी और स्थिर लोकतंत्रात्मक व्यवस्था के पथ पर अग्रसर करने की आधारशिला रखी। बाह्य स्वतंत्रता से आंतरिक स्वतंत्रता की हमारी यात्रा,फ्रीडम से लिबर्टी का हमारा सफर यह बताता है कि इस लिबर्टी ने फ्रीडम की रक्षा करने में और उसे अक्षुण्ण बनाए रखने में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यदि हमें अपनी सरकार चुनने की,अपने कानून बनाने की,अपना रोजगार तय करने की,देश में घूमने फिरने की, अपने धर्म को मानने की और अपनी बात कहने की स्वतंत्रता नहीं होती तो शायद हम अंग्रेजों से मिली आजादी का लाभ नहीं उठा पाते।
अमर्त्य सेन ने इस विचार को आगे बढ़ाया है। सेन के अनुसार (1999) विकास लोगों को मिलने वाली स्वतंत्रता का विस्तार मात्र है। विकास के आकलन हेतु प्रति व्यक्ति आय,जी एन पी,औद्योगीकरण, तकनीकी विकास और सामाजिक आधुनिकीकरण आदि संकुचित मापदंड हैं। विकास और कुछ नहीं व्यक्ति की स्वतंत्रता में आने वाली बाधाओं का उन्मूलन है। आर्थिक अवसरों का अभाव, सामाजिक वंचना, जन सुविधाओं की उपेक्षा, असहिष्णुता और दमनकारी राज्य की अतिसक्रियता की समाप्ति ही विकास है। यही स्वतंत्रता भी है।
उपनिवेशवाद तो अब समाप्त हो चुका है और इसका स्थान नव उपनिवेशवाद ने लिया है जो सूक्ष्म होने के कारण और अधिक घातक है क्योंकि अब उपनिवेशवादियों के प्रत्यक्ष सैनिक नियंत्रण का स्थान आर्थिक-व्यापारिक और अप्रत्यक्ष सामरिक नियंत्रण ने ले लिया है और इसे विश्व मुद्रा कोष,विश्व बैंक, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद,विश्व व्यापार संगठन जैसी संस्थाओं का सहयोग भी प्राप्त है। अब स्वतंत्रता पर विमर्श विश्व के विभिन्न देशों के नागरिकों को मिलने वाली स्वतंत्रता के आकलन और नव उपनिवेशवाद के खतरे पर केंद्रित है।BORGEN के सितंबर 2013 के अंक के अनुसार विश्व के 192 देशों में से 123 देशों में लोकतंत्र है ।यह गणना विभिन्न देशों में प्रभावी चुनाव प्रणाली की उपस्थिति के आधार की गई है। विश्व के जिन देशों में लोकतंत्र नहीं है उनमें मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के देश बहुतायत से हैं। इन देशों में लोकतंत्र की अनुपस्थिति या बुरी स्थिति को धर्म से जोड़कर देखने का एक विमर्श भी है। अपनी सरकार से सहायता प्राप्त करने वाला एक अमेरिकन एन जी ओ फ्रीडम हाउस, 1972 से फ्रीडम इन द वर्ल्ड नामक एक रिपोर्ट प्रकाशित करता है जो पूरी दुनिया का ध्यान खींचती है। इसकी नवीनतम रिपोर्ट में भारत की फ्रीडम स्टेटस को फ्री बताया गया है जबकि प्रेस फ्रीडम स्टेटस और नेट फ्रीडम स्टेटस को पार्टली फ्री बताया गया है। इसकी रिपोर्ट में गो रक्षकों द्वारा किए गए हमलों, ब्लॉगर्स, सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों तथा पत्रकारों पर बढ़ते आक्रमणों और विश्व विद्यालयीन छात्रों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर मंडरा रहे खतरों आदि का जिक्र है। साथ ही नोट बंदी और जी एस टी का प्रभावी भ्रष्टाचार निरोधी कदमों के रूप में प्रशंसात्मक उल्लेख है। पब्लिक सेक्टर के कर्मचारियों की सितंबर 2016 की राष्ट्रव्यापी हड़ताल को भी इसमें स्थान मिला है। बहरहाल फ्रीडम हाउस पर समय समय पर यह आरोप लगते रहे हैं कि वह अमेरिकी हितों के विपरीत चलने वाले देशों की छवि धूमिल करने का कार्य करता है, इसलिए इसकी रिपोर्ट से अक्षरशः सहमत होना कठिन है। वैसे भी यह कश्मीर में मानवाधिकारों का भारत से अलग आकलन करने हेतु विवादित रहा है और इसके मुताबिक इंडियन कश्मीर का फ्रीडम स्कोर, पार्टली फ्री है। यूनाइटेड किंगडम की इकोनॉमिक इंटेलिजेंस यूनिट विश्व के 167 देशों में स्टेट ऑफ डेमोक्रेसी पर एक डेमोक्रेसी इंडेक्स जारी करती है। इसकी रैंकिंग में भारत 2015 के 35 वें स्थान में हल्का सा सुधार कर 2016 में 32 वें स्थान पर आ गया है। इन विदेशी संगठनों की रिपोर्टों का महत्व बस इतना ही है कि इनसे यह ज्ञात होता है कि दुनिया हमारे बारे में क्या सोच रही है। लेकिन इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि हम अपने बारे क्या सोचते हैं।
हमारा प्रजातंत्र विचित्रताओं का विलक्षण समन्वय है। हो सकता है कि यह कभी कभी देश के कुछ भागों में चलने वाले जुगाड़ नामक वाहन की तरह लगे या पुराने मुहावरों की भाषा में भानुमती के पिटारे की भांति प्रतीत हो। लेकिन है यह टिकाऊ और मजबूत। अकसर हमारा प्रजातंत्र एक विशाल समुद्र की भांति भी लगता है जिसमें ज्वार भाटा भी आता है, तूफान और सुनामी भी, जिसके गर्भ में कितने ही भूकम्प और ज्वालामुखी हलचल मचाते हैं और जो विशाल हिम खंडों को समेटे हुए है, किन्तु इनसे समुद्र की सेहत पर कुछ फर्क नहीं पड़ता। इन सब विक्षोभों का एक समय होता है और इनके बाद समुद्र की लयबद्ध लहरों का अस्तित्व शेष रह जाता है- अंतहीन गतिविधियों से भरा, सम्मोहक कोलाहल करता समुद्र यथारूप हमारे सामने होता है।
ऐसे ही अनूठे हम भारत के आम नागरिक हैं। अपने समय के सबसे प्रतिभासम्पन्न राजनेताओं में से एक पंडित नेहरू को हम महज उनकी निश्छल मुस्कान भरी डाँट पर फिदा होकर जिता देते हैं। भारतीय राजनीति की लौह महिला इंदिरा गाँधी हमारे लिए जवाहर लाल की बेटी भर है और कुछ नहीं इसलिए उसकी जीत पक्की हो जाती है। लोहिया, कृपलानी डांगे, दीनदयाल जैसे विलक्षण योग्यता संपन्न लोगों की बात नहीं सुननी तो नहीं सुननी। हम और भी ज्यादा व्यक्तिपूजक लगते हैं जब हम ढेरों अभिनेताओं और खिलाड़ियों को बार बार चुनाव जिताते हैं और उनके लिए मरने मारने को तैयार हो जाते हैं। लेकिन जब कोई हमारे बारे में धारणा बनाने लगता है तो उसे झुठलाना भी हमें खूब आता है। इमरजेंसी का डिसिप्लिन हमें नहीं भाया, जबरन की नसबंदी भी हमें नाराज कर गई तो उठा कर दे दी सजा, पलट दिया तख्ता! हम जानते हैं हमें कहाँ शौच करना है और कहाँ कचरा डालना है। हम यह भी जानते हैं कि हमारे पर्यावरण को कौन दूषित कर रहा है। बूढ़े बिग बी भले ही थक जाएं लोगों को शौचालय पहुंचाते पहुंचाते, हमें नहीं जाना तो नहीं जाना। वह तो हम अभी लिहाज कर रहे हैं। कभी हम मंडल के रंग में रंगे नजर आते हैं तो कभी कमंडल के। जब लोग हमें सेक्युलर समझते हैं तो हम धर्म के नाम पर वोट देकर हम उन्हें चौंका देते हैं। जब लोग समझते हैं कि हम जाति के आधार पर लामबंद हो रहे हैं तो हम उन्हें विकास के लिए मतदान कर हड़बड़ा और गड़बड़ा देते हैं। हमारा प्रजातंत्र एक अजूबा है। हम लालू और नीतीश को एक साथ चाह सकते हैं। कभी हम भ्रष्टाचारियों को जिताए चले जाते हैं और जब आप हमें उनका साथी मानने लगते हैं तो हम भ्रष्टाचार के नाम पर सरकार बदल देते हैं। कभी हम बाहुबलियों के आगे नतमस्तक लगते हैं लेकिन अपनी पर आ गए तो बता देते हैं कि कौन असली बाहुबली है। चमत्कार करना हमारे प्रजातंत्र की आदत है। क्या यह चमत्कार नहीं है कि जिन हिंदूवादियों और वामपंथियों की आजादी की लड़ाई में हिस्सेदारी पर सवाल उठते रहे हैं वे ही गरज गरज कर आज देशभक्ति और राष्ट्रवाद पर बहसें कर रहे हैं। जिन विचारधाराओं में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने के बीज रहे हों उनके बीच आज बोलने की आजादी को ले बहसें हो रही हैं। हम सोशल मीडिया पर ऐसे लड़ते हैं कि लोग समझ बैठते हैं कि यह देश तो गया लेकिन सारी भड़ास सोशल मीडिया में निकाल कर असल दुनिया में हम एक दूसरे के करीब आ जाते हैं। हम ऐसे ही हैं। हम शांतिप्रिय लोग हैं। हम कतार में लगने के अभ्यस्त हैं फिर चाहे वह नोट बदलने की कतार हो या उसके बाद दंगल फ़िल्म का टिकट खरीदने की कतार हो। नोट बंदी में हमारा पैसा मिलने में दिक्कत हुई तो क्या, धन्ना सेठ तो लाखों के नीचे आ गए होंगे -यह ख्याल हमें रोमांचित कर देता है। हो सकता है कि जी एस टी कॉरपोरेट्स को फायदा पहुंचाता होगा लेकिन हमें तो इसलिए नापसंद है कि एक तो हमें कंप्यूटर आता नहीं और इसमें बही में हेरफेर भी आसान नहीं है,सी ए को बेकार में पैसे देने पड़ते हैं। कॉरपोरेट घरानों के कर्ज का क्या करना है वह बड़े लोग समझें हम तो बस इतना चाहते हैं कि कुछ ले दे कर हमारा कर्ज माफ हो जाता।
हम भारतवासियों को समझाना बड़ा मुश्किल है। तुम लाख सभाएं ले लो, कक्षाओं में पढ़ा लो तुम्हारी संस्कृति यह है, तुम्हारी संस्कृति वह है, हम पर असर नहीं होने वाला। हम जो बरसों से शांति से जिस तरह रहते आए हैं बिना विचारे कि कौन क्या है, हम उसी तरह रहेंगे। कोई लाख कह ले कि तुम्हारे रक्त की लाल और सफेद कणिकाओं को मैं अलग कर दूंगा हम नहीं मानने वाले क्योंकि हमें पता है कि अगर वह ऐसा करने में कामयाब भी हो गया तो हम तो मर जाएंगे। टी वी के चैनल दिन दिन भर दंगों की, हिंसा की खबरें दिखाते रहें यह उनकी मजबूरी है। हम पर इसका असर नहीं पड़ने वाला। देश के हजारों शहरों में से एक शहर, देश के करोड़ों लोगों में से मुट्ठी भर लोग अगर आपस में लड़ भी रहे हैं तो क्या वे महज टी वी पर आ जाने से पूरे देश पर भारी पड़ जाएंगे। क्या कौवा कान ले गया कहने से हम मान लेंगे? हाँ किसी की खुशी के लिए हम इतना भर मान सकते हैं कि बहुजातीय और बहुधर्मी देश में अमन चैन से रहने और तरक्की करने के लिए सहिष्णुता एक मजबूरी है और धर्मनिरपेक्षता एक रणनीति लेकिन इन्हें हम छोड़ेंगे नहीं। धर्म निरपेक्षता के महत्व से राजनीतिज्ञ भी अवगत हैं। दोनों बड़ी पार्टियों के आर्थिक एजेंडे तो बहुराष्ट्रीय कम्पनीज, आई एम एफ,डब्लू टी ओ और वर्ल्ड बैंक तय करते हैं। अब दोनों पार्टियां एक तो हो नहीं सकती। यहाँ धर्मनिरपेक्षता काम आती है। एक पार्टी इसका समर्थन करती है दूसरी विरोध। महापुरुषों और स्वाधीनता सेनानियों के खण्डन-मण्डन और इन्हें पेटेंट कराने की जद्दोजहद के इस जमाने में हम निर्विकार हैं। इतिहास सुधारने-बिगाड़ने के झगड़े में हम तटस्थ हैं। हमें पता है इतिहास के जीवित तत्व परंपरा बनकर हमारी रगों में समाए हुए हैं। हम यह भी जानते हैं एक अतिरेक से दूसरे अतिरेक की यात्रा अंततः संतुलन लाती है।
हमें आगाह करते करते बुद्धिजीवियों का गला बैठ जाए कि तुम्हारी आजादी खतरे में है, हम नहीं सुनने वाले। बहुत हुआ तो बस मुस्करा कर कह देते हैं ये जो तुम चिल्ला चिल्ला कर अपना गला बैठाए जा रहे हो वह स्वतंत्रता का सूचक नहीं है तो क्या है? रिएक्शनरियों के साथ तुम भी रिएक्शनरी मत बन जाओ। विरोध की नकारात्मकता में खुद को न बहाओ। वरना कंप्यूटर क्रांति का, टेलीकम्युनिकेशन के विकास का, उदारीकरण का, आधार का, जी एस टी का चन्द सालों पहले घोर विरोध करने वाले सत्ता में आने पर इनके गुण गा कर जैसी फजीहत में पड़ते हैं वैसी ही तुम्हारी होगी। नव उपनिवेशवाद का, ग्लोबलाइजेशन का तोड़ ढूंढो वरना सत्ता में आने पर कारखाना खुलवाने के लिए कॉरपोरेट्स के चक्कर लगाते नजर आओगे। वैसे भी यदि तुम्हारे प्रतिरोध को चुनावी जनाधार न मिले तो इसका फायदा अपने गौरवशाली अतीत की दुहाई देती पथभ्रष्ट वर्तमान प्रमुख विपक्षी पार्टी को मिलेगा जिसका आर्थिक एजेंडा सत्ताधारी दल से भिन्न नहीं है।
हमें किसी रंग में रंगा जाना पसंद नहीं। चाहे वह कोई भी रंग हो। हम आजादी की मस्ती के रंग में रंगे हैं। हमारी आजादी फिरंगी विचारकों की अनुशासित आजादी नहीं है। हो सकता है हम थोड़े गंदे हों, हो सकता है हम जरा कम पढ़े लिखे हों, हो सकता है हम में सिविक सेंस की भी कमी हो, हम थोड़े भ्रष्ट भी हो सकते हैं लेकिन हम हैं आजादी के दीवाने, अपनी ही नहीं सबकी आजादी। हमारा राष्ट्रवाद कुछ दूसरे देशों के राष्ट्रवाद की तरह धर्म और नस्ल के नाम पर युद्ध करने,तानाशाही की हिमायत करने और साम्राज्य फैलाने से नहीं सिद्ध नहीं होता। बल्कि यह दुनिया में अमन चैन और दोस्ती फैलाने की हमारी कोशिशों से जाहिर होता है। लेकिन हमें कायर मत समझा जाए। जब जंग होती है तो हम आम लोग ही शहीद होते हैं और राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाने वाले हमारे शवों पर फूल चढ़ाने की औपचारिकता भर पूरी करते हैं। लेकिन सब चलता है, चाहे सियासतदां हों या ब्यूरोक्रेट्स हमें किसी से कोई शिकायत नहीं। अपनी सारी खामियों और खूबियों के साथ ये हमारे हैं, हम में से हैं, हम ही हैं। विकसित पश्चिमी देशों से विपरीत भारतीय प्रजातन्त्र बिल्कुल ग्रामीण जन जीवन जैसा है जिसमें अभाव है,अशिक्षा है, अनंत समस्याएँ हैं लेकिन एक आंतरिक व्यवस्था भी है और आत्म संतोष भी। एकदम विरोधी विचारधाराओं, हर मिजाज के नेताओं, जातीय, धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष प्रभावों, क्षेत्रीय तथा राष्ट्रीय दलों की उपस्थिति जैसी विविधताओं को फलने फूलने की स्वतंत्रता भारतीय लोकतंत्र ही दे सकता है। जब तक विविधताओं को समाहित करने और इनका आनंद लेने की क्षमता हममें रहेगी, हमारी स्वतन्त्रता भी अक्षुण्ण रहेगी। हम स्वतंत्र रहेंगे क्योंकि स्वतंत्रता हमारा स्वभाव है। हम स्वतंत्र रहेंगे क्योंकि हम दूसरों की स्वतंत्रता का आदर करते हैं। हम हैं क्योंकि हम स्वतंत्र हैं।
डॉ राजू पाण्डेय

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