व्यंग्य व्यंग्य/ तो तुम किसके बंदे हो यार? March 22, 2010 / December 24, 2011 by अशोक गौतम | 3 Comments on व्यंग्य/ तो तुम किसके बंदे हो यार? भाई ढाबे में टूटी बेंच पर चिंता की मुद्रा में बैठा था। बेंच के सहारे रखे डंडे में उसने अपनी टोपी पहना रखी थी। सामने टेबल पर चाय का गिलास ठंडा हो रहा था। पर वह उस सबसे बेखबर न जाने किस लोक में खोया था। मेरे देश में वर्दी वाला चिंता में? वह तो […] Read more » vyangya व्यंग्य
व्यंग्य व्यंग्य/ देश के फ्यूचर का सवाल है बाबा! March 13, 2010 / December 24, 2011 by अशोक गौतम | Leave a Comment ऐक्चुअली मैं उनका खासमखास तबसे हुआ जबसे मैंने चुनाव में उनके नाम भारी जाली मतदान सफलतापूर्वक करवाया था और वे भारी मतों से जीते थे। आज की डेट में उनको अकबर तो नहीं कह सकता पर मैं उनके लिए बीरबल की तरह हूं। जब भी वे परेशान होते हैं लाइफ लाइन में मुझे ही यूज […] Read more » vyangya व्यंग्य
व्यंग्य व्यंग्य/ दाल बंद, मुर्गा शुरु March 5, 2010 / December 24, 2011 by अशोक गौतम | Leave a Comment मैं उनसे पहली दफा बाजार में मदिरालय की परछाई में मिला था तो उन्होंने राम-राम कहते मदिरालय की परछाई से किनारे होने को कहा था। उन दिनों मैं तो परिस्थितियों के चलते शुद्ध वैष्णव था ही पर वे सरकारी नौकरी में होने के बाद भी इतने वैष्णव! मन उनके दर्शन कर आह्लादित हो उठा था। […] Read more » vyangya व्यंग्य
व्यंग्य व्यंग्य/पार्टी दफ्तर के बाहर February 20, 2010 / December 24, 2011 by अशोक गौतम | 2 Comments on व्यंग्य/पार्टी दफ्तर के बाहर पार्टी दफ्तर के बाहर बैठ नीम की कड़वी छांह। एक नेता भीगे नयनों से देख रहा है दल प्रवाह। सामने पार्टी दफ्तर रहा पर अपना वहां कोई नहीं। सबकुछ गया, गया सब कुछ पर आंख फिर भी रोई नहीं। कह रही थी मन की व्यथा छूटी हुई कहानी सी। पार्टी दफ्तर की दीवारें सुनती बन […] Read more » vyangya व्यंग्य
व्यंग्य व्यंग्य/ एक सफल कार्यक्रम February 12, 2010 / December 25, 2011 by अशोक गौतम | Leave a Comment पहली बार हिमालय के हिमपात के मौसम और अपनी गुफा को अकेला छोड़ गौतम और भारद्वाज मुनि दिल्ली सरकार के राज्य अतिथि होकर राजभवन में हफ्ते भर से जमे हुए थे। पर ठंड थी कि उन्हें हिमालय से भी अधिक लग रही थी। सुबह के दस बजे होंगे कि भारद्वाज मुनि अपने वीवीआईपी कमरे से […] Read more » vyangya व्यंग्य
व्यंग्य व्यंग्य/हे नेता, नेता, नेतायणम्!! December 28, 2009 / December 25, 2011 by अशोक गौतम | Leave a Comment लोमश जी कहते हैं- जो सुजान नागरिक नेता के आंगन में अपनी चारपाई केनीचे के गंद की अनदेखी कर झाड़ू लगाता है वह निश्चय ही एक दिन संसद में पहुंच संपूर्ण देश के लिए वंदनीय हो जाता है। जो नेता के जलसों के लिए भीड़ इकट्ठी करता है वह आगे चलकर संसद में सबसे आगे […] Read more » vyangya व्यंग्य
व्यंग्य व्यंग्य/ एक डिर्स्टब्ड जिन्न November 28, 2009 / December 25, 2011 by अशोक गौतम | Leave a Comment रात के दस बज चुके तो मैंने चैन की सांस ली कि चलो भगवान की दया से आज कोई पड़ोसी कुछ लेने नहीं आया। भगवान का धन्यवाद कंप्लीट करने ही वाला था कि दरवाजे पर दस्तक हुई, एक बार, दो बार, तीन बार। लो भाई साहब, अपने गांव की कहावत है कि पड़ोसी को याद […] Read more » vyangya व्यंग्य
राजनीति व्यंग्य उल्टा-पुल्टा व्यंग्य / नेताजी का जनम दिन November 28, 2009 / December 25, 2011 by पंकज व्यास | Leave a Comment छुट भैयेजी मनाए जनम दिन। बांटें कंबल, मिठाई, फल-फूल बिस्किट। जनता मारे ताने, सुन मेरे भैये, जनम दिन पर याद नहीं आया होगा सगा बाप। पर, नेताजी का जनम दिन मनाएं धूमधाम। भैये जी क्या समझाए मुई जनता को मेरे यार। खुद का जनम दिन मत मनाओ, पर बड़े नेताजी का जनम दिन तो मनाना […] Read more » vyangya व्यंग्य
व्यंग्य अब आगे देखेंगे हम लोग : व्यंग्य – अशोक गौतम November 9, 2009 / December 25, 2011 by अशोक गौतम | Leave a Comment धुन के पक्के विक्रमार्क से जब रामदीन की पत्नी की दशा न देखी गई तो उसने महीना पहले घर से बाजार आटा दाल लेने गए रामदीन को ढूंढ घर वापस लाने की ठानी। रामदीन की पत्नी का विक्रमार्क से रोना नहीं देखा गया तो नहीं देखा गया। ये कैसी व्यवस्था है भाई साहब कि जो […] Read more » Ashok Gautam Satire अशोक गौतम व्यंग्य
व्यंग्य व्यंग्य: खट्टे सपने के सच – अशोक गौतम November 2, 2009 / December 26, 2011 by अशोक गौतम | Leave a Comment रात व्यवस्था की दीवारों से खुद को लहूलुहान करने के बाद थका हारा छाले पड़े पावों के तलवों में नकली सरसों के तेल की मालिश कर नकली दूध का गिलास पी फाइबर के गद्दों पर जैसे कैसे आधा सोया था कि अचानक जा पहुंचा गांव। देखा गांव वाले लावारिस छोड़ी अपनी गायों को ढूंढ ढूंढ […] Read more » vyangya व्यंग्य
व्यंग्य बिल है कि मानता नहीं.. October 30, 2009 / December 26, 2011 by गिरीश पंकज | 1 Comment on बिल है कि मानता नहीं.. बिल, टैक्स, सेक्स और सेंसेक्स… जीवन का अर्थशास्त्र इन सबके इर्द-गिर्द घूम रहा है। उधर दुनिया में बिलगेट्स छाए हुए हैं, इधर हम बिल-टैक्स से जूझ रहे हैं। कई बार लगता है कि मनुष्य का जन्म बिल और टैक्स भरने के लिए ही हुआ है। इन बिलों का भरते-भरते मनुष्य का दिल बैठा जाता है […] Read more » Bill Girish Pankaj गिरीश पंकज बिल है कि मानता नहीं व्यंग्य
व्यंग्य नानक दुखिया सब करोबार : व्यंग्य – अशोक गौतम October 26, 2009 / December 26, 2011 by अशोक गौतम | 2 Comments on नानक दुखिया सब करोबार : व्यंग्य – अशोक गौतम धुन के पक्के विक्रमार्क ने जन सभा में वर्करों द्वारा भेंट की तलवार कमर में लपेटी चुनरी में खोंस बेताल को ढूंढने महीनों से खराब स्ट्रीट लाइटों के साए में निकला ही था कि एक पेड़ की ओट से उसे किसीके सिसकने की मर्दाना आवाज सुनाई दी। विक्रमार्क ने कमर में ठूंसी तलवार निकाल हवा […] Read more » Ashok Gautam Nanak Dukhiya Karobar अशोक गौतम करोबार नानक नानक दुखिया सब करोबार व्यंग्य