—–विनय कुमार विनायक
हे वाणी के डिक्टेटर!
जातिवाद/साम्प्रदायिकता के
प्रबल विरोधी धक्कामार!
यकीन नहीं होता कि गुलाम
भारत में तुमने वह सबकुछ कहा
एक सहज सपाट बयानी में
जिसे आजादी की सांस लेते लोग
कहते डरते स्वतंत्रता के लुटेरों से!
काश अगर तुम आज होते
कबीर नहीं मात्र कवि होते!
राजनीति की दोगली चाल से सहमे
विम्ब-प्रतीक की ढाल में दुबके
मुलम्मामार शब्दों में घिघियाते
कबीर नहीं मात्र कवि होते!
अपने सबद औ’ साखी को कहने के
पहले और बाद कई बार निगलते,
उगलते, जुगाली करते, गउवत सोचते
कहीं नाराज न हो जाए गोरक्षक,
फतवा न पढ़ दे खुदा के कोई वंदे!
जरा बोलो तो कबीर!
हिन्दू जाति सोपान के विरुद्ध
तुमने कैसे कहा था
‘हो बाभन बाभनी को जाया,
आन राह तू क्यों नहीं—!’
जरा भेद खोलो तो कबीर!
श्रेष्ठतावादी तुर्की मुस्लिम
प्रलाप के खिलाफ कैसे कहा था?
‘हो तुरक तुरकनिया के जाया,
भीतरे खतना क्यों नहीं—!’
तुमने कैसे कहा था?
जिसे आज उच्चारते भय होता
सरेआम तो क्या परीक्षा बही में
कोट करते हुए कांप जाता हाथ
सिहर जाती है अंतरात्मा
पता नहीं किस जाति-धर्म की
हीन ग्रंथी पाले होगा परीक्षा गुरु!
मानवीय सृष्टि के लिए
खतरा बने हठधर्मियों के विसरा को
कौन बुहारेगा कबीर?
तुम जन्मत: जातिवाद से परे
कर्मत: मानवतावादी थे-
‘ना हिन्दू ना मुसलमाना’
जो आज स्वीकार्य नहीं किसी को!
आज भी किसी घनानंद को सुजान से
प्रेम विवाह करने की छूट नहीं
और न आज किसी अकबर को जोधाबाई से
नाम/धर्म बदले बिना विवाह की अनुमति!
लाल तिलक और मोटी जनेऊ
हमें शुद्ध रक्त बनाए रखेगा,
काली टोपी और लंबी दाढ़ी
भारतीय लाल की गर्भनाल
अरब देश में गाड़ती रहेगी!
चार पीढ़ी पूर्व के दो भाईयों की
यह कैसी बन गई है जुदाई
अपनी-अपनी धर्मपोथी के अनुसार
एक काफिर दूसरा कसाई!
ऐसे में मानवीय समता के बारे में
बिना क्षुद्र राजनीतिक रंग में रंगे
कुदरती अंदाज में गैर सियासती
बातें कौन करेगा महाकवि कबीर!