भाजपा की गुगली के आगे चारों खाने चित्त होंगे उद्ध्व!
अरब सागर का पानी कभी कभी जमकर हिलोरें मारता है। अरब सागर के मुहाने पर बसे मुंबई को इन लहरों से रोज ही दो चार होना पड़ता है। मुंबई में एक प्रसिद्ध सड़क है जिसका नाम है मरीन ड्राईव। इस मरीन ड्राईव पर ही सहयाद्रि नामक बड़ा सा भवन है जो महाराष्ट्र सरकार का मंत्रालय है। रोजाना ज्वार और भाटा के चलते समुद्र में ऊॅची उठने वाली लहरें वैसे तो आम तौर पर खुद ही शांत हो जाती हैं, पर इस बार ये लहरें राजनैतिक रूप से तबाही मचाती दिख रही हैं।
30 जून को अमावस्या है और इसी दिन महाराष्ट्र के सियासी बियावान में जो भी हुआ उसके बाद महाराष्ट्र को एक नया चांद मिलता दिख रहा है। कहा जाता है कि राजनीति संभावनाओं का ही खेल है पर दूरदृष्टि के साथ जो भी अपनी चालें चलता है वह इसमें सफलता की पायदान चढ़ता ही जाता है।
महाराष्ट्र में जो भी सियासी प्रहसन हुए, वे बहुत ही चौंकाने वाले रहे हैं। शिवसेना के संस्थापक बाला साहब ठाकरे के विश्वासपात्र एकनाथ संभाजी शिंदे महाराष्ट्र की अघाड़ी सरकार में लोक निर्माण विभाग के मंत्री थे। वे चार बार के विधायक हैं। उन्हें उद्ध्व ठाकरे का बहुत ही विश्वस्त माना जाता था।
दरअसल, एक एक ईंट जोड़कर हिन्दुत्व के मार्ग पर चलकर बालासाहब ठाकरे ने शिवसेना को जो ऊॅचाईयां दी थीं, उन्हें उनके पुत्र उद्ध्व ठाकरे संभाल नहीं पाए। उन्हें चाहिए था कि वे अपने पिता के द्वारा स्थापित किए गए सिद्धांतों पर चलते और शिवसेना का कुनबा आगे बढ़ाते। आने वाले समय में यही कहा जाएगा कि उद्ध्व ठाकरे अपने पिता की विरासत को सहेजकर नहीं रख पाए।
मुगल बादशाह जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर का उदहारण देना यहां प्रासंगिक होगा। बादशाह अकबर ने 27 जनवरी 1556 से 27 अक्टूबर 1605 तक देश पर लगभग 50 साल शासन किया। कहा जाता है कि अकबर न्यायप्रिय राजा थे। उनके द्वारा जो नीतियां बनाईं गईं उन नीतियों पर उनके वारिसानों ने लगभग 100 साल शासन किया। बहादुर शाह जफर अंतिम मुगल शासक रहे हैं।
यह उदहारण देने का मकसद महज इतना ही है कि अकबर के द्वारा स्थापित किए गए नियम कायदों के कारण ही उनके वारिसान 100 साल तक शासन कर पाए, क्योंकि उस दौर में सूचनाओं का आदान प्रदान बहुत ही धीमी गति से होता था। अब तो संचार क्रांति का युग है आज तो सेकन्डस में ही सूचनाएं एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंच जाती हैं। यह बात भी सच है कि परिवारवाद या परिवार की वजह से सियासी दल या तो कमजोर होते हैं या टूटने के कगार पर पहुंच जाते हैं।
बाला साहब ठाकरे के निधन के उपरांत राज ठाकरे पार्श्व में ही चल रहे हैं। बाला साहब के पुत्र उद्ध्व ठाकरे अगर उनके द्वारा बनाई गई नीतियों पर चलते तो आज जो हालात बने वे शायद नहीं बन पाते। दरअसल, शुरूआत से ही शिवसैनिक इस बात से खफा नजर आ रहे थे कि वे कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाने क्यों राजी हुए!
उद्ध्व ठाकरे को विचार जरूर करना चाहिए कि लगभग 56 साल पहले जब शिवसेना का गठन किया गया था तब उसकी विचारधारा क्या थी और आज पार्टी की विचारधारा क्या है! एकनाथ शिंदे की नाराजगी को उद्ध्व ठाकरे भांप नहीं पाए और उनकी सरकार का खुफिया तंत्र भी पूरी तरह असफल ही साबित हुआ।
एकनाथ शिंदे की नाराजगी की असली वजह यह थी कि जब अघाड़ी सरकार बनाने की बात शैशवकाल में ही थी तब भी कहा जा रहा था कि एकनाथ शिंदे ही मुख्यमंत्री होंगे, पर उद्ध्व ठाकरे ने खुद ही मुख्यमंत्री बनने का फैसला ले लिया। इसके बाद शिंदे को उम्मीद थी कि उन्हें सरकार में नंबर दो का दर्जा मिलेगा, पर यह दर्जा उन्होंने अपने पुत्र आदित्य को दे दिया।
इसके अलावा चुनावों के बाद शिवसेना के द्वारा भाजपा के साथ गठबंधन तोड़कर बहुत ही बड़ी गलति की थी। इतना ही नहीं शिवसेना ने मुख्यमंत्री पद का दावा किया जो उसे नहीं करना चाहिए था। भाजपा के पास 106 विधायक का बहुमत था और शिवसेना के पास महज 56 विधायक थे, फिर भी सीएम पद उसे ही चाहिए था। वर्तमान में शिंदे को सीएम पद देकर एक तीर से भाजपा ने अनेक निशाने साध दिए हैं। उद्ध्व ठाकरे शायद यह भूल गए कि वर्तमान में भाजपा के खिवैया अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आड़वानी नहीं वरन नरेंद्र मोदी और अमित शाह हैं।
भाजपा के रणनीतिकारों के द्वारा जिस तरह एक के बाद एक गुगली फेंकी जा रही है वह सियासी पण्डितों के लिए भी भारी पड़ती दिख रही है। भाजपा के द्वारा सीएम पद खुद न लेकर एकनाथ शिंदे को उस पर काबिज करवा दिया गया। इसके बाद सीएम पद के सबसे सशक्त दावेदार देवेंद्र फड़नवीस को उप मुख्यमंत्री बना दिया गया। आखिर हो क्या रहा है यह सब!
दरअसल, भाजपा कोई रिस्क लेने के मूड में नहीं थी। अगर फड़नवीस को सीएम बनाया जाता तो शिवसैनिकों के मन में शंका उपजना स्वाभाविक था। उस स्थिति में शिवसैनिकों की सहानुभूति उद्ध्व ठाकरे के पक्ष में भी जा सकती थी, जिसकी संभावनाएं शिंदे के सीएम बनने के बाद अब शून्य हो चुकी हैं।
इसके साथ ही भाजपा के निशाने पर मुंबई महानगर पालिका अर्थात बीएमसी का चुनाव है। बीएमसी में शिवसैनिकों का दबदबा रहा है। भाजपा ने एक तीर से कई निशाने साधने का प्रयास किया है। बीएमसी इलेक्शन में उद्ध्व ठाकरे के समर्थकों के विजयी होने की संभावनाएं अब क्षींण ही नजर आने लगी है, क्योंकि अब असली और नकली शिवसेना की जंग आरंभ होगी एवं जाहिर है शिंदे सत्ता में होंगे तो विजय उनकी ही होगी।
इस पूरे मामले में भाजपा के रणनीतिकारों ने एक एक कदम फूंक फूंककर ही रखा है। 2019 में भाजपा और शिवसेना साथ मिलकर चुनाव लड़े पर जैसे ही देवेंद्र फड़नवीस सीएम बने वैसे ही उद्ध्व ठाकरे ने अजित पवार को अपने साथ मिला लिया और बहुमत साबित न कर पाने के चलते फड़नवीस को महज 24 घंटे में ही कुर्सी छोड़नी पड़ी थी।
इसके बाद उद्ध्व ठाकरे ने यू टर्न लेते हुए कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठजोड़ कर सरकार बनाई। अब 2019 में उद्ध्व ठाकरे के द्वारा लिए गए यू टर्न का माकूल हिसाब किताब भाजपा के द्वारा न केवल किया गया है वरन यह भी साबित करने का प्रयास किया है कि सत्ता के लालच में भाजपा कतई नहीं है।
इसके साथ ही भाजपा के द्वारा लिए गए स्टेण्ड के बाद यह बात भी प्रचारित होना आरंभ हो गई है कि हिन्दुत्व के रास्ते से हट चुके उद्ध्व ठाकरे को हटाकर एकनाथ शिंदे के द्वारा कोई गलति नहीं की है। जाहिर है इस बात का लाभ भाजपा को आने वाले 2024 में होने वाले आम चुनावों में मिलकर रहेगा।