थैंक यू, मि. गोडसे!

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-शंकर शरण-

godseनाथूराम गोडसे के नाम, और उनके एक काम, के अतिरिक्त लोग उन के बारे में कुछ नहीं जानते। एक लोकतांत्रिक देश में यह कुछ रहस्यमय बात है। रहस्य का आरंभ 8 नवंबर 1948 को ही हो गया था, जब गाँधीजी की हत्या के लिए चले मुकदमे में गोडसे द्वारा दिए गए बयान को प्रकाशित करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। गोडसे का बयान लोग जानें, इस पर प्रतिबंध क्यों लगा?

इस का कुछ अनुमान जस्टिस जी. डी. खोसला, जो गोडसे मुकदमे की सुनवाई के एक जज थे, की टिप्पणी से मिल सकता है। अदालत में गोडसे ने अपनी बात पाँच घंटे लंबे वक्तव्य के रूप में रखी थी, जो 90 पृष्ठों का था। जब गोडसे ने बोलना समाप्त किया तब का दृश्य जस्टिस खोसला के शब्दों में, “सुनने वाले स्तब्ध और विचलित थे। एक गहरा सन्नाटा था, जब उसने बोलना बंद किया। महिलाओं की आँखों में आँसू थे और पुरुष भी खाँसते हुए रुमाल ढूँढ रहे थे।… मुझे कोई संदेह नहीं है, कि यदि उस दिन अदालत में उपस्थित लोगों की जूरी बनाई जाती और गोडसे पर फैसला देने कहा जाता तो उन्होंने भारी बहुमत से गोडसे के ‘निर्दोष’ होने का फैसला दिया होता।” (द मर्डर ऑफ महात्मा एन्ड अदर केसेज फ्रॉम ए जजेज नोटबुक, पृ. 305-06)

यही नहीं, तब देश के कानून मंत्री डॉ. अंबेदकर थे। उन्होंने गोडसे के वकील को संदेश भेजा कि यदि गोडसे चाहें तो वे उन की सजा आजीवन कारावास में बदलवा सकते हैं। गाँधीजी वाली अहिंसा दलील के सहारे यह करवाना सरल था। किंतु गोडसे ने आग्रह पूर्वक मना कर, उलटे डॉ. अंबेदकर को लौटती संदेश यह दिया, “कृपया सुनिश्चित करें कि मुझ पर कोई दया न की जाए। मैं अपने माध्यम से यह दिखाना चाहता हूँ कि गाँधी की अहिंसा को फाँसी पर लटकाया जा रहा है।”

गोडसे का यह कथन कितना लोमहर्षक सच साबित हुआ, यह भी यहाँ इतने निकट इतिहास का एक छिपाया गया तथ्य है! गाँधीजी की हत्या के बाद गाँधी समर्थकों ने बड़े पैमाने पर गोडसे की जाति-समुदाय की हत्याएं की। गाँधी पर लिखी, छपी सैकड़ों जीवनियों में कहीं यह तथ्य नहीं मिलता कि कितने चितपावन ब्राह्मणों को गाँधीवीदियों ने मार डाला था।

31 दिसंबर 1948 के न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित समाचार के अनुसार, केवल बंबई में गाँधीजी की हत्या वाले एक दिन में ही 15 लोगों को मार डाला गया था। पुणे के स्थानीय लोग आज भी जानते हैं कि वहाँ उस दिन कम से कम 50 लोगों को मार डाला गया था। कई जगह हिंदू महासभा के दफ्तरों को आग लगाई गई। चितपावन ब्राह्मणों पर शोध करने वाली अमेरिकी अध्येता मौरीन पैटरसन ने लिखा है कि सबसे अधिक हिंसा बंबई, पुणे, नागपुर आदि नहीं, बल्कि सतारा, बेलगाम और कोल्हापुर में हुई। तब भी सामुदायिक हिंसा की रिपोर्टिंग पर कड़ा नियंत्रण था। अतः, मौरीन के अनुसार, उन हत्याओं के दशकों बीत जाने बाद भी उन्हें उन पुलिस फाइलों को देखने नहीं दिया गया, जो 30 जनवरी 1948 के बाद चितपावन ब्राह्मणों की हत्याओं से संबंधित थीं।

इस प्रकार, उस ‘गाँधीवादी हिंसा’ का कोई हिसाब अब तक सामने नहीं आने दिया गया है, जिस में असंख्य निर्दोष चितपावन ब्राह्मणों को इसलिए मार डाला गया था क्योंकि गोडसे उसी जाति के थे। निस्संदेह, राजनीतिक जीवन में गाँधीजी के कथित अहिंसा सिद्धांत के भोंडेपन का यह एक व्यंग्यात्मक प्रमाण था! चाहे, कांग्रेसी शासन और वामपंथी बौद्धिकों ने इन तथ्यों को छिपाकर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा किया।

कडवा सच तो यह है कि गोडसे ने गाँधीजी की हत्या करके उन्हें वह महानता प्रदान करने में केंद्रीय भूमिका निभाई, जो सामान्य मृत्यु से उन्हें मिलने वाली नहीं थी। स्वतंत्रता से ठीक पूर्व और बाद देश में गाँधी का आदर कितना कम हो गया था, यह 1946-48 के अखबारों के पन्नों को पलट कर सरलता से देख सकते हैं। नोआखली में गाँधी के रास्ते में पर लोगों ने टूटे काँच बिछा दिए थे। ऐसी वितृष्णा अकारण न थी। देश विभाजन रोकने के लिए गाँधी ने अनशन नहीं किया, और अपना वचन (‘विभाजन मेरी लाश पर होगा’) तोड़ा, यह तो केवल एक बात थी।

पश्चिमी पंजाब से आने वाले हजारों हिंदू-सिखों को उलटे जली-कटी सुनाकर गाँधी उनके घावों पर नमक छिड़कते रहते थे। दिल्ली की दैनिक प्रार्थना-सभा में गाँधी उन अभागों को ताने देते थे, कि वे जान बचाकर यहाँ क्यों चले आये, वहीं रहकर मर जाते तो अहिंसा की विजय होती, आदि। फिर, विभाजन रोकने या पाकिस्तान में हिंदू-सिखों की जान को तो गाँधीजी ने अनशन नहीं किया; किन्तु भारत पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपये दे, इसके लिए गाँधीजी ने जनवरी 1948 में अनशन किया था! तब कश्मीर पर पाकिस्तानी हमला जारी था, और गाँधीजी के अनशन से झुककर भारत सरकार ने वह रकम पाकिस्तान को दी। यह विश्व-इतिहास में पहली घटना थी जब किसी आक्रमित देश ने आक्रमणकारी को, यानी अपने ही विरुद्ध युद्ध को वित्तीय सहायता दी!

गोडसे द्वारा गाँधीजी को दंड देने के निश्चय में उस अनशन ने निर्णायक भूमिका अदा की। तब देश में लाखों लोग गाँधीजी को नित्य कोस रहे थे। पाकिस्तान से जान बचाकर भागे हिन्दू-सिख गाँधी से घृणा करते थे। वही स्थिति कश्मीरी और बंगाली हिन्दुओं की थी। ‘हिंद पॉकेट बुक्स’ के यशस्वी संस्थापक दीनानाथ मल्होत्रा ने अपनी संस्मरण पुस्तक ‘भूली नहीं जो यादें’ (पृ. 168) में उल्लेख किया है कि जब गाँधीजी की हत्या की पहली खबर आई, तो सब ने स्वतः मान लिया कि किसी पंजाबी ने ही उन्हें मारा।

फिर, उन लाखों बेघरों, शरणार्थियों के सिवा पाकिस्तान में हिन्दुओ का जो कत्लेआम हुआ, और जबरन धर्मांतरण कराए गए, उस पर भारत में दुःख, आक्रोश और सहज सहानुभूति थी। यह सब गाँधीजी के प्रति क्षोभ में भी व्यक्त होता था। विशेषकर तब, जब वे पंजाबी हिन्दुओं, सिखों को सामूहिक रूप से मर जाने का उपदेश देते हुए यहाँ मुसलमानों (जो वैसे भी असंगठित, अरक्षित, भयाक्रांत नहीं थे जैसे पाकिस्तान में हिन्दू थे। नहीं तो वे यहीं रह न सके होते) और उनकी संपत्ति की रक्षा के लिए सरकार पर कठोर दबाव बनाए हुए थे।

इस तरह, दुर्बल को अपने हाल पर छोड़ कर गाँधी सबल की रक्षा में व्यस्त थे! यह पूरे देश के सामने तब आइने की तरह स्पष्ट था।

अतः उस समय की संपूर्ण परिस्थिति का अवलोकन करते हुए यह बात वृथा नहीं कि, यदि गाँधीजी प्राकृतिक मृत्यु पाते, तो आज उन का स्थान भारतीय लोकस्मृति में बालगंगाधार तिलक, जयप्रकाश नारायण, आदि महापुरुषों जैसा ही कुछ रहा होता। तीन दशक तक गाँधी की भारतीय राजनीति में अनगिनत बड़ी-बड़ी विफलताएं जमा हो चुकी थीं। खलीफत-समर्थन से लेकर देश-विभाजन तक, मुस्लिमों को ‘ब्लैंक चेक’ देने जैसे नियमित सामुदायिक पक्षपात और अपने सत्य-अहिंसा-ब्रह्मचर्य सिद्धांतों के विचित्र, हैरत भरे, यहाँ तक कि अनेक निकट जनों को धक्का पहुँचाने वाले कार्यान्वयन से बड़ी संख्या में लोग गाँधीजी से वितृष्ण हो चुके थे।

लेकिन गोडसे की गोली ने सब कुछ बदल कर रख दिया। इसलिए भक्त गाँधीवादियों को तो गोडसे का धन्यवाद करते हुए, बतर्ज अनिल बर्वे, “थैंक यू, मिस्टर गोडसे!” जैसी भावना रखनी चाहिए।

गोडसे ने चाहे गाँधी को दंड देने का लिए गोली मारी, लेकिन वस्तुतः उसी नाटकीय अवसान से गाँधीजी को वह महानता मिल सकी, जो वैसे संभवतः न मिली होती।

भारत में नेहरूवादी और मार्क्सवादी इतिहासकारों द्वारा घोर इतिहास-मिथ्याकरण का एक अध्याय यह भी है कि लोग गोडसे के बारे में कुछ नहीं जानते! यहाँ तक कि गाँधी-आलोचकों की लिस्ट में भी गोडसे का उल्लेख नहीं होता। इसी विषय पर लिखी इतिहासकार बी. आर. नंदा की पुस्तक, गाँधी एन्ड हिज क्रिटिक्स (1985) में भी गोडसे का नाम नहीं। जबकि गोडसे का 90 पृष्ठों का वक्तव्य, जो 1977 के बाद पुस्तिका के रूप में प्रकाशित होता रहा है, गाँधीजी के सिद्धांतों और कार्यों की एक सधी आलोचना है।

लेकिन 67 वर्ष बीत गए, गोडसे की उस आलोचना का किसी भारतीय ने उत्तर नहीं दिया। न उस की कोई समीक्षा की गई। यदि गोडसे की बातें प्रलाप, मूर्खतापूर्ण, अनर्गल, आदि होतीं, तो उन्हें प्रकाशित करने पर प्रतिबंध नहीं लगा होता! लोग उसे स्वयं देखते, समझते कि गाँधीजी की हत्या करने वाला कितना मूढ़, जुनूनी या सांप्रदायिक था। पर स्थिति यह है कि विगत 38 वर्ष से गोडसे का वक्तव्य उपलब्ध रहने पर भी एक यूरोपीय विद्वान (कोएनराड एल्स्ट, गांधी एंड गोडसेः ए रिव्यू एंड ए क्रिटीक, 2001) के अतिरिक्त किसी भारतीय ने उस की समीक्षा नहीं की है। क्यों?

संभवतः इसीलिए, क्योंकि उसे उपेक्षित तहखाने में दबे रहना ही प्रभावी राजनीति के लिए सुविधाजनक था। गोडसे की अनेक बातें संपूर्ण समकालीन सेक्यूलर भारतीय राजनीति की भी आलोचना हो जाती है। इस अर्थ में वह आज भी प्रासंगिक है। यह भी कारण है कि यहाँ राजनीतिक रूप से प्रभावी इतिहासकारों, बुद्धिजीवियों ने उसे मौन की सेंसरशिप से अस्तित्वहीन-सा बनाए रखा है। अन्यथा कोई कारण नहीं कि एक ऐतिहासिक दस्तावेज का कहीं उल्लेख न हो। न इतिहास, न राजनीति में उस का अध्ययन, विश्लेषण किया जाए। यह चुप्पी सहज नहीं है। यह न्याय नहीं है।

इस सायास चुप्पी का कारण यही प्रतीत होता है कि किसी भी बहाने यदि गोडसे के वक्तव्य को नई पीढ़ी पढ़े, और परखे, तो आज भी भारी बहुमत से लोगों का निर्णय वही होगा, जो जस्टिस खोसला ने तब अदालत में उपस्थित नर-नारियों का पाया था। तब गोडसे को ‘हिन्दू सांप्रदायिक’ या ‘जुनूनी हत्यारा’ कहना संभव नहीं रह जाएगा।

वस्तुतः नाथूराम गोडसे के जीवन, चरित्र और विचारों का समग्र मूल्यांकन करने से उन का स्थान भगत सिंह और ऊधम सिंह की पंक्ति में चला जाएगा।

तीनों देश-भक्त थे। तीनों को राजनीतिक हत्याओं के लिए फाँसी हुई। तीनों ने अपने-अपने शिकारों को करनी का ‘दंड’ दिया, जिस से सहमति रखना जरूरी नहीं। मगर तीनों की दृष्टि में एक समानता तो है ही। भगत सिंह ने पुलिस की लाठी से लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने के लिए 17 दिसंबर 1928 को अंग्रेज पुलिस अधीक्षक जॉन साउंडर्स की हत्या की। ऊधम सिंह ने जलियाँवाला नरसंहार करने वाले कर्नल माइकल डायर को 13 मार्च 1940 को गोली मार दी। उसी तरह, नाथूराम गोडसे ने भी गाँधी को देश का विभाजन, लाखों हिन्दुओं-सिखों के साथ विश्वासघात, उन के संहार व विध्वंस तथा हानिकारक सामुदायिक राजनीति करने का कारण मानकर उन्हें 30 जनवरी 1948 को गोली मारी थी।

आगे की तुलना में भी, जैसे अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह और ऊधम सिंह को हत्या का दोषी मानकर उन्हें फाँसी दी, उसी तरह भारत सरकार ने भी नाथूराम गोडसे को फाँसी दी। तीनों के कर्म, तीनों की भावनाएं, तीनों का जीवन-चरित्र मूलतः एक जैसा है। इस सचाई को छिपाया नहीं जाना चाहिए।

उक्त निष्कर्ष डॉ. लोहिया के विचारों से भी पुष्ट होता है। देश का विभाजन होने पर लाखों लोग मरेंगे, यह गाँधीजी जानते थे, फिर भी उन्होंने उसे नहीं रोका। बल्कि नेहरू की मदद करने के लिए खुद कांग्रेस कार्य-समिति को विभाजन स्वीकार करने पर विवश किया जो उस के लिए तैयार नहीं थी। इसे लोहिया ने गाँधी का ‘अक्षम्य’ अपराध माना है। तब इस अपराध का क्या दंड होता?

संभवतः सब से अच्छा दंड गाँधी को सामाजिक, राजनीतिक रूप से उपेक्षित करना, और अपनी सहज मृत्यु पाने देना होता। पर, अफसोस!

डॉ. लोहिया के शब्दों पर गंभीरता से विचार करें – विभाजन से दंगे होंगे, ऐसा तो गाँधीजी ने समझ लिया था, लेकिन “जिस जबर्दस्त पैमाने पर दंगे वास्तव में हुए, उस का उन्हें अनुमान न था, इस में मुझे शक है। अगर ऐसा था, तब तो उन का दोष अक्षम्य हो जाता है। दरअसल उन का दोष अभी भी अक्षम्य है। अगर बँटवारे के फलस्वरूप हुए हत्याकांड के विशाल पैमाने का अन्दाज उन्हें सचमुच था, तब तो उन के आचरण के लिए कुछ अन्य शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ेगा।(गाँधीजी के दोष’)

ध्यान दें, सौजन्यवश लोहिया ने गाँधी के प्रति उन शब्दों का प्रयोग नहीं किया जो उन के मन में आए होंगे। किंतु वह शब्द छल, अज्ञान, हिन्दुओं के प्रति विश्वासघात, बुद्धि का दिवालियापन, जैसे ही कुछ हो सकते हैं। इसलिए, जिस भावनावश गोडसे ने गाँधीजी को दंडित किया, वह उसी श्रेणी का है जो भगत सिंह और ऊधम सिंह का था।

इस कड़वे सत्य को भी लोहिया के सहारे वहीं देख सकते हैं। लोहिया के अनुसार, “देश का विभाजन और गाँधीजी की हत्या एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक पहलू की जाँच किए बिना दूसरे की जाँच करना समय की मूर्खतापूर्ण बर्बादी है।” यह कथन क्या दर्शाता है?

यही, कि वैसा न करके क्षुद्र राजनीतिक चतुराई की गई। तभी तो जिस किसी को ‘गाँधी के हत्यारे’ कहकर निंदित किया जाता है, जबकि विभाजन की विभीषिका से उस हत्या के संबंध की कभी जाँच नहीं होती। क्योंकि जैसे ही यह जाँच होगी, जिसे लोहिया ने जरूरी माना था, वैसे ही गोडसे का वही रूप सामने होगा जो उन्हें भगत सिंह और ऊधम सिंह के सिवा और किसी श्रेणी में रखने नहीं देगा। इस निष्कर्ष से गाँधी-नेहरूवादी तथा दूसरे भी मतभेद रख सकते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे असंख्य अंग्रेज लोग भगत सिंह और ऊधम सिंह से रखते ही रहे हैं। आखिर वे तो हमारे भगत सिंह और ऊधम सिंह को पूज्य नहीं मानते! लेकिन वे दोनों ही भारतवासियों के लिए पूज्य हैं। ठीक उसी तरह, यदि हिंदू महासभा या कोई भी हिन्दू नाथूराम गोडसे को सम्मान से देखता है, और उन्हें सम्मानित करना चाहता है, तो इसे सहजता से लेना चाहिए।

आखिर, भगत सिंह या ऊधम सिंह के प्रति भी हमारा सम्मान उन के द्वारा की गई अदद हत्याओं का सम्मान नहीं है। वह एक भावना का सम्मान है, जो सम्मानजनक थी। अतः नाथूराम गोडसे के प्रति किसी का आदर भी देश-भक्ति, राष्ट्रीय आत्मसम्मान और न्याय भावना का ही आदर भी हो सकता है। जिन्हें इस संभावना पर संदेह हो, वे गोडसे का वक्तव्य एक बार आद्योपांत पढ़ने का कष्ट करें।

7 COMMENTS

  1. स्वर्गीय नाथूराम गोडसे को धन्यवाद अवश्य दें लेकिन जब कभी कोई विदेशी नेहरु-कांग्रेस की अवहेलना करते गोडसे-गांधी गाथा के सत्य को उजागर करने का व्यक्तिगत प्रयास कर पाए तो अवश्य ही कांग्रेस साम्राज्य में “थैंक यू” के अधिकारी केवल इंडिया में अब तक के विश्वविद्यालय और विशेषकर उनमें अंग्रेजी-माध्यम से पढ़े कल का अधिकारी-तंत्र और वे तथाकथित बुद्धिजीवी हैं जिनके कानों कान जूँ तक न रेंगी! अनिल बर्वे द्वारा “थैंक यू मिस्टर ग्लैड” के कथानक की घटनाक्रम अनुसार ग्लैड कोई और नहीं बल्कि सार्थक स्वयं स्वर्गीय नाथूराम विनायक गोडसे ही हैं जिन्होंने गांधी-वाद की छद्म अहिंसा को नंगा कर फांसी पर झूल जाना उपयुक्त समझा|

    सनातन धर्म अनुसार मोहनदास करमचंद गांधी को अधिक नहीं, केवल व्यक्तिगत रूप में मैं किसी अन्य स्वर्गीय आत्मा की भांति सम्मान देता हूँ | उनके शरीर तुल्य पुतले और एक संत समान समाधि के लिए मेरे ह्रदय में कोई स्थान नहीं है|

    अन्यत्र प्रकाशित नाथूराम गोडसे की लोकप्रियता पर लेख, “Godse is loved by many Indians, here is why, by karimganj1967assam; October 14, 2021” पर मेरी टिपण्णी प्रस्तुत है |

    There are numerous eye-witness accounts of the so-called first batch of terrorists not only in the western border region of independent India at the time of partition but more so across the border as well because there was a larger exodus of Hindus from Pakistan where the politically unrestricted Islamic government had given free for all in its unholy designs to annex whole of J&K. In the newly independent India, on the other hand, the inherent benevolence among natives and the full-scale presence of imperial administration prevented blood-shed by directing Muslims from Karol Bagh’s Nai Wala Galis to outskirts of Delhi in Mehrauli, Okhla, and other places where they flourished since after things cooled off as time passed. I had seen jeeps with machine guns stationed at one or both ends of the streets for peaceful movement of Muslims during long spells of curfew. Also, I later learnt Indian soldiers had safely escorted their Muslim colleagues across the border in a caravan of army trucks.

    One of several eye-witness accounts that recently appeared in the September 25, 2017 issuance of Dawn, “They set them all on fire’: Chakwal recalls horrors of Partition,” by Nabeel Anwar Dhakku would remain a constant reminder of the horrors of partition of India, I strongly believe, was a deep-rooted British conspiracy to keep large populations divided for easy control through the proxy rule by the 1885-born Indian National Congress.

    Nathuram Godse was no terrorist, though accused of murder, he would have been acquitted of the charge if we had proper legislation with compassion and empathy and not the Indian Penal Code 1860, designed by colonists to rule their subjects, we still follow today!

  2. Respected shankarji, I revisited the USA in 2014 and was close to a public library. I saw many clips that included Godse’s last interview. He meticulously kept record of all Gandhiji’s haphazard handling of sensitive issues. If anything, Godse was more patriotic than the rest of India. He did not want any part of India to be divided/partitioned. Assassinating Gandhi ji was the last resort. You are right this gave a big fillip to Gandhiji’s popularity. Though I was only 5 year old I heard a lot of people sympathizing with Godse. Unfortunately we had Congress government who used this incident to remain in power. No one was interested in commuting his sentence ??

  3. इस ज्ञानवर्धक सच्चाई को हम तक पहुचाने के लिए आपको कोटिशः नमन ।

  4. आदरणीय,
    शंकर जी
    क्या ही विचित्र विडम्बना है कि एक तरफ महात्मा गाॅधी की अहिंसा ने नाथूराम गोडसे को हत्यारा बना दिया। वही दूसरी तरफ महात्मा बुद्ध की अहिंसा ने हत्यारे अगुॅलीमाल को महात्मा बना दिया। जंगे आजादी के इतिहास को अपने अनुसार प्रचारित और प्रसारित किया गया। मैं कभी नही समझ पाया आजाद हिंद फौज के साॅठ हजार सैनिको में से चालिस हजार सैनिको की शहादत के बावजूद देश में लिखा और प्रसारित किया गया . ’’ दे दी तूने आजादी हमें खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल। शंकर जी देश के शहीदो को इससे बडी गाॅली और कुछ हो नही सकती। नेता जी की तो जिन्दगी ही अन्धेरे में ढकेल दी गयी। आज जरूरत है उन गुमनाम पलो पर रोशनी डालने की जिससे हमारी आज की पीढी सही तथ्यों से अवगत हो सके। आपको ढेर सारी बधाई, इस तथ्यात्मक लेख के लिये।
    आपका
    अरविन्द

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