सपा में वर्चस्व की लड़ाई

spअवनीश सिंह भदौरिया

उत्तर प्रदेश की सत्ता में सियासी भूचाल सातवें आसमान पर है। सपा(समाज वादी पार्टी) में आज दारार पड़ती दिख रही है। उत्तर प्रदेश के सत्ताधारी अखिलेश यादव और उनके चाचा शिवपाल यादव के बीच पार्टी में अपनी-अपनी चलाने को लेकर जंग छिड़ी हुई है। उत्तर प्रदेश में अपने अकेले बलबूते पर पूर्ण बहुमत से सत्ता मे आने वाली समाजवादी पार्टी में आज विरोध की आवो-हवा चल रही है। शिवपाल चाहते हैं कि पार्टी में मेरी चले और अखिलेश चाहते हैं कि मेरी चले वहीं इस सबके बीच मुलायम ने शिवपाल का साथ देकर एक नई चाल चली है। राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने देश के 70वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लखनऊ में राष्ट्रीय ध्वज के आरोहण के वक्त मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की उपस्थिति में यह कहते हुए कि वे शिवपाल यादव का अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकते, उनकी कथित उपेक्षा के मद्देनजर अपनी पार्टी के विभाजन सम्बन्धी जो आशंका व्यक्त की है, उसे सहज या स्वाभाविक नहीं माना जा सकता। भले ही यह पहला अवसर नहीं हो, जब उन्होंने सपा के नेताओं और अखिलेश सरकार के मंत्रियों को डांट-फटकार कर सुधरने की नसीहत दी हो। वहीं, एक ओर मुलायम को यह भी डर है कि अगर शिवपाल ने पार्टी छोड़ी तो परिवारवाद दो भागों में बट जाएगा, जिससे सपा को सत्ता में आने पर कड़ी मसक्क्द करनी पडग़ी। समाजवादी पार्टी में जो वर्चस्व की लड़ाई चल रही है एक मूलभूत कारण कौमी एकता दल है। शिवपाल चाहते है कि कौमी एकता दल का सपा मे वियल हो तो दूसरी ओर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का कहना है कि कौमी एकता दल का विलय सपा में नहीं होगा। इस मुद्दे पर सपा में फूट पड़ी है। दूसरी ओर मैनपुरी में उनके छोटे भाई शिवपाल यादव ने मंत्री पद से इस्तीफा देने की जो सशर्त सार्वजनिक घोषणा की है, उसे भी स्वाभाविक नहीं ही माना जा सकता। उन्होंने कहा है कि पार्टी के कार्यकर्ता जमीनों पर अवैध कब्जों और अपने पदों का अनुचित लाभ उठाने की प्रवृत्तियों से विरत नहीं हुए तो वे मंत्री पद से इस्तीफा दे देंगे। जानकारों को मालूम है कि उनका इशारा किन कार्यकर्ताओं की ओर है। फिलहाल, अखिलेश की सरकार में शिवपाल के पास मुख्यमंत्री के बाद सबसे अधिक विभाग हैं और उन्हें सबसे कद्दावर मंत्री के साथ सपा के भीतर भी सशक्त नेता माना जाता है। यही कारण है कि मुख्यमंत्री भले ही अखिलेश यादव हैं, लेकिन पार्टी के चुनाव कार्यक्रम का अगुवा शिवपाल यादव को ही बनाया गया है।

अभी तक माना यही जाता है कि सपा में वर्चस्व मुलायम सिंह यादव का ही है क्योंकि वह उन्हीं द्वारा सृजित व गठित की गई है। कहते हैं कि पार्टी के अलावा अपने यादव परिवार में भी उन्हीं की चलती है। गत लोकसभा चुनाव में इस परिवार के पांच सदस्यों के अलावा सपा के उम्मीदवार, वे किसी भी क्षेत्र के क्यों न रहे हों, सफल नहीं हो पाये तो भले ही इसे परिवारवाद कहा जाये, इसे जनता में उनकी वृहत्तर स्वीकृति के रूप में भी देखा जाता है। हाल में जब मुख्तार अन्सारी के भाई अफजल अन्सारी के साथ उनके कौमी एकता दल का सपा में विलय हुआ और इसे लेकर अखिलेश का सार्वजनिक व आन्तरिक विरोध सामने आया तो विलय के पीछे शिवपाल यादव का ही नाम आया था। मामले को लेकर सपा संसदीय दल की बैठक हुई तो शिवपाल यादव अपने गांव जाने के बहाने उसमें भागीदार नहीं बने और कौमी एकता दल के विलय का प्रस्ताव रद्द हो गया। जाहिर है कि यह शिवपाल और उनकी छवि के लिए बड़ा झटका था और इसके चलते सपा में शिवपाल की नाराजगी के ‘फैक्टरÓ से इन्कार नहीं किया जा सकता। इस सवाल से भी नहीं इस अवसर पर कौमी एकता दल के सपा में विलय के सवाल को फिर से जीवित करना और जोर देकर यह कहना कि सपा मुखिया के निर्णय को सभी को मानना पड़ेगा, कहीं अखिलेश को घेरे में लेने और यह दिखाने का प्रयत्न तो नहीं है कि पार्टी में सपा मुखिया के बाद जो कुछ चलेगा हमारा यानी शिवपाल का ही चलेगा? मुलायम का कहना है कि शिवपाल की उपेक्षा से पार्टी टूट जायेगी और ऐसा हुआ तो आधे लोग उनके साथ होंगे और सरकार व पार्टी की ऐसी-तैसी हो जायेगी। ऐसे में इस सवाल पर जायें कि पार्टी के विभाजन के अंदेशे, शिवपाल की उपेक्षा, मुख्यमंत्री के सहयोगियों के खिलाफ भ्रष्टाचार व जमीनों पर कब्जे के आरोपों के निहित व सार तत्व क्या हैं, तो इसी से जुड़ा हुआ सवाल यह भी है कि क्या बेटे व बाप यानी मुख्यमंत्री और मुलायम के सम्बन्धों में कोई फर्क आ रहा है? हां, तो इसका प्रभाव देश और उत्तर प्रदेश की भावी राजनीति पर किस रूप में और किसके हित में पडने वाला है? भाजपा इन दिनों उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने के अपने अभियान में कुछ भी उठा नहीं रख रही, लेकिन वह अपनी इस कमजोरी को जानती है कि प्रदेश की दो महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्तियों-सपा व बसपा-को छिन्न-भिन्न किये बिना उसकी दाल नहीं गलने वाली। इन्हीं कारणों से उसने 1995 में सपा-बसपा के मजबूत गठबन्धन को तोड़ा और बसपा को बाहर से समर्थन देकर मायावती को मुख्यमंत्री बनवाया। उसने इसके बाद भी बसपा के साथ सत्ता में भागीदारी करके तीन बार यह प्रयोग दोहराया। 2014 के लोकसभा चुनाव में वह बसपा को पूर्णतया ध्वस्त करने और कांग्रेस को मां-बेटे की जीत तक सीमित करने में सफल हो गई लेकिन समाजवादी पार्टी ने विपरीत परिस्थितियों में भी, भले ही पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण, पांच लोकसभा सीटें जीत लीं और इस कारण उसकी आंख की किरकिरी बनी हुई है। स्वाभाविक ही सपा के अन्दरूनी विग्रह को राजनीतिक हालात से मिलाकर भी देखा जा रहा है। साथ ही कहा जा रहा है कि मुलायम द्वारा शिवपाल का समर्थन कर उनके साथ खड़ा होना उनकी सोची-समझी रणनीति का अंग है, जिससे पार्टी में किसी प्रकार की टूट-फूट की आशंकाओं को नकार कर विधानसभा चुनाव में जीत के अभीष्ट लक्ष्य को सुरक्षित किया जा सके। इस रूप में उनके द्वारा पार्टी में विभाजन के अंदेशे को राजनीतिक रूप से असफल किया जा सका, तो इसे उनके जैसे चतुर राजनीतिज्ञ का कौशल ही माना जायेगा। वहीं अखिलेश यादव ने परिवादवाद में पड़ी फूट का ढींगरा मीडिया के सिर पर फोड़ा है। उन्होंने कहा है कि मीडिया पार्टी में दार डाल रही है। उन्होंने कहा कि हमारे बीच सब ठीक चल रहा है। वहीं मुलायम का रुख देखें तो पार्टी में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है। फिर पार्टी के नेता कुछ भी कहें। परिवारवाद में पड़ी फूट का असर कहीं आने वाले विधानसभा चुनाव पर न पड़े। सपा मुखिया बखूबी जानते हैं कि अगर भाई शिवपाल यादव ने पार्टी छोड़ी तो आने वाले चुनावों में इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। यही वजह है कि पार्टी मुखिया शिवपाल का साथ नहीं छोडऩा चाहते। अब आगे क्या होगा यह तो वक्त ही बताएगा।

1 COMMENT

  1. यह महज लोक दिखावा ही है ,इसमें न विभाजन होना है न कोई बदलाव , मुलायम भी पुराने पहलवान हैं , व्यवसाय के भी और राजनीति के भी , वे दांवपेंच से अछि तरह परिचित हैं , अखिलेश को डांट कर वह यह दिखाना चाह रहे हैं कि उन्हें जनता की कितनी चिंता है , सरकार की विफ़लतों पर पर्दा डालने की भी जुगत है , क्योंकि उन्हें लग रहा है कि उनके स्तम्भ अब हिल चुके हैं , मायावती, भा ज पा दोनों ही तीव्र दावेदार बन रहे हैं ,कांग्रेस भी ताल ठोक रही है इसलिए इस प्रकार के नाटक करने बहुत जरुरी हैं ,

Leave a Reply to mahendra gupta Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here