उत्तराखंड का बालपर्व “फूलदेई”

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‘   फूल देई, छम्मा देई,
देणी द्वार, भर भकार,
ये देली स बारम्बार नमस्कार,
फूले द्वार……फूल देई-छ्म्मा देई।’

यह गीत उत्तराखंड में आजकल के दिनों में गुनगुनाया जाता है क्योकि पुरे उत्तराखंड में आजकल फूलदेई लोकपर्व सुरू हो चूका है जो अगले कुछ दिनों तक मनाया जाता है।
14 मार्च को चैत्र मास की संक्रान्ति है, यानि भारतीय कलैंडर का प्रथम दिन। इस संक्रांति को उत्तराखण्ड में ‘फूलदेई’ के नाम से एक लोक पर्व मनाया जाता है, जो बसन्त ऋतु के स्वागत का त्यौहार है। इस दिन छोटे बच्चे सुबह ही उठकर जंगलों की ओर चले जाते हैं और वहां से प्योली/फ्यूंली, बुरांस, बासिंग आदि जंगली फूलो के अलावा आडू, खुबानी, पुलम के फूलों को चुनकर लाते हैं और एक थाली या रिंगाल की टोकरी में चावल, हरे पत्ते, नारियल और इन फूलों को सजाकर हर घर की देहरी पर लोकगीतों को गाते हुये जाते हैं और देहरी का पूजन करते हुये गाते हैं-
फूलदेई पर्व आते ही बचपन की यादे भी लोट आती है ।  मुझे याद है की हम स्कूल से छूटते ही खेतो की तरफ अपनी टोकरी लेकर फ्योली और अन्य रंग बिरंगे फूलो को एकत्रित करने के लिए दौड़ पड़ते थे ।  खासकर यह होड़ रहती है की सुबह सबसे पहले कौन अपनी फूलो की टोकरी खाली करेगा । “बुराँस ” नामक फूल को लाने के लिए जंगल जाते थे। आजकल के दिनों में गाँव का माहौल बड़ा आनंदित भरा रहता है  सुबह सुब नन्हे मुन्हे बच्चों के मुख से भिन्नं भिन्न प्रकार के लोकगीत सुनाई देते  है। जो पुरे मन, मस्तिष्क को रोमांचित कर देते है

मान्यता है की  स्कन्द पुराण के नागर खण्ड में उल्लेख आया है कि–
एक बार धरती पर असुरों का राज हो गया। उन्होंने स्वर्ग पर भी कब्जा कर लिया। तबक देवराज इन्द्र राज्य विहीन होकर निर्जन हिमालय में असुरों के विनाश हेतु मृत्यु के देवता भगवान शंकर की आराधना करने लगे।
तब भगवान शंकर प्रकट हुए और उन्होंने प्रसन्न हो कर  कहा–
* केदारयामि*!
अर्थात *किसका वध करूँ!*  इन्द्र ने कहा प्रभो आप प्रसन्न हैं तो इन                  बलशाली 5 असुरों का आप वध कर दें।
तब भगवान शंकर बोले– तुमने पांच ही असुरों के बध के लिए कहा सभी के लिए क्यों नहीं?
तब इन्द्र बोले भगवन इन 5 के मरने पर असुर जाति मृत ही समझो। इसलिए व्यर्थ का खून खराबा क्यों करना।
इस बात से भगवान शंकर प्रसन्न हुए तब भगवान शंकर बोले–
हे इन्द्र मैं तुम पर प्रसन्न हूँ तुम मुझसे और वरदान मांग सकते हो।
तब इन्द्र ने कहा भगवान आप मुझे वरदान देना ही चाहते हैं तो- आप आज से हमेशा इस स्थान                                पर निवास करें।
आपने ने यहां पर पहला शब्द केदार का उच्चाण किया इसलिए आप यहाँ केदार नाम से जाने जायँ।
तब भगवान तथास्तु कह कर वहीँ अन्तर्ध्यान हो गए।  तब से इन्द्र इस स्थान पर मन्दिर बना कर नित्य आराधना करने लगे और यह स्थान केदार नाम से विख्यात हुआ। लेकिन वृश्चिक संक्रांति के दिन अचानक इन्द्र ने देखा कि मन्दिर बर्फ के नीचे पूरी तरह लापता है। बहुत ढूँढने के बाद भी इन्द्र को मन्दिर या शिव के दर्शन नहीं हुए। तब इन्द्र दुखी हुए पर नित्य प्रति केदार हिमालय में भगवान शिव के पूजन हेतु आते रहे। मीन संक्रांति के दिन वर्फ पिघलने पर अचानक इन्द्र को भगवान शंकर के मन्दिर के दर्शन हुए। इससे प्रसन्न इन्द्र ने स्वर्ग के सभी लोगों अप्सराओं, व् यक्ष-गन्धर्वों को उत्सव मनाने का आदेश दिया जिससे सारे हिमालय में भगवान शंकर की आराधना में अप्सराएं जगह जगह मार्गों एवं हर घर में पुष्प वृष्टि करने लगी। गन्धर्व गायन–वादन करने लगे, यक्ष् नृत्य करने लगे।
तब से केदार हिमालय में यह उत्सव परम्परा आज तक जारी है।
आज भी परियों और अप्सराओं की प्रतीक छोटी–छोटी बेटियां मीन संक्रांति के दिन हर घर में फूलों की वर्षा करती हैं। कुछ स्थानों पर केवल संक्रांति के दिन, कुछ जगहों पर 8 दिन, कुछ जगहों पर पूरे महीने घरों में फूल डाल कर यह उत्सव मनाया जाता है।
यही नहीं इस उत्सव का प्रसाद हिमालय के हर घर में विद्यमान पर्वत पुत्री को हलवा/कलेवा के रूप में पूरे मीनार्क (चैत) मास में आज भी दिया जाता है
पहाड़ की यह अनूठी बाल पर्व की परम्परा जो मानव और प्रकृति के बीच के पारस्परिक सम्बन्धों का प्रतीक है । तेज़ी से बड़ रही आधुनिकता के कारण यह प्राचीन परम्परा विलुप्त की कगार पर खड़ी हो गयी है     इन प्राचीन परम्पराओ को बचाने के लिए सरकार को निति तय करनी होगी और  स्कूलों मे बच्चों को इस बालपर्व फूलदेई को मनाने के लिए प्रेरित किया जाय व इस परम्परा से संबन्धित लेख या कविताओं को नौनिहालों के पाठ्यक्रम मे शामिल किया जाय ताकि इसे व्यापकता प्रदान हो सके.     सरकार की ओर से इस विषय पर ठोस  सकारात्मक पहल करनी होगी ।

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