थानेदार मुर्गा

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इस शीर्षक को पढ़कर मुर्गा नाराज होगा या थानेदार, ये कहना कठिन है; पर कुछ घटनाएं पढ़ और सुनकर लग रहा है कि भविष्य में ऐसे दृश्य भी दिखायी दे सकते हैं।

असल में पिछले दिनों म.प्र. के बैतूल नगर में एक अजीब घटना हुई। वहां दो लोग मुर्गे लड़ा रहे थे। भीड़ देखकर पुलिस भी वहां पहुंच गयी। इस पर दोनों खिलाड़ी तो फरार हो गये; पर मुर्गों को पुलिस ने पकड़ लिया। पुलिस ने दो अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया। जब कभी वे पकड़े जाएंगे, तो गवाही के लिए उन मुर्गों को अदालत में प्रस्तुत करना होगा। इसलिए पुलिस वाले उनकी देखभाल कर रहे हैं।

थानेदार महोदय ने मुर्गों को समय से दाना-पानी देने के लिए एक सिपाही नियुक्त कर दिया। पर इससे पूरा थाना परेशान है। मुर्गों के लिए हवालात का कोई अर्थ नहीं है। वे जब चाहे सलाखों से बाहर आ जाते हैं। उन्हें हथकड़ी या बेड़ी पहनाना भी संभव नहीं है। एक मुसीबत और भी है। वे दोनों कुटकुट करते हुए जहां चाहे वहां घूमते हैं और गंदगी भी करते हैं। फिर वे पेशेवर लड़ाके हैं। इसलिए जब चाहे ताल ठोककर लड़ने और बांग देने लगते हैं। पुलिस वाले गश्त करके रात में देर से आते हैं। थकान उतारने के लिए उन्हें गहरी नींद चाहिए। इसके लिए वे कुछ विशेष पेय पीते हैं। ऐसे में मुर्गों की हरकतें उनकी नींद में खलल डालती हैं।

इससे परेशान होकर एक सिपाही ‘न मर्ज रहे न मरीज’ की तर्ज पर उन्हें पकड़कर अपनी रसोई में ले गया। जिस सिपाही पर उनकी देखभाल की जिम्मेदारी थी, उसने बड़ी मुश्किल से उनकी जान बचाई। कुछ लोगों का कहना है कि मुर्गे से ही रसोई की शोभा होती है; पर यदि उस दिन वे शहीद हो जाते, तो सिपाही को नौकरी से हाथ धोने पड़ते।

जहां तक मुर्गों की लड़ाई की बात है, किसी समय यह एक खेल था। उ.प्र. में लखनऊ के आसपास का क्षेत्र अवध कहलाता है। वहां ये खेल बहुत लोकप्रिय था। मुर्गों को काजू और बादाम खिलाकर तगड़ा किया जाता था। उन्हें दांवपेंच सिखाए जाते थे। जीत-हार पर मोटे दांव लगते थे। कुछ लोग मुर्गों की टांगों में छोटे चाकू बांध देते थे। मैदान में एक घेरा बनाकर उसमें मुर्गे छोड़ दिये जाते थे। जो मुर्गा बाहर हो जाए, वह हार जाता था। कई मुर्गें मरना पंसद करते थे; पर मैदान छोड़ना नहीं। कई बार मुर्गों के साथ उनके मालिक और फिर दर्शक भी लड़ने लगते थे।

प्रेमचंद ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में इसका विस्तार से वर्णन किया है। इस पर फिल्म भी बनी है। अवध के नवाब शतरंज में और जनता मुर्गे लड़ाने में व्यस्त रही, और इस बीच अंग्रेजों ने सारे क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। अब तो खेल के रंग-ढंग बदल गये हैं। फिर भी लखनऊ की गलियों में लोग कभी-कभी पुराने शौक पूरे कर लेते हैं।

पिछले कुछ समय से हमारे महान भारत में मानवाधिकारों से ज्यादा चर्चा पशु अधिकारों की होने लगी है। भगवान मेनका गांधी का भला करे। इन्सान की जान हवालात में भले ही चली जाए, पर क्या मजाल जो कोई मुर्गे को हाथ लगा दे। मुर्गा न हुआ, बैतूल का थानेदार हो गया। पशु-पक्षियों के तो अच्छे दिन आ ही गये। मोदी ने चाहा, तो अगली बार जनता के अच्छे दिन भी आ जाएंगे।

लेकिन यहां एक मौलिक प्रश्न और भी है। आजादी के बाद महिलाएं कई मामलों में तेजी से आगे बढ़ी हैं। इनमें से एक क्षेत्र अपराध का भी है। जब इस क्षेत्र में महिलाओं का दबदबा बढ़ने लगा, तो कई जगह से मांग उठी कि थानों में महिला पुलिसकर्मी होना भी जरूरी है। क्योंकि यदि कोई महिला अपराधी रात में कोतवाली में बंद हो, तो कई बार पुरुष सिपाहियों का मन डोल जाता है। इसलिए सरकार की आज्ञा से महिला सिपाहियों की भर्ती शुरू हुई, और अब तो सैकड़ों थानों में थानेदार ही महिलाएं हैं।

इसी तर्ज पर सोचें, तो यदि बैतूल की तरह पशु-पक्षी भी अपराध में बंद होने लगे, तो उनकी सुरक्षा कौन करेगा ? क्या इसके लिए भी उनमें से ही कुछ सिपाही और थानेदार बनाए जाएंगे। यदि वे थानेदार बने, तो उनकी वर्दी, वेतन, भत्ते आदि का क्या होगा ? वे सिर्फ अपनी बिरादरी के मामले देखेंगे या सबके ? वे रिश्वत लेंगे या नहीं ? नहीं लेने का तो प्रश्न ही नहीं है; पर लेंगे, तो कैसे, कितनी और किस रूप में, यह विचारणीय है।

इन प्रश्नों के उत्तर खोजते हुए मुझे गहरी नींद आ गयी। मेरे पड़ोस में भी एक मुर्गा रहता है। रोज तो वह सुबह छह बजे बोलता है; पर आज उसने चार बजे से ही बांग देनी शुरू कर दी। मेरी नींद खराब हुई, तो मैं भगवान से बोला कि हे प्रभु, अभी तो यह केवल मुर्गा है, यदि यह थानेदार हो गया, तो मेरा जीना मुश्किल कर देगा। इसलिए इसे मुर्गा ही रहने दो। प्रभु ने तथास्तु कहा, तो मैंने फिर से रजाई मुंह पर ढांप ली।

विजय कुमार

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