ज्यादा मुनाफ़ा दे रहा जैविक खेती का सामूहिक प्रयास

0
181

Respected Sir/Madam,

सूर्यकांत देवांगन

भानुप्रतापपुर, कांकेर 

देश में कृषि सुधार विधेयक पर जमकर घमासान मचा हुआ है। सरकार जहां इस विधेयक को ऐतिहासिक और किसानों के हक़ में बता रही है, वहीं विपक्ष इसे किसान विरोधी विधेयक बता कर इसका पुरज़ोर विरोध कर रहा है। हालांकि संसद के दोनों सदनों से पास होने के बाद यह विधेयक अब राष्ट्रपति के पास हस्ताक्षर के लिए भेजा जा चुका है, जिनकी सहमति के बाद विधेयक लागू हो जाएगा। लेकिन इसके बावजूद विपक्ष इसके खिलाफ सड़कों पर उतरा हुआ है। इस संवैधानिक लड़ाई से अलग देश का अन्नदाता अपनी फसल को बेहतर से बेहतर बनाने में लगा हुआ है, ताकि देश में अन्न की कमी न हो। इतना ही नहीं अब किसान अपनी फसल के लिए रासायनिक खादों की जगह सामूहिक रूप से जैविक खेती को अपनाकर न केवल मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ा रहा है बल्कि लोगों की सेहत को भी बेहतर बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है।

इसका अनोखा प्रयास छत्तीसगढ़ में कांकेर जिले के दुर्गूकोंदल ब्लाक स्थित गोटूलमुंडा ग्राम में देखने को मिल रहा है। जहां 450 से ज्यादा किसानों ने सामूहिक ऑर्गैनिक (जैविक) खेती को अपनी आजीविका का माध्यम बनाया है। क्षेत्र में 9 प्रकार के सुगंधित धान चिरईनखी, विष्णुभोग, रामजीरा, बास्ताभोग, जंवाफूल, कारलगाटो, सुंदरवर्णिम, लुचई, दुबराज के अलावा कोदो, कुटकी, रागी और दलहन-तिलहन फसलों का भी उत्पादन किया जा रहा है। पर्यावरण की सुरक्षा सुनिश्चित करने, मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने और अच्छी गुणवत्ता की फसलों के लिए ग्राम गोटूलमुंडा में वर्ष 2016-17 में कृषि विभाग के सहयोग और किसानों की ‘स्वस्थ्य उगाएंगे और स्वस्थ्य खिलाएंगे’ की सोच के साथ छह गांवों के लगभग 200 किसानों ने ’किसान विकास समिति’ का गठन किया। इसके बाद नए तरीके से क्षेत्र में खेती करने की शुरूआत हुई। आदिवासी बहुल इलाके के इन किसानों की इच्छा शक्ति को देखते हुए जिला प्रशासन ने भी समिति को हरित क्रांति योजना, कृषक समृ़िद्ध योजना तथा मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना जैसे योजनाओं से जोड़कर प्रशिक्षण के साथ अन्य सुविधाएं पहुंचाई हैं।

प्रारंभ में समिति के सभी किसानों ने आपस में चर्चा करके भूमि की विशिष्टता के आधार पर अपनी-अपनी जमीन पर एक सामान फसल लगाना शुरू किया। जिसके बाद खाद्य निर्माण का कार्य भी समिति के द्वारा ही किसानों ने स्वयं किया। उन्होंने गाय के गोबर, पेड़-पौधों के हरे पत्तों तथा धान के पैरा को जलाने की बजाय उसे एक साथ मिलाकर डिकंपोज (अपघटित) पद्धति से खाद बनाया। इसी तरह कीटों से रक्षा के लिए रासायनिक कीटनाशक के बजाय जैविक कीटनाशक करंज, सीताफल, नीलगिरी, लहसून, मिर्ची जैसे पौधों का प्रयोग किया। इनकी कड़वाहट ने कीटों को फसल से दूर रखा और उसका दुष्प्रभाव पौधों व जमीन पर भी नहीं पड़ा। पानी की समस्या दूर करने के लिए गांव के नाले को पंप से जोड़ा गया तो कहीं-कहीं पर ट्यूबवेल की भी खुदाई करवाई गई। जिससे क्षेत्र में पानी की समस्या भी खत्म हो गई। फसल तैयार होने तक समिति के द्वारा प्रत्येक किसान के खेत में जाकर जांच और समय-समय पर निगरानी की जाती है ताकि किसी भी प्रकार की समस्या का समाधान समिति स्तर पर किया जा सके। फसल कटने के बाद किसान उत्पादित फसल को समिति में इकठ्ठा करके बाजार में या सरकार को एक साथ बेचते हैं, जिससे मिलने वाली राशि को आपस में बांट लेते हैं। इस तरह से जैविक खेती का यह तरीका सबसे अलग है और इसमें एक दूसरे की सहायता से खेती का सारा काम आसानी से समिति के माध्यम से संपन्न कर लिया जाता है।

गोटूलमुंडा के किसानों का मुख्य उत्पादन सुगंधित धान की 9 किस्म है जिसमें चिरईनखी, विष्णुभोग, रामजीरा, बास्ताभोग, जंवाफूल, कारलगाटो, सुंदरवर्णिम, लुचई, दुबराज शामिल है। लेकिन वर्तमान में कोदो, कुटकी, रागी की मांग में तेजी से इजाफा हुआ है जो छतीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में उगाए जाने वाला आदिवासियों का मुख्य फसल है। कुछ सालों तक इन्हें ग्रामीणों का आहार माना जाता था लेकिन कृषि वैज्ञानिकों के प्रयासों और औषधीय गुणों की वजह से अब देश-विदेश से इनकी मांग आ रही है। यही कारण है कि गोटूलमुंडा के ’किसान विकास समिति’ को सरकार की तरफ से 20 मीट्रिक टन कोदो चावल उत्पादन का टारगेट दिया गया है जिसकी सप्लाई विदेशों में की जाएगी। इस संबंध में ’किसान विकास समिति’ के समन्वयक डीके भास्कर ने बताया कि शुरूआत में समिति में 200 किसान जुडे़ थे, लेकिन जैविक खेती के इस प्रयोग से होने वाले फायदे को देखकर वर्ष 2020 में अब तक 456 किसान जुड़कर हमारे साथ काम कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि रासायनिक पदार्थों के उपयोग से पर्यावरण को नुकसान होता है जिसका ख़ामियाज़ा किसान से लेकर मिट्टी तक को भुगतनी पड़ती है और उसके लिए जिम्मेदार भी हम ही हैं। इसलिए हमारी समिति जैविक विधि से खेती कर रही है ताकि इसका फायदा पीढ़ी दर पीढ़ी मिल सके। समिति के अध्यक्ष घंसू राम टेकाम व समिति के अन्य किसान रत्नी बाई, धनीराम पद्दा, अर्जुन टेकाम, शांति बाई, मुकेश टूडो सहित सभी सदस्यों का कहना है कि हम खेती के लिए खाद, कीटनाशक, बीज निर्माण जैसे सभी काम आपस में मिलकर करते हैं, इसलिए खेती में हमारी लागत कम आती है जिसका हमें मुनाफा मिलता है।

कृषि विज्ञान केंद्र, कांकेर के कृषि वैज्ञानिक बीरबल साहू का कहना है कि जैविक खेती ही प्राकृतिक खेती है जो प्राचीन समय में की जाती रही थी। जिसकी ओर हमारे किसान पुनः लौट रहे हैं। जैविक खेती को धीरे धीरे फायदे का सौदे के रूप में स्वीकार किया जाने लगा है जिसमें हमारा उद्देेश्य किसानों को उनके उत्पादन की पहचान व उचित मूल्य दिलाना है। गोटूलमुंडा के किसानों के सुगंधित धान की डिमांड राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत ज्यादा है। वर्तमान में हालात ऐसे हैं कि हम उतना उत्पादन नहीं कर पा रहे हैं। बहरहाल, गोटूलमुंडा के किसानों को प्रति एकड़ धान की जैविक खेती में लागत लगभग 4 हजार रूपए आता है। जिसमें उत्पादन 10 से 12 क्विंटल धान का होता है, तो दूसरी ओर रासायनिक खेती में यही लागत 8 से 9 हजार के बीच है और उत्पादन 17 से 18 क्विंटल का हो रहा है। जबकि रासायनिक पद्धति से मिट्टी की उर्वरा शक्ति खत्म होती जा रही है, वहीं दूसरी ओर इसका सीधा असर मानव स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है।

वास्तव में आज रासायनिक खेती की अपेक्षा जैविक उत्पादन की पहचान राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने लगी है। जिससे किसानों को लाभ तो हो रहा है लेकिन इसके बावजूद उन्हें उनकी फसल का सही दाम नहीं मिल पाता है। जिससे किसान मायूस होकर फिर से रासायनिक खेती की तरफ लौटने के लिए मजबूर हो जाता है। ऐसे में केन्द्र और राज्य सरकार को जैविक खेती की विभिन्न योजनाओं के अलावा उचित मूल्य दिलाने की दिशा में विशेष प्रयास करने की आवश्यकता है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,690 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress