चक्रव्यूह की रचना स्वयं के लिए नहीं होती ….

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विनायक शर्मा

सरकार एक बार पुनः अपने स्वयं के बुने हुए मकडजाल में उलझ कर रह गई है. लोकपाल बिल पर नेत्री मुख्य विपक्षी दल सुषमा स्वराज द्वारा प्रस्तुत किये गए सभी संशोधनों को अस्वीकार करते हुए लोकसभा में अपनी संख्या के बल पर एक कमजोर, अप्रभावी और विसंगतियों से भरे भ्रष्टाचार से लड़ने वाले कानून के बिल को पास करवाने में सफल हो गई. राष्ट्रपति से सहमती मिलने के पश्चात् इस बिल को राज्य सभा में पारित होने के लिए प्रस्तुत किया गया. इस सदन में ही सरकार और उसके सहयोगियों की असली परीक्षा थी क्यूँ की राज्य सभा में सरकार और उसके सहयोगी दलों की संख्या विपक्षी दलों से टक्कर लेने में असमर्थ सी लग रही थी. कारण स्पष्ट था की बाहर से समर्थन देने वाले मुलायम सिंह का समाजवादी दल और मायावती की बसपा अब सदन छोड़ कर जाने की अपेक्षा सदन में अपना मत देने पर अडिग थे. इतना ही नहीं बाजपाई सरकार की पूर्व सहयोगी और वर्तमान में मनमोहन सिंह सरकार में शामिल हो समर्थन देने वाली ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस अब राज्यों के लिए लोकायुक्त के विरोध में और अपना संशोधन प्रस्तुत करने पर अड़ी थी. छन-छन कर आ रहे समाचारों से स्थिति का आंकलन करने वालों के समक्ष सारी तस्वीर लगभग स्पष्ट हो ही गई थी. सरकार को भी अब यह लगने लगा था कि वोटिंग पर अड़े विपक्षियों का साथ अब सहयोगी दल भी देने को आमादा हो रहे हैं. संकट मोचक प्रणव बाबू ने भी ममता, माया, मुलायम और लालू को मनाने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु तमाम कोशिशें असफल हुईं . सरकार के समक्ष अब दो ही विकल्प बचे थे. एक या तो विपक्षी और सरकार के सहयोगी दलों के १८७ संशोधनों पर चर्चा कर उसे पारित होने देती, दूसरे किसी तरह से समय व्यतीत कर रात १२ बजे सदन को स्थगित करवा देती क्यूंकि सदन २७ से २९ दिसंबर तक केवल तीन दिनों के लिए ही बुलाया गया था. सरकार ने दूसरा विकल्प ही चुनने में अपना भला समझा और लोकपाल अधिनियम राज्य सभा में पारित होने की अपेक्षा अधर में लटक गया.

वैसे भी यदि टीम अन्ना द्वारा जन-लोकपाल कानून बनाने के लिए लिखे गए प्रारूप और सरकार और उसके सहयोगियों के बहुमत वाली संसद की स्थाई समिति द्वारा बनाये गए प्रारूप का तुलनात्मक अध्ययन किया जाये तो सरकार द्वारा संसद में पेश किया गया प्रारूप भ्रष्टाचार को रोकने और भ्रष्टाचारियों को सजा दिलवाने में अक्षम सा प्रतीत होता है. टीम अन्ना के जन लोकपाल बिल के प्रारूप को अक्षरशः स्वीकार न किये जाने के पीछे सरकार चाहे जितने प्रक्रियात्मक कारण या बहाने बताये, देश के आम जन की समझ से वह सब परे ही हैं. हमारे राजनैतिक दल अपने अपने दलों के हित साधने में लगे रहते हैं और के चलते लोकसभा और राज्य सभा में उनके अलग अलग रंग देखने को मिले. देश की जनता सब समझती है. लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं की दुहाई, संविधान द्वारा प्रदत्त विधायिका और उसके कर्तव्यों व अधिकारों के अतिक्रमण और संसद के नाम पर सांसदों की सर्वोच्चता स्थापित करने को आतुर हमारे जन-प्रतिनिधियों ने आकंठ भ्रष्टाचार से निजात पाने के लिए एक कानून के पैदा होने से पूर्व ही उसकी भ्रूण-हत्या कर दी. अब एक दूजे पर दोषारोपण किया जा रहा है. देश का जन सामान्य सब समझता है कि इस लोकपाल बिल की मांग उसके लिए नहीं वरन विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका में बढ़ रहे भ्रष्ट-आचरण पर अंकुश लगाने के लिए ही की जा रही है. इन लोगों ने भ्रष्ट-आचरण के द्वारा अकूत धन-सम्पदा कमा विदेशी-बैंकों तक में जमा कर रखी हैं. आम जन का तो अपने गावं या करीब के शहर के अतिरिक्त शिमला या दिल्ली के किसी बैंक में खाता ही नहीं होता, विदेशी बैंकों में खातों की बात तो उसके लिए दिव्यस्वप्न ही है .

भ्रष्टाचार में तो केवल तीन किस्म के ही लोग लिप्त हो सकते हैं, राजनैतिक नेता और उनके चाटुकार, सरकारी कर्मचारी व अधिकारी और व्यापारी गण. व्यापारियों की हेरा-फेरी सरकारी तंत्र की मिलीभगत के बिना हो नहीं सकती यानि व्यापारी की हेराफेरी के एवज में तंत्र को हफ्ता या जेब-गर्म. वहीँ दूसरी ओर जनप्रतिनिधि और राजनैतिक नेता जिसमे मंत्री तक आते है व बड़े नौकरशाहों व कर्मचारियों का माफिया. यह माफिया मोटा माल खाते हैं जैसे ऐ.राजा, कनिमोझी , कलमाडी, येदुरप्पा और प्रसार-भारती के निलंबित पूर्व-प्रमुख बीएस लाली आदि. इन की तिहाड़-यात्रा भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वयं जाँच की निगरानी करने या लोकायुक्त की रिपोर्ट के बाद ही पद से त्यागपत्र संभव हुआ. यह तो स्पष्ट है कि जनप्रतिनिधि और मंत्री आदि ही इस देश में आकंठ भ्रष्टाचार के पोषक हैं. इन्हीं के संरक्षण में भ्रष्टाचार न केवल फला-फूला बल्कि वह स्वयं भी इसमें लिप्त होते हैं. लोकतंत्र के जिस मंदिर ” संसद ” की यह आज दुहाई देते फिर रहे है वह तो कब का इनके कृत्यों से अपवित्र हो चुका है. वोट के बदले नोट और ” संसद में सवाल के बदले नोट ” जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं. लोकतंत्र के मंदिरों में बैठने वालों पर ही कॉमन वेल्थ गेम, २-गी घोटाले और आदर्श सोसाईटी आदि में संलिप्त होने का आरोप है.

देश को लगता है कि हमारे जन-सेवक भारतीय ईतिहास से कम और धार्मिक शास्त्रों से अधिक सबक लेते हैं. महाभारत में चक्रव्यूह और अभिमन्यु की कथा हम सभी जानते हैं. चक्रव्यूह की रचना युद्ध में दुश्मन को घेर कर मारने के लिए की जाती थी. विभिन्न प्रकार से रचे गए चक्रव्यूह में दुश्मन की सैना को तितर-बितर करना तो संभव होता था परन्तु जीवित वापिस लौटना असंभव. अर्जुन पुत्र वीर-अभिमन्यु कौरवों द्वारा रचित चक्रव्यूह को भेदना तो जानता था परन्तु जीवित वापिस लौटने के विषय से पूर्णता अनभिज्ञ था. इसी कारण वह युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ. महाभारत के जिस उदाहरण को इस देश का बच्चा-बच्चा जानता है उसको हमारे यह वर्तमान भाग्य-विधाता नहीं जानते होंगे, ऐसा सोचना भी बहुत बड़ी मूर्खता होगी. कठोर लोकपाल या लोकायुक्त जैसे बड़े-बड़े अधिनियम भी एक प्रकार से आधुनिक तकनीकी युग के नवीनतम चक्रव्यूह हैं. इनकी रचना विधायिका यानि लोकसभा या विधान सभा में बैठे हमारे यह जन-सेवक या निर्वाचित जन-प्रतिनिधि करते हैं. यह लोग ऐसे चक्रव्यूह की रचना क्यूँकर करेंगे जिसमें इनके स्वयं के फंसने का डर हो ? लोक सभा द्वरा बहुमत से पारित कर राज्य सभा में अधर में लटके सरकारी लोकपाल अधिनियम का प्रारूप न केवल दंतहीन व कमजोर है बल्कि यह तो शिकायतकर्ता के मन में एक प्रकार से भय उत्पन्न करता है कि “यदि लगाये गए आरोप सिद्ध न हुए तो तीन वर्ष की सजा हो सकती है.” वहीँ दूसरी ओर सरकारी कर्मचारी को कानूनी सहायता देने का भी प्रावधान रखा गया है. ऐसे प्रावधानों के चलते कौन शिकायतकर्ता वीर-पुरुष बन भ्रष्टाचार की वेदी पर शहीद होने के लिए शिकायत करने का साहस करेगा ?

इन सब के विपरीत तमाम विपक्ष भ्रष्टाचार के विरुद्ध संसद में गर्मी तो खा रहा है परन्तु उसने एक बार भी जन-लोकपाल कानून के पक्ष में एकजुटता नहीं दिखाई. हो सकता है कि यह सब उनकी सोची-समझी किसी रणनीति के तहत ही किया जा रहा हो. संसद में और उसके बाहर, जिस प्रकार से यह तर्क दिए जा रहे हैं कि अन्ना या सिविल-सोसाइटी के नाम पर दस-बीस अनिर्वाचित लोगों का एक समूह सरकार या संसद के अधिकारों का अतिक्रमण करने का प्रत्यन करे तो सांसद यह कतई बर्दाश्त करेंगे. समय बदल रहा है, हमारे जन-प्रतिनिधियों को समझना होगा कि भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए रचे जाने वाले चक्रव्यूह की रचना जन-आकांक्षाओं के अनुरूप ही करनी होगी. कॉमन-सोसाइटी संविधान के तहत ही अपने जन-सेवकों का चुनाव करती है, हकूमत करने वाले राजाओं का नहीं. देश की आम जनता यदि अपने जन-सेवकों का चुनाव कर सकती है तो नियुक्ति निरस्त करने के अपने अधिकार का प्रयोग करने में भी तनिक संकोच नहीं करेगी, प्रतीक्षा कीजिये ऐसा समय भी शीघ्र ही आने वाला है.

2 COMMENTS

  1. सरकार समझ रही है कि वह लोकपाल बिल को विवादों में फंसाकर इसे पास करने से बच जायेगी लेकिन वह और उसके अंधसमर्थक नोट करलें कि वह अपनी इस चाल से और अलोकप्रिय हो जायेगी। उसने एक तयशुदा रण्नीति के तहत लालू और मुलायम को मोहरा बनाकर इस बिल में आरक्षण से लेकर सीबीआई तक के इतने झमेले डाल दिये हैं कि इस पर सभी दलों में किसी कीमत पर भी एका नहीं हो सकती। चोर चोर मौसेरे भाई की तर्ज़ पर सभी नेता लोकपाल से अभी से खौफ़ज़दा हैं। अब सरकार महिला आरक्षण बिल की तर्ज़ पर बड़ी मासूमियत से कहेगी कि जब संसद बिल पास नहीं करना चाहती तो बताओ सरकार क्या करे? जवाब हम दे रहे हैं कि अब जनता ही सरकार को औकात बतायेगी। -इक़बाल हिंदुस्तानी

  2. यह है जनतांत्रिक हिटलर शाही|
    या जनतंत्र की विडम्बना है?
    यह है, भ्रष्टाचारी शासकों का, भ्रष्टाचारी के हित में, भोली जनता पर शासन |
    ==>लोक सभा द्वरा बहुमत से पारित कर राज्य सभा में अधर में लटके सरकारी लोकपाल अधिनियम का प्रारूप न केवल दंतहीन व कमजोर है बल्कि यह===> तो शिकायतकर्ता के मन में एक प्रकार से भय उत्पन्न करता है कि “यदि लगाये गए आरोप सिद्ध न हुए तो तीन वर्ष की सजा हो सकती है.”
    यह तो चोर के हाथ में डंडा दिया जा रहा है|
    अंधेर नगरी चौपट राजा —यह तो लगता है ए राजा ने बनाया हुआ विधेयक |
    धन्यवाद विनायक जी| लेखनी ऐसी ही चलाते रहिए |

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