‘हिन्दवी स्वराज्य’ की संकल्पना हो शासन का आधार

श्रीछत्रपति शिवाजी महाराज की जयंती (चैत्र कृष्ण पक्ष तृतीया, 10 मार्च, 2023) प्रसंग पर विशेष

– लोकेन्द्र सिंह

भारतवर्ष जब दासता के मकड़जाल में फंसकर आत्मगौरव से दूर हो गया था, तब शिवाजी महाराज ने ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की घोषणा करके भारतीय प्रजा की आत्मचेतना को जगाया। आक्रांताओं के साथ ही तालमेल बिठाकर राजा-महाराज अपनी रियासतें चला रहे थे, तब शिवाजी महाराज ने केवल शासन के सूत्र मुगलों से अपने हाथ में लेने के लिए बिगुल नहीं फूंका था अपितु उन्होंने वास्तविक अर्थों में स्वराज्य की प्रेरणा जगायी। अकसर हम आर्तस्वर में कहते हैं कि 1947 में हमने सत्ता तो प्राप्त कर ली थी लेकिन तत्काल बाद स्वराज्य की ओर कदम नहीं बढ़ाये थे। अंग्रेजों की बनायी व्यवस्थाओं को ही हम ढोते रहे। यहाँ तक कि हम अपनी भाषा को प्रधानता नहीं दे सके। पिछले कुछ वर्षों में अवश्य ही हमने स्वराज्य की ओर कुछ कदम बढ़ाये हैं। जबकि शिवाजी महाराज ने हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना के साथ ही सब प्रकार की प्रशासनिक व्यवस्थाएं ‘स्व’ के आधार पर बनायी। उन्होंने जिस राज्य की स्थापना की, उसे भोंसले राज्य, कोंकण राज्य या मराठी राज्य नहीं कहा अपितु उसे उन्होंने नाम दिया ‘हिन्दवी स्वराज्य’ और जिस साम्राज्यपीठ की स्थापना की, उसे कहा- ‘हिन्दू पदपादशाही’। यानी उन्होंने स्वराज्य को स्वयं की निजी पहचान से नहीं अपितु भारत की संस्कृति से जोड़ा। इसी तरह उन्होंने कभी नहीं कहा कि हिन्दवी स्वराज्य की उनकी अपनी संकल्पना है अपितु श्रीशिव ने तो जन-जन में स्वराज्य के भाव की जाग्रति के लिए कहा- “हिन्दवी स्वराज्य ही श्रींची इच्छा”। अर्थात् यह हिन्दवी स्वराज्य की इच्छा ईश्वर की इच्छा है।

              हिन्दवी स्वराज्य में श्रीशिव छत्रपति ने कैसे ‘स्व’ के आधार पर व्यवस्थाएं निर्मित कीं, उसका एक उदाहरण है ‘राज व्यवहार कोश’। शासन स्तर पर अपनी भाषा को महत्व देने के उदाहरण जब दिए जाते हैं, तब यहूदियों और अतातुर्क कमाल पाशा का उल्लेख प्राथमिकता से किया जाता है। जैसे ही यहूदियों को उनका देश इजराइल मिला, उन्होंने लगभग समाप्त हो चुकी अपनी भाषा ‘हिब्रू’ को न केवल पुनर्जीवित किया अपितु उसे इजराइल की राष्ट्रीय भाषा बना दिया। इसी प्रकार जैसे ही कमाल पाशा के हाथ में सत्ता के सूत्र आए, उसने अरबी भाषा को हटाकर प्रारंभ से ही तुर्की में राजकीय एवं अन्य नागरिक व्यवहार प्रारंभ करवा दिए। अरबी को हटाकर अचानक से तुर्की को लागू करने में कुछ लोगों ने असमर्थता जताई थी, लेकिन कमाल पाशा ने कोई समझौता नहीं किया। उन्होंने कुरान भी तुर्की में प्रकाशित करने का नियम बना दिया। वहीं, 1947 में जब एक बार फिर भारत की सत्ता के सूत्र हमारे हाथ में आए तब हमारे तत्कालीन नेता स्वराज्य की स्थापना में चूक गए। तत्कालीन नीति-निर्माताओं को अंग्रेजी अधिक महत्वपूर्ण लगी, इसलिए हिन्दी और भारतीय भाषाओं के स्थान पर अंग्रेजी राज्य व्यवहार की भाषा बनी रही। महात्मा गांधी के आग्रह के बाद भी उनके राजनीतिक शिष्यों ने हिन्दी को प्रधानता नहीं दी। राज्यों में भी भारतीय भाषाएं अंग्रेजी के मोह के कारण पीछे छूट गईं।   

हालाँकि हमारे पास प्रेरणा के लिए ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की व्यवस्था थी, जिसमें स्वभाषा के महत्व को स्थापित किया गया था। हिन्दवी स्वराज्य को आकार देते समय छत्रपति शिवाजी महाराज ने उस समय प्रचलित अरबी/फारसी भाषा के शब्दों को हटाकर राज्य व्यवहार में भारतीय भाषायी परिवार के शब्दों को स्थान दिया। राज्य अपना हो परंतु भाषा परकीय हो, तब स्वराज्य कैसे पूरा हो सकता है? विदेशी आक्रांताओं की भाषा यदि चलन में बनी रहे, तब कहीं न कहीं वह आत्मविश्वास पर चोट पहुँचाती है। यह सामान्य सिद्धांत है कि भाषा अकेली नहीं आती है, वह अपने साथ अपनी संस्कृति को लेकर भी चलती है। स्वराज्य की दृष्टि से शिवाजी महाराज राज्य व्यवहार में भाषा के महत्व को भली प्रकार समझते थे। इसलिए ही उन्होंने राज्य संचालन में अपभ्रंशित और मिश्रित शब्दों के स्थान पर संस्कृतनिष्ठ हिन्दी/मराठी शब्दों का चयन किया एवं उनका प्रयोग आरंभ करवाया। इस संबंध में शिवाजी महाराज ने लगभग 1400 शब्दों का कोश बनाया थे।  हिन्दवी स्वराज्य के राज्य व्यवहार के इस शब्दकोश को नाम दिया गया- ‘राज्य व्यवहार कोश’। अरबी/फारसी शब्दों के स्थान पर जिन संस्कृत/मराठी शब्दों को राज्य व्यवहार कोश में शामिल किया गया, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं- आदिल-न्यायाधीश, काजी-पंडित, तख्त-सिंहासन, दौलतबंकी-महाद्वारपाल, नुजुमी-ज्योतिष, पीर-गुरु, वाकानवीस-मंत्री, आब-जल, हेजीब-दूत, आतश-अग्नि, चिराग-दीप, खजाना-कोशगार, खर्च पोतेनिवशिंदा-व्ययलेखक, तबीब-वैद्य, सरनोबत-सेनानी, कैद-निग्रह इत्यादि।

छत्रपति शिवाजी महाराज की आज्ञा से राज्यव्यवहार कोश की रचना करनेवाले पण्डित रघुनाथ ने प्रस्तावना में लिखा कि “इस आर्यावर्त में म्लेच्छ सत्ता का उच्छेद कर स्वतंत्र हिन्दू राज्य स्थापना करनेवाले छत्रपति शिवाजी महाराज ने यावनी भाषा के वर्चस्व से लुप्तप्राय अपनी स्वकीय देवभाषा का पुनरुज्जीवन करने के लिए बहिष्कार्य यावनी शब्दों को संस्कृत प्रतिशब्द देनेवाले राज्यव्यवहार कोश की रचना की”।

राज्य संचालन के अन्य क्षेत्रों में भी शिवाजी महाराज ने ‘स्व’ की भावना के आधार पर व्यवस्थाएं बनायीं। स्वराज्य की अपनी मुद्रा होनी चाहिए इसलिए महाराज ने मुगलों द्वारा चलाई गई मुद्रा बंद करके सोने और तांबे के नये सिक्के जारी किए थे।। शिवाजी ने बड़े आर्थिक व्यवहार के लिए स्वर्ण मुद्रा बनवायी, जिसे ‘होन’ नाम दिया गया। जबकि सामान्य आर्थिक व्यवहार के लिए तांबे की मुद्रा बनवायी गई, इस ताम्र मुद्रा को ‘शिवराई’ कहा गया।  

छत्रपति शिवाजी महाराज भारतीय नौसेना के पितामह हैं। भारत में नौसेना की नींव सबसे पहले उन्होंने ही रखी। अंग्रेजों और पुर्तगालियों से नौकाएं खरीदने की जगह शिवाजी महाराज ने हल्की और मध्यम आकार की नौकाएं विकसित कीं। अर्थात् उन्होंने विज्ञान और प्रौद्योगिकी में भी मौलिक सोच को बढ़ावा दिया। अंग्रेजों ने उन नौकाओं का उपहास उड़ाया लेकिन उन छोटी नौकाओं ने युद्ध में ऐसा कमाल दिखाया कि अंग्रेजों को छठी का दूध याद आ गया। इन छोटे युद्धक जहाजों को शिवाजी ने ‘संगमेश्वरी’ नाम दिया था। इसी तरह उन्होंने, युद्ध में तोपों का महत्व समझकर हिन्दवी स्वराज्य में तोपों के निर्माण के लिए तोपखाने शुरू कराए। सामाजिक कार्यकर्ता एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री अनिल माधव दवे ने अपनी पुस्तक ‘शिवाजी व सुराज’ में लिखा है कि छत्रपति शिवाजी महाराज ने सबसे पहले अंग्रेजों से तोप बनाने की विधि माँगी। अंग्रेजों ने जब आना-कानी की तो शिवाजी ने बगैर देरी किए फ्रांसीसियों से समझौता कर पुरंदर के किले में तोपों का कारखाना डाल दिया। विदेश से तोपें मँगवाने की बजाय उन्होंने अपने ही देश में पीतल और मिश्रित धातुओं से बनी उत्कृष्ट तोपों का निर्माण करवाया। कानून व्यवस्था में भी परिवर्तन कर उसे व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया।

शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित ‘हिन्दवी स्वराज्य’ का दर्शन आज भी हमारे लिए पथप्रदर्शक है। वर्तमान समय में जब हम स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं और स्वाधीनता से स्वतंत्रता की ओर एक यात्रा पर अग्रसर हैं, तब हमें ‘हिन्दवी स्वराज्य’ के आदर्श को अपने सम्मुख रखना चाहिए। हिन्दवी स्वराज्य से प्रेरणा लेकर भारत की शासन व्यवस्था को ‘स्व’ का आधार देकर कल्याणकारी बनाने की दिशा में थोड़ा अधिक गति से काम करने की आवश्यकता है।   

Previous articleआर्थिक प्रगति में शुचितापूर्ण नीतियों की जरूरत
Next articleआओ उर में गाओ सुर में!
युवा साहित्यकार लोकेन्द्र सिंह माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में पदस्थ हैं। वे स्वदेश ग्वालियर, दैनिक भास्कर, पत्रिका और नईदुनिया जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में अपनी सेवाएं दे चुके हैं। देशभर के समाचार पत्र-पत्रिकाओं में समसाययिक विषयों पर आलेख, कहानी, कविता और यात्रा वृतांत प्रकाशित। उनके राजनीतिक आलेखों का संग्रह 'देश कठपुतलियों के हाथ में' प्रकाशित हो चुका है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

12,766 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress