-अशोक “प्रवृद्ध”
जल, जंगल और जमीन प्रकृति के मुख्य तत्व हैं, जिन पर इस संसार के जीव का जान अर्थात प्राण निर्भर है। इन तीन तत्वों से ही प्रकृति का निर्माण होता है। इन तत्वों के बिना प्रकृति अधूरी है। इन तीन तत्वों की बाहुल्यता वाले देश संसार में समृद्ध माने जाते हैं। लेकिन आधुनिकीकरण के इस दौर में इन संसाधनों का अंधाधुन्ध दोहन होने के कारण ये तत्व भी खतरे में पड़ गए हैं। जलस्रोत सिकुड़ने लगे हैं। जल की कमी महसूस होने से लोग परेशान हो रहे हैं। जंगल उजड़ने से वन्यजीव संकट में हैं, कई जीव व पौधों के प्रजाति विलुप्तता के कगार पर हैं। जमीन की उत्पादकता कम हो चली है। फिर भी मनुष्य चेत नहीं रहे हैं, और पृथ्वी व प्रकृति के विनाश के प्रयास निरंतर जारी हैं। जिसके कारण आज सम्पूर्ण संसार के लिए बढ़ती जनसंख्या, बढ़ता प्रदूषण, नष्ट होता पर्यावरण, दूषित गैसों से छिद्रित होती ओजोन की परत, प्रकृति एवं पर्यावरण का अत्यधिक दोहन सबसे बड़े खतरे के रूप उभरने के कारण चिंता की बात बनी हुई है। प्रतिवर्ष धरती का तापमान बढ़ रहा है। आबादी बढ़ रही है। जमीन छोटी पड़ रही है। बंजर भूमि के बढ़ने की समस्या लगातार विकराल एवं भीषण आकार ले रही है। कृषि योग्य भमि कम पड़ रही है। मरुस्थलीकरण व सूखा का खतरा निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। प्रत्येक वस्तु की उपलब्धता कम हो रही है। ऑक्सीजन की कमी हो रही है। मनुष्य का सुविधावादी नजरिया एवं जीवनशैली पर्यावरण एवं प्रकृति के लिए एक गंभीर खतरा बन कर सामने खड़ा है। भूमि क्षरण और जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे की आवृत्ति और गंभीरता में वृद्धि हो रही है। जान-माल को नुकसान पहुंचाने वाले मामले में सबसे विनाशकारी प्राकृतिक आपदाओं में से एक सूखा बड़े पैमाने पर फसल की उत्पादकता में कमी, जंगल की आग और पानी की कमी जैसे कारणों को जन्म देता है। यही कारण है कि मरुस्थलीकरण और सूखे के बारे में जागरूकता बढ़ाने, मरुस्थलीकरण को रोकने और सूखे से उबरने के उपायों पर प्रकाश डालने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 17 जून को विश्व मरुस्थलीकरण और सूखा रोकथाम दिवस मनाया जाता है। मरुस्थलीकरण और सूखे का मुकाबला करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 90 के दशक की शुरुआत में 17 जून को विश्व मरुस्थलीकरण और सूखा दिवस के रूप में मनाने का संकल्प लिया था। और 1995 से 17 जून को इस हेतु अंतर्राष्ट्रीय दिवस के रूप में नामित करते हुए इस दिन प्रतिवर्ष विश्व मरुस्थलीकरण और सूखा दिवस मनाया जाने लगा। इस दिन संयुक्त राष्ट्र, गैर सरकारी संगठन और संसार के देश मरुस्थलीकरण और सूखे से निपटने के लिए जन जागरूकता बढ़ाने, मजबूत सामुदायिक भागीदारी और सहयोग को बढ़ावा देने, लोगों को इन आपदाओं से प्रभावी ढंग से निपटने के बारे में बताने के लिए विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करते हैं। इसके लिए प्रतिवर्ष एक थीम अर्थात विषय तय किया जाता है। इस वर्ष 2023 का मरुस्थलीकरण और सूखा रोकथाम दिवस का थीम रखा गया है- उसकी भूमि उसके अधिकार। इसका उद्देश्य है- 2030 तक उसकी भूमि विषय के तहत लैंगिक समानता और भूमि क्षरण तटस्थता से संबंधित वैश्विक लक्ष्यों को प्राप्त करने के एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में, उसके अधिकार अर्थात महिलाओं के भूमि अधिकारों पर केंद्रित करना। इस अवसर पर मरुस्थलीकरण और सूखा दिवस 2023 के इन उद्देश्यों के साथ मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन लैंगिक समानता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की फिर से पुष्टि करेगा। महिलाओं और बालिकाओं पर मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण, और सूखे के अनुपातहीन प्रभाव और भूमि के मुद्दों पर निर्णय लेने में उनके सामने आने वाली बाधाओं के बारे में जागरूकता बढ़ाने, दुनिया भर में महिलाओं और लड़कियों के भूमि अधिकारों को आगे बढ़ाने के लिए वैश्विक समर्थन जुटाने का प्रयास किया जायेगा। न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में इस वर्ष विश्व स्तर पर यह दिवस मनाया जाएगा, जिसमें अनेक गतिविधियां होंगी।
उल्लेखनीय है कि मरुस्थलीकरण और सूखा दिवस के माध्यम से वैश्विक स्तर पर खराब भूमि को स्वस्थ भूमि में बदलने पर ध्यान केंद्रित किया गया है। खराब भूमि को पुनर्स्थापित करने से आर्थिक लचीलापन आता है। रोजगार सृजित होते हैं। आय के साथ ही और खाद्य सुरक्षा में वृद्धि होती है। यह जैव विविधता को पुनः प्राप्त करने, वायुमंडलीय कार्बन को पृथ्वी को गर्म करने, और जलवायु परिवर्तन को धीमा करने में मदद करता है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 2000 के बाद से सूखे की संख्या और अवधि में 29 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। संसार में अनुमानतः 5.5 करोड़ लोग प्रतिवर्ष सीधे तौर पर सूखे से प्रभावित होते हैं। 2050 तक सूखा संसार की तीन-चौथाई जनसंख्या को प्रभावित कर सकता है। आने वाले समय में अधिकांश लोग पानी की अत्यधिक कमी वाले क्षेत्रों में रह रहे होंगे। 1900 और 2019 के बीच सूखे ने दुनिया में 2.7 अरब लोगों को प्रभावित किया और 1.17 करोड़ लोगों की मौत हुई। भारत के बारे में चिंतनीय बात यह है कि भारत की पर्यावरण स्थिति (एसओई) रिपोर्ट के अनुसार 29 में से 26 भारतीय राज्यों में 2003-2005 और 2011-2013 के दौरान मरुस्थलीकरण की दर में वृद्धि देखी गई। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने सूखे के उच्च जोखिम वाले 78 जिलों में से 21 का आकलन किया है कि उनका 50 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र मरुस्थलीय स्थिति में है। देश की 80 प्रतिशत से अधिक बंजर भूमि राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, जम्मू और कश्मीर, कर्नाटक, झारखण्ड, उड़ीसा, मध्यप्रदेश और तेलंगाना में स्थित है। भारत ने वर्ष 2030 तक 21 मिलियन हेक्टेयर क्षतिग्रस्त भूमि की मरम्मत करने का संकल्प लिया है। भारत के मरुस्थलीकरण के मुख्य कारणों में जल अपरदन 10.98 प्रतिशत वायु अपरदन 5.55 प्रतिशत, मानव निर्मित/बस्तियां 0.69 प्रतिशत, वनस्पति क्षरण 8.91 प्रतिशत, लवणता 1.12 प्रतिशत और अन्य 2.07 प्रतिशत मुख्य हैं।
मानवीय क्रिया -कलापों के कारण विश्व स्तर पर 23 प्रतिशत भूमि अब उत्पादक नहीं है, वहीं 75 प्रतिशत में ज्यादातर भूमि को कृषि के लिए उसकी प्राकृतिक अवस्था से बदल दिया गया है। भोजन, कच्चे माल, राजमार्गों और निवास स्थल की लगातार बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए पृथ्वी की लगभग तीन चौथाई बर्फ मुक्त भूमि की प्रकृति को मनुष्यों के द्वारा बदल दिया गया है। भूमि उपयोग में इस परिवर्तन में पिछले 50 वर्षों में काफी तेजी आई है। इसीलिए रेगिस्तान या मरुस्थल के रूप में बंजर, शुष्क क्षेत्रों का विस्तार होता जा रहा है, जहां वनस्पति नहीं के बराबर होती है। यहां केवल जल संचय करने की अथवा धरती के बहुत नीचे से जल प्राप्त करने की अदभुत क्षमता वाले पौधे ही पनप सकते हैं। इस क्षेत्र में बेहद शुष्क व गर्म स्थिति किसी भी पैदावार के लिए उपयुक्त नहीं होती है। राजस्थान प्रदेश में थार के रेगिस्तान का दबे पांव अरावली पर्वतमाला की दीवार पार कर पूर्वी राजस्थान के जयपुर, अलवर और दौसा जिलों की ओर निरंतर बढने के संकेत केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के राजस्थान में चल रहे प्रोजेक्ट में मिलना भी गम्भीर चिंता का विषय है। अब तक 3000 किमी लंबे रेगिस्तानी इलाकों को उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल तक पसरने से रोकने का काम अरावली पर्वतमाला करती रही है। लेकिन कुछ वर्षों से लगातार वैध-अवैध खनन के चलते कई जगहों से इसका सफाया हो जाने के कारण उनमें दरार आ गया है। उन्हीं दरारों और अंतरालों के बीच से रेगिस्तान पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ चला है। यही स्थिति रही तो आगे यह हरियाणा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश तक पहुंच सकता है। लगातार बढ़ रहा रेगिस्तान एक गंभीर चिन्ता का विषय है। भूमि और सूखा एक जटिल और व्यापक सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय प्रभावों के साथ प्राकृतिक खतरे के अतिक्रमण के साथ किसी भी अन्य प्राकृतिक आपदा की तुलना में अधिक लोगों की मृत्यु और अधिक लोगों को विस्थापित करने के लिए जाना जाता है। प्रकृति, पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण मुक्ति के साथ धरती पर मंडरा रहे खतरों एवं बढ़ते रेगिस्तान को रोकने के लिए सख्त कदम उठाये जाने की आवश्यकता है। जल, जंगल, जमीन एवं जीवन की उन्नत संभावनाओं के लिए मरुस्थल विकास से सम्बन्धित योजनाओं को उच्च प्राथमिकता क्षेत्र में रखे जाने की आवश्यकता है। सुखा से निबटने, भूजल स्तर बढाने, पेयजलापूर्ति योजनाओं को दीर्घावधि को ध्यान में रखकर धरातल पर उतारा जाना चाहिए। उत्पादक भूमि और प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र के नुकसान से बचना, धीमा करना और उलटना अब महामारी से तेजी से ठीक होने और मनुष्यों और धरती के दीर्घकालिक अस्तित्व की सुनिश्चितता के लिए आवश्यक व महत्वपूर्ण हैं।