देश की न्यायपालिका को चुनौती देते खाप पंचायतों के तालिबानी फैसले

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खापों एवं पंचायतों का प्रचलन दरअसल हमारे समाज में आम लोगों के परस्पर मतभेदों को सुलझाने, उन्हें कोर्ट कचेहरी के चक्कर लगाने से बचाने तथा छोटी-मोटी बातों को लेका मतभेद और अधिक गहरा न होने देने के उद्देश्य से समाज के वरिष्ठ एवं जिम्मेदार नागरिकों द्वारा शुरु किया गया था। परंतु यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में विकास एवं प्रगति के नए मापदंड स्थापित होने लगे, शहरी व ग्रामीण लोगों के रहन-सहन, खान-पान,पहनना-ओढ़ना सब कुछ तो परिवर्तित होता गया परंतु ठीक इसके विपरीत पंचायत तथा खापों में बजाए कोई आधुनिक सोच पैदा होने के उल्टे यही पंचायतें तालिबानी रास्ते पर चलती नार आने लगीं।

खाप पंचायतों के विषय में यह भी शिकायतें रही हैं कि प्राय: यह पंचायतें बाहुबली लोगों के पक्ष में अपना फैसला सुनाने का काम करती हैं तथा कमजोर व असहाय व्यक्ति को और अधिक दबाती व प्रताड़ित करती हैं। इस त्रासदी को महान लेखक एवं कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने भी अपने दौर में जरूर महसूस किया था। अपनी उन्हीं संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के रूप में उन्होंने ‘पंच परमेश्वर’ नामक कहानी लिख डाली। पंचायतों व खापों के भटकाव का वास्तविक कारण दरअसल यह है कि इनमें आज भी अधिकांशतया परंपरावादी, अनपढ़, दबंग, जिद्दी, पूर्वाग्रही तथा दूसरों की बातों को पूरी तरह अनसुनी करने की जहनियत रखने वाले लोग ही हावी हैं। इनके हावी होने का कारण भी यह है कि गांव में आमतौर पर युवा वर्ग तथा महिलाएं गांव के बुजुर्गों की पूरी इज्‍जत करते हैं तथा उन्हें अपने बुजुर्गों जैसा पूरा सम्मान देते हैं। संभवत:गांव के बुजुर्ग इस सम्मान को सम्मान या आदर न समझकर यह समझ बैठते हैं कि गांव का युवा वर्ग तथा महिलाएं उनसे डरते व भय खाते हैं। शायद पंचायतों के बुजुर्गों की यही सोच उन्हें अपने दक़ियानूसी, पूर्वाग्रही तथा हठधर्मी पूर्ण परंपराओं से अलग हटने के बारे में सोचने का मौंका तक नहीं देती। और तभी यह खाप पंचायत के सरगना हुक्के क़ी गुड़गुड़ाहट और धुएं के बीच ऐसे फैसले सुना डालते हैं जो दूर तक किसी वास्तविक मुजरिम के विरुद्ध सुनाने योग्य भी नहीं होते।

यहां एक बात और स्पष्ट करनी जरूरी है कि तालिबानी पंचायती फरमानों का सिलसिला केवल हमारे ही देश में नहीं बल्कि पाकिस्तान, बंगला देश, अफगानिस्तान तथा नेपाल जैसे पड़ोसी देशों में भी कांफी प्रचलित है। और दुर्भाग्यवश लगभग इन प्रत्येक जगहों पर पंचायती फैसलों में समान रूप से एक बात देखी जा सकती है कि प्राय: इन के द्वारा सुनाए गए फैसले ग़ैर इंसानी,दहशतनाक तथा आरोपित किए गए तथाकथित जुर्म से कहीं अधिक संगीन व गंभीर होते हैं। पाकिस्तानी पंचायतों के फैसले सुनिए तो रुह कांप उठती है। उदाहरण के तौर पर आंखों मे तेजाब डालना, यह पंचायती फैसला है। बलात्कार का जुर्म करने वाले लड़के की मां के साथ कई लोग सार्वजनिक रूप से बलात्कार करें, यह पाकिस्तान का पंचायती फैसला है। सरेआम कोड़े मारना या जमीन में जिंदा दफन करवा देना जैसे दिल दहला देने वाले फैसले भी ऐसी पंचायतें देती रहती हैं।

हमारे देश में भी पंचायतों द्वारा ऐसे कई फैसले अनेक बार दिए जा चुके हैं जिससे न केवल समाज में खलबली पैदा होती है बल्कि न्यायपालिका, शासन व प्रशासन भी प्राय: लाचार नजर आने लगता है। समान गोत्र में विवाह करना हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश की पंचायतों के लिए तो मानों इस धरती का सबसे बड़ा अपराध माना जाता है। कितना विरोधाभासी है कि कई समुदायों में तो समान गोत्र के वर-वधु होने पर ही रिश्ते कायम होते हैं जबकि कुछ समुदायों में समान गोत्र का अर्थ भाई बहन के रिश्तों जैसा लगाया जाता है। हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ऐसे कई प्रेमी जोड़े जिन्होंने अपने गांव के हुक्का गुड़गुड़ाने वाले पंचायतों के भय की अनदेखी कर विवाह रचाने का ‘दु:साहस’ किया तो उन्हें व उनके परिजनों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है।

कुछ समय पूर्व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसी प्रकार की एक दिल दहला देने वाली घटना घटी। प्रेम विवाह कर चुके प्रेमी जोड़े के माता पिता व सभी परिजन बड़े ही आश्चर्यपूर्ण ढंग से सामूहिक रूप से इस बात पर राजी हो गए कि वे अपने बच्चों को जान से मार कर ही इस तथाकथित ‘कलंक’ से निजात पा सकते हैं। और उन्होंने बड़ी बेरहमी से यह काम अंजाम दे डाला। हरियाणा में भी कई ऐसे फैसले पंचायतों द्वारा सुनाए गए हैं जिसमें या तो समान गोत्र में विवाह करने वाले जोड़ों को विवाहोपरांत भाई बहन का रिश्ता बनाने का फरमान जारी किया गया। अथवा ऐसे जोड़ों को गांव छोड़कर चले जाने को मजबूर किया गया।

कुछ समय पूर्व जींद जिले में ऐसे ही एक समान गोत्र विवाह मामले में उच्च न्यायालय के अधिकारियों तथा पुलिस व प्रशासन के लोगों की मौजूदगी मे वेद मोर तथा उसकी पत्नी सोनिया को पंचायत के इशारे पर गांव वालों ने मार दिया था। ऐसे एक या दो नहीं अनेकों मामले सुनने में आ चुके हैं जिनसे यह साफ जाहिर होता होता है कि खाप पंचायतें हमेशा अपनी मनमानी करती हैं तथा उन्हें अपनी लाठी की तांकत और हुक्क़े क़ी गुड़गुड़ाहट के आगे पुलिस, शासन-प्रशासन, न्यायपालिका आदि किसी की कोई परवाह नहीं होती। न्यायपालिका भी खाप पंचायतों के ऐसे तुगलकी फरमानों पर चिंता व्यक्त करते हुए इस आशय की टिप्पणी दे चुकी है कि समानांतर न्याय प्रणाली का प्रचलन अत्यंत घातक है। परंतु पंचायतों द्वारा ऐसी सभी टिप्पणीयों की अनदेखी की जाती रही है। ”

अब पहली बार करनाल की एक अदालत द्वारा यह साहस जुटाया गया है कि किसी प्रकार खाप पंचायतों के तुगलकी ंफैसलों के सिलसिले को हमेशा के लिए बंद किया जाए। भारत के गृहमंत्री पी चिदंबरम भी खाप पंचायतों के बेतुके फैसलों की निंदा कर चुके हैं। संभवत: देश के गृह मंत्रालय तथा न्यायलयों द्वारा पंचायतों के तालिबानी फरमानों के विरुध्द की जाने वाली टिप्पणियों से प्रोत्साहित होकर करनाल की अदालत ने विवाहित प्रेमी जोड़े की हत्या करने के क्रूर पंचायती फरमान को अंजाम देने वाले पांच व्यक्तियों को मृत्यु दंड की साा सुनाई है। जबकि पंचायत के नेता को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है। 18 मई 2007 को कैथल जिले के करोरा गांव के निवासी मनोज व बबली पर खाप पंचायत का आरोप था कि उन्होंने खाप के पारंपरिक नियमों को ताक़ पर रखते हुए एक ही गोत्र में विवाह रचा डाला। मनोज व बबली के इस ‘दु:साहस’ के विरुद्ध स्वघोषित तथा स्वयंभू रूप से गठित पंचायत ने इस दंपति को सजा-ए-मौत का फरमान सुना दिया। इस मामले में युवक मनोज के माता पिता को इस विवाह को लेकर कोई आपत्ति नहीं थी। परंतु लड़की के परिजनों ने पंचायत के फैसले पर अमल करते हुए दंपति की बेरहमी से हत्या कर डाली। करनाल के अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायधीश वाणी गोपाल शर्मा ने गत् 30 मार्च को इसी मामले में अपना ऐतिहासिक निर्णय देते हुए हत्या आरोपी मृतका वधू बबली के भाई सुरेश,चाचा राजेंद्र एवं बाबूराम ,बबली के चचेरे भाई गुरदेव व सतीश को सजा-ए-मौत सुनाई जबकि खाप पंचायत के स्वयंभू नेता गंगाराज को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।

यह पहला अवसर है जबकि अदालत को किसी खाप पंचायत के अमानवीय ंफैसले के विरुद्ध इतना सख्त फैसला सुनाने के लिए बाध्य होना पड़ा है। पंचायतों को आज के युग में यदि अपनी विश्वसनीयता, लोकप्रियता, दबदबा तथा मान मर्यादा कायम रखनी है तो उन्हें अपने पूर्वाग्रहों तथा परंपरावादी दक़ियानूसी विचारों से ऊपर उठना होगा। पंचायतें यदि अपने खोए हुए तथा निरंतर खोते जा रहे सम्मान को वापस पाना चाहती हैं तो उन्हें अमानवीस व तालिबानी फैसले सुनाने के बजाए ऐसे फैसले सुनाने चाहिए जिनसे समाज व देश का कुछ कल्याण हो सके। इनमें सर्वप्रथम तो हुक्का गुड़गुड़ाने की हानिकारक परंपरा को ही समाप्त करने की जरूरत है। तंबाकू सेवन की यह आदत तथा सार्वजनिक रूप से किया जाने वाला इसका पारंपरिक प्रदर्शन हमारी भावी आधुनिक एवं प्रगतिशील युवा पीढ़ी के भविष्य को प्रभावित करता है। पंचायतों को दहेज प्रथा के विरुद्ध आवाज बुलंद करनी चाहिए। शराब के ठेकों से समाज को होने वाले नुंकसान को मद्देनार रखते हुए इनके विरुध्द लामबंद होना चाहिए। डी जे व प्रदूषण फैलाने वाली आतिशबाजी जैसे शोर शराबा पूर्ण कार्यक्रमों का विरोध करना चाहिए। अंध विश्वास, जादूटोना, झाड़ फूंक जैसी दक़ियानूसी परंपराओं से समाज को मुक्त करने हेतु सक्रिय होना चाहिए। कन्या भ्रुण हत्या का पंचायतों को विरोध करना चाहिए। बच्चों को शिक्षा अनिवार्य रूप से प्राप्त हो सके इसके लिए सक्रिय होना चाहिए। रक्तदान, वृक्षारोपण, तालाबों, व जोहड़ों के निर्माण व रख रखाव जैसी रचनात्मक तथा लाभप्रद योजनाओं में सक्रियता दिखानी चाहिए। प्रत्येक गांव में पुस्तकालय स्थापित कराने चाहिए। जातिवाद तथा सांप्रदायिकता का विरोध करना चाहिए। और ऐसा कोई भी प्रयास नहीं करना चाहिए जिससे यह प्रतीत हो कि खाप पंचायत व्यवस्था हमारे देश की न्यायपालिका को चुनौती देने तथा उसके समानांतर तथाकथित न्यायिक प्रणाली चलाने का कोई प्रयास कर रही है। बजाए इसके इन्हीं पंचायतों को आपसी मामलों के निपटारे के लिए देश की न्यायपालिका को अपना सहयोग देना चाहिए।

-निर्मल रानी

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