मनमोहन कुमार आर्य,
हम प्रतिदिन टीवी, समाचारपत्रों आदि के माध्यम से लोगों की मृत्यु का समाचार सुनते रहते हैं। संसार में आज से 150 वर्ष पूर्व जितने भी लोग उत्पन्न हुए, वह सभी मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं। उनके बाद भी जो पैदा हुए उसका भी 50 प्रतिशत से अधिक भाग मृत्यु का ग्रास बन चुका हैं। वर्तमान में जो जीवित लोग हैं वह भी आने वाले लगभग 100 वर्षों में सभी मृत्यु का ग्रास बनेंगे। क्या हम अपनी मृत्यु के विषय में आश्वस्त हैं कि यह आगामी कुछ वर्षों में होना सुनिश्चित है। हमें केवल मृत्यु के दुःख को ही दूर नहीं करना अपितु अपने पुनर्जन्म को भी सुखद व उन्नत बनाना है। भविष्य में हमारी मृत्यु होना निश्चित है। अतः हमें मृत्यु के स्वरूप और जीवात्म के बार-बार जन्म व मृत्यु के द्वन्द्व या चक्र से मुक्त होने के विषय में विचार करना है। शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा करता होगा। यदि नहीं करता है तो कुछ समय निकाल कर विचार कर लेना उचित होगा। शायद इससे हमें कुछ लाभ हो सके।
मृत्यु का अर्थ शरीरस्थ हमारी जीवात्मा का शरीर से निकल कर जाना है। यह आत्मा कब व क्यों निकलता है? इसका उत्तर है कि जब हमारा शरीर आत्मा को धारण व वहन करने योग्य नहीं रहता तो परमात्मा हमारी आत्मा को इस शरीर से निकाल कर उसके इस जन्म व पूर्वजन्मों के उन कर्मों जिनका भोग नहीं हुआ है, उन समस्त कर्मों के भोग अर्थात् सुख व दुःख देने के निमित्त न्याय प्रदान करने के साथ हमें पुनर्जन्म प्रदान करते हैं। मनुष्य के मरने के बाद उसका पुनर्जन्म मनुष्य का ही होगा, इसकी गारण्टी नहीं है। मनुस्मृति के प्रमाण से विदित होता है कि यदि हमारे पूर्वजन्मों के बचे हुए व इस जन्म के समस्त अभुक्त कर्मों को मिलाकर उनका पचास प्रतिशत से अधिक भाग यदि शुभ व पुण्य कर्म हैं तो मनुष्य का जन्म मिलता है अन्यथा पशु व पक्षी आदि नीच योनियों में जन्म मिलता है। संसार में हम देखते हैं कि जो जितना अधिक व जघन्य अपराध करता है उसका न्याय व्यवस्था से दण्ड भी उतना ही अधिक कठोर होता है। परमात्मा भी जीवात्मा के द्वारा मनुष्य योनि में किये गये कर्मों के अनुसार भावी जन्म में उन प्रत्येक कर्म का फल देने के लिये अपनी आदर्श न्याय व दण्ड व्यवस्था का निर्वाह करते हैं। ईश्वरीय कर्म-फल व्यवस्था के रहस्य को जानकर विवेकशील मनुष्य पाप व अशुभ कर्म करना छोड़ देते हैं जिससे उन्हें पशु-पक्षी आदि नीच योनियों में जाकर दुःखों का भोग न करना पड़े। उनका यह भी प्रयास होता है कि यदि वह जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्त हो सकते हों तो उसके लिये भी उन्हें प्रयत्न करने चाहियें।
मनुष्य को यह विचार करना चाहिये कि वह दैनन्दिन दुःखों से कैसे बच सकते हैं? इसके साथ ही मृत्यु अधिक दुःखदायी न हो, इसका भी विचार करना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने भी अपनी आयु के चौदहवें वर्ष में इन प्रश्नों पर विचार किया था और इसके उत्तर प्राप्त करने के लिये सभी आवश्यक उपायों व पुरुषार्थ को भी किया था। वह अपने इस मिशन में सफल हुए थे। हमें उनके ज्ञान व अनुभवों से लाभ उठाना चाहिये। ऋषि दयानन्द को ईश्वर, आत्मा व सृष्टि विषयक जो ज्ञान प्राप्त हुआ उसे उन्होंने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदभाष्य आदि अपने अनेक ग्रन्थों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। हम संक्षेप में कुछ लिखने का प्रयास करते हैं। मनुष्य के जन्म व मरण का कारण उसके मनुष्य जीवन में किये गये शुभ व अशुभ कर्म होते हैं। शुभ कर्म पुण्य कहलाते हैं जिनसे हमें जन्म व जन्मान्तर में सुख मिलता है। अशुभ कर्म करने से हमें दुःख मिलते हैं। यदि हम जीवन में अशुभ कर्म न करें तो हम दुःखों से मुक्त हो सकते हैं। कर्मों के अतिरिक्त जीवन में आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक दुःख भी प्राप्त होते हैं। यह जानना कि हमारा कौन सा दुःख किस कारण से है, यह पूर्णतः सम्भव नहीं है। अशुभ कर्म न करना, दुःख न हो इसके लिये पूरी सावधानी रखना, अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करना, ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को जानकर उसका वैदिक रीति से अनुष्ठान, सम्पादन व आचरण करना हमारा कर्तव्य है। प्रतिदिन वेद, उपनिषद, दर्शन व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय करने से हमें विद्या प्राप्त होती है ओर अविद्या का नाश होता है। यदि हम ऐसा करेंगे तो हम विवेकशील हो जायेंगे और कर्मफल सिद्धान्त तथा ईश्वरीय व्यवस्था को जानकर अधिकांश दुःखों से बच सकते हैं।
ऋषि दयानन्द को जो ज्ञान व बोध प्राप्त हुआ, उसके अनुसार प्रत्येक गृहस्थी मनुष्य को पंच महायज्ञों का पालन अवश्य करना चाहिये। पहला महायज्ञ ब्रह्मयज्ञ या सन्ध्या कहलाता है। यही वास्तविक व यथार्थ ईश्वर की पूजा है। इसमें वेदमन्त्रों वा वैदिक विधि से ईश्वर के उपकारों व स्वरूप सहित गुण-कर्म-स्वभावों का ध्यान किया जाता है। उसका धन्यवाद कर कृतज्ञता प्रदर्शित की जाती है। बुरे कर्मों को छोड़ने तथा सत्य व परोपकार के कर्म करने का व्रत व प्रतिज्ञा की जाती है। सन्ध्या का एक भाग स्वाध्याय करना भी है। इसमें आत्म चिन्तन, ईश्वर चिन्तन व सद्ग्रन्थों का अध्ययन आता है। इसे करने से अविद्या दूर होकर मनुष्य इस संसार के प्रायः सभी व अधिकांश रहस्यों को जान लेता है। इससे उसके दुष्ट व पाप कर्म छूट जाते हैं। वह अत्यन्त सादगी व सत्याचरण का जीवन व्यतीत करता है। इससे उसके दुःखों में कमी आती है तथा सहन शक्ति में वृद्धि होती है जिससे वि त्रिविध दुःखों को रुदन किये बिना अपनी आत्मशक्ति से सहन कर लेता है। अन्य महायज्ञों में दैनिक अग्निहोत्र, माता-पिता की तन-मन-धन से सेवा, विद्वान अतिथियों की उनके गुणों क अनुसार यथायोग्य सेवा करना तथा पशु-पक्षियों के प्रति दया व करुणा का भाव रखकर उनके जीवनयापन में सहयोगी हुआ जाता है। इस प्रकार से सन्ध्या व योगसाधना करते हुए महीनों व कुछ वर्षों में उपासक व ध्याता आत्मा व ईश्वर का साक्षात्कार करके जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। मुक्ति को प्राप्त हुई आत्मा के सभी दुःख लगभग 43 नील वर्षों के लिये दूर हो जाते हैं। वह ईश्वर का मित्र बनकर उसके साथ रहता है और ईश्वर के आनन्द को उसके सान्निध्य में रहकर भोगता है। यह अवस्था बहुत कम लोगों को प्राप्त होती है। अनुमान है कि यह अवस्था ऋषि दयानन्द सरस्वती को प्राप्त हुई होगी।
लोभी, कामी, क्रोधी, मांसाहारी आदि रज व तम गुणों वाले मनुष्यों को मोक्ष व मुक्ति की अवस्था कभी प्राप्त नहीं हो सकती। इसके लिये तो पूर्ण सात्विक प्रकृति का मनुष्य बनना पड़ता है। हमारा जीवन ऋषियों के समान व ऋषि दयानन्द जैसा होगा तब हम कुछ अनुमान कर सकते हैं कि हम मोक्ष पथ के यात्री मुमुक्षु हैं। मुक्ति अवस्था ही हमें बार-बार के जन्म व मृत्यु से मुक्त करती है। यदि हम इस ज्ञान से लाभ उठाते हैं तो हमारा अहोभाग्य है अन्यथा हम बार-बार जन्म लेकर गिरते व उठते रहेंगे और दुःखों से मुक्त नहीं हो सकते। मृत्यु से बचने का यही उपाय हमारे वैदिक शास्त्रों में उपलब्ध होता है। वेद ईश्वर प्रदत्त ग्रन्थ हैं तथा दर्शन, उपनिषद, सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थ हमारे ऋषि-मुनियों ने बनाये हैं। यह भी ध्यान रखना होता है कि वेदानुकूल विचार, मान्यता व सिद्धान्त ही सत्य होता है तथा इसके विपरीत सभी कुछ असत्य व अविद्यायुक्त होता है जिसका परिणाम दुःख होता है। इस आधार पर मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, छुआछूत, ऊंच-नीच का व्यवहार, हिंसा की प्रवृत्ति, मांसाहार, अण्डे-मदिरा आदि का सेवन, छल-कपट, पक्षपात व अन्यायरूपी व्यवहार आदि वेद-विरुद्ध कर्म होने से मनुष्य को बन्धनों में बान्धते एवं दुःख देते हैं। ईश्वर की वैदिक विधि से स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना ही उत्तम एवं लाभकारी है। जो मनुष्य जैसे कर्म करेगा उसे वैसे ही फल मिलेंगे। कोई व्यक्ति, विद्वान, सन्त, सन्देश-वाहक, महात्मा, साधु, ऋषि, मुनि मनुष्य के बुरे कर्मों का फल भोगने से बचा नहीं सकता। ईश्वर किसी मनुष्य के किसी दुष्ट कर्म को क्षमा नहीं करता। ईश्वर अकेला है और सभी जीवात्मायें उसके पुत्र-पुत्रियां-बन्धु-सखा आदि हैं। ईश्वर व जीवात्मा के बीच में कोई बिचौलिया नहीं है जिसकी मनुष्य वा जीवात्माओं को सिफारिश की आवश्यकता पड़े। ईश्वर के पास किसी की सिफारिश नहीं चलती। उसके यहां सभी के साथ समान व्यवहार होता है। सभी आत्मायें उसे प्रिय हैं एवं वह सबका कल्याण चाहता है। अतः सभी मनुष्यों को किसी भी मत-पन्थ-सम्प्रदाय वा धर्म को आंखे बन्द करके स्वीकार नहीं करना चाहिये। यदि करेंगे तो हमें ही हानि उठानी होगी। भ्रमित करने वालों को भी सजा मिलेगी परन्तु उससे हमारे दुःख तो कम नहीं होंगे। हमें ज्ञानी बनना है और ज्ञानियों के साथ ही संगति कर उनसे वार्तालाप कर सत्य को जानना व अपनाना है। हम समझते हैं कि यदि हम इतना कर लेते है ंतो हमें बहुत लाभ होगा।
हमें यह लेख लिखने का विचार हमारे एक पुराने मित्र श्री जयचन्द शर्मा जी की पत्नी के कल रात्रि देहावसान एवं आज अन्त्येष्टि से उत्पन्न वातावरण में आया है। हम अनुभव करते हैं कि हमनें इस संसार में जन्म लिया है और कुछ समय बाद हमें इस संसार से जाना है। कोई मनुष्य मरना नहीं चाहता परन्तु ईश्वर जब आवश्यक होता है तो आत्मा व सूक्ष्म शरीर को शरीर से पृथक कर देता है। मृत्यु के समय मनुष्य रुदन इसीलिये करता है कि वह शरीर छोड़ कर जाना नहीं चाहता परन्तु उसे शरीर छोड़ने के लिए विवश होना पड़ता है। उसका अपना किंचित वश नहीं चलता कि वह अपनी मृत्यु होने से रोक सके। अतः हमें मृत्यु से सम्बन्धित प्रश्नों पर विचार कर अथवा वैदिक साहित्य का अध्ययन कर यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना चाहिये जिससे कि हमारी मृत्यु यथासम्भव सुखद हो सके। हम आशा करते हैं कि इस लेख से पाठकों को लाभ होगा।